Alexander cunningum writes About Meghs.History of Meghs,Source Tara Ram Goutam.

Saturday, November 24, 2018

कनिंघम महोदय की कलम से :  मेघ और उनका प्राचीन इतिहास।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट से...
             Know your history-यहाँ नीचे Alexander Cunningham द्वारा  मेघो के इतिहास के बारे में और उनकी ethnology के बारे में "
             Archaeological Surve of India: four reports during the years 1862-63-64-65, volume-2 के पेज संख्या 11 से 13 का विवरण ज्यों का त्यों दे रहा हूँ।
यह रिपोर्ट गवर्नमेंट सेंट्रल प्रेस,शिमला से 1871 में प्रकाशित  हुई थी।
                                          Megs.
        "Connected with the Takkas by a similar inferiority of social position is the tribe of Megs, who form a large part of the population of Riyasi, Jammu, and Aknur. According to the annals of the Jammu Rajas, the ancestors of Gulab Singh were two Rajput brothers, who, after the defeat of Prithi Raj, settled on the bank of the Tohi or Tohvi River amongst the poor race of cultivators called Megs. Mr. Gardner calls them " a poor race of low caste," but more numerous than the Takkas. In another place he ranges them amongst the lowest class of outcasts ; but this is quite contrary to my information, and is besides inconsistent with his own description of them as " cultivators." They are but little inferior, if not equal, to Takkas. I have failed in tracing their name in the middle ages, but I believe that we safely identify them with the Mekei of Aryan, who inhabited the banks of the River Saranges near its confluence with the Hydraotes. This river has not yet been identified with certainty, but as it is mentioned immediately after the Hyphasis or Bias, it should be the same as the Satlaj. In Sauskrit the Satlaj is called Satadru, or the " hundred channeled," a name which is fairly represented by Ptolemy's Zaradrus, and also by Pliny's Hesidrus, as the Sanskrit Sata becomes Hata in many of the W. Dialects. In its upper course the commonest name is Satrudr or Satudr, a spoken form of Satudra, which is only a corrup tion of the Sanskrit Satadru. By many Brahmans, how ever, Satudra is considered to be the proper name, although from the meaning which they give to it of " hundred- bellied," the correct form would be Satodra. Now Arrian's Saranges is evidently connected with these various readings, as Satdnga means the '* hundred divisions," or " hundred parts," in allusion to the numerous channels which the Satlaj takes just as it leaves the hills. According to this identification the Mekei, or ancient Megs, must have in habited the banks of the Satlaj at the time of Alexander's invasion. In confirmation of this position, I can cite the name of Megarsus, which Dionysius Periegetes gives to the Satlaj, along with the epithets of great and rapid.* This name is changed to Cymander by Aoienus, but as Priscian preserves it unaltered, it seems probable that we ought to read Mycander, which would assimilate it with the original name of Dionysius. But whatever may be the true reading of Avienus, it is most probable that we have the name of the Meg tribe preserved in the Megarsus River of Dionysius. On comparing the two names together, I think it possible that the original reading may have been Megandros, which would be equivalent to the Sanskrit Megadru, or river of the Megs. Now in this very part of the Satlaj, where the river leaves the hills, we find the important town of Makhowal, the town of the Makh or Magh tribe, an inferior class of cultivators, who claim descent from Raja Mukh- tesar, a Sarsuti Brahman and King of Mecca ! " From him sprang Sahariya, who with his son Sal was turned out of Arabia, and migrated to the Island of Pundri; eventually they reached Mahmudsar, in Barara, to the west of Bhatinda, where they colonised seventeen villages. Thence they were driven forth, and, after sundry migrations, are now settled in the districts of Patiala, Shahabad, Thanesar, Ambala, Mustafabad, Sadhaora, and Muzafarnagar."* From this account we learn that the earliest location of the Maghs was to the westward of Bhatinda, that is, on the banks of the Satlaj. At what period they were driven from this locality they know not ; but if, as seems highly probable, the Magiaus whom Timur encountered on the banks of the Jumna and Ganges were only Maghs, their ejectment from the banks of the Satlaj must have occurred at a comparatively early period. The Megs of the Chenab have a tradition that they were driven from the plains by the early Muhammadans, a statement which we may refer either to the first inroads of Mahmud, in the beginning of the eleventh century, or to the final occupation of Lahor by his immediate successors. 3. Other
* Orljis DcsLTi1itio, V. 1145.
• Smith's Rcv1ning Family of Lahor, p. 232, and Appendix p. xxix. In the text he m.'iti* the " Tukkers" Hindus, but in the Appendix he calls the " Tuk" a " brahman caste." The two names are, however, most probably not the same. t Ibid, pp. 232, 201, and Appendix p. xxix.


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Religious outlookand perception.Abrogation of impurity.

Thursday, November 8, 2018

Religious outlook and perception :Abrogation of impurity.
धार्मिक सोच और अपवित्रता का निराकरण..... यहाँ फिर पंजाब के मेघों का उदाहरण विचारणीय है। धर्म के द्वारा थोपी गयी अपवित्रता धर्म बदलने के साथ ही खत्म होती हुई देखी गयी है। ...जो भी हो, कई मामलों में जातिगत अपवित्रता का निराकरण एक धर्म से दूसरे धर्म में जाने से हो जाता है। इस में हिन्दू धर्म से ईसाई या मुसलमान बनने वाले कई उदाहरण है और आज भी जाति के साथ चिपकी हुई जातिगत अपवित्रता भी धर्म परिवर्तन के पीछे  एक बड़ा कारण है।
                हिन्दू धर्म में जाति के कारण अपवित्र या वर्जना माने जाने वाले व्यक्ति के धर्म बदलने पर उसके साथ चिपकी हुई अपवित्रता या अछूतपन मिट जाता है। इस प्रसंग में राय बहादुर हीरालाल ने शोध आलेख ' Caste impurity in the Central Provinces' में पंजाब के मेघों का उल्लेख करते हुए लिखा कि कुछ घंटों पूर्व जो वर्जित या अपवित्र थे, वे हिन्दू से मुसलमान होते ही स्वीकार्य हो गए।
               एक समय पंजाब में किसी जगह मेघ लोग रेलवे में कुली (मजदूर) का काम करते थे। उनको बहुत जोर की प्यास लगी। आस-पास पानी का कोई स्रोत नहीं था। लेकिन वहां एक कुआँ था। मेघों ने उस कुँए से पानी निकलना चाहा तो वहां के एक उच्च जाति के आदमी ने बखेड़ा खड़ा कर दिया और हिन्दुओं ने उन्हें कुँए से पानी निकालने नहीं दिया। मेघ लोगों की पानी के बिना हालत ख़राब होने लग गयी। उन्होंने विचार किया एक मुसलमान इस कुँए से पानी भर सकता है, परंतु एक मेघ नहीं..। सब एक राय होकर पास में बनी मस्जिद में गए और उसी समय मुसलमान हो गए।
                अब मुसलमान बनने के बाद वे कुछ मुस्लमानों और कुछ ऊँची जाति के लोगों के साथ पुनः कुँए पर आये। अब उन्हें मना करने का कोई कारण नहीं था। अब वे उस कुँए का उपयोग कर सकते थे...करने लगे। स्पष्तः धर्म बदलने से अब उनकी तथाकथित अपवित्रता का निरास हो चुका था। उन्हें कुछ ही घंटों में पानी मिल गया।............।
                 राय बहादुर हीरालाल ने लिखा कि कुछ समय पूर्व 30000 मेघों ने मुसलमान धर्म स्वीकार  कर लिया था, उस से उनकी जातिगत  वर्जना या अपवित्रता का निराकरण ( Abrogation of Impurity) हो गया।
Reference:  'Man in India', Vol-3, March & June, 1923, No. 1 & 2. Here below is placed a Page 71.


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Religious outlook and perception:abrogation of impurity:- Source Tara Ram

Religious outlook and perception :Abrogation of impurity.
धार्मिक सोच और अपवित्रता का निराकरण..... यहाँ फिर पंजाब के मेघों का उदाहरण विचारणीय है। धर्म के द्वारा थोपी गयी अपवित्रता धर्म बदलने के साथ ही खत्म होती हुई देखी गयी है। ...जो भी हो, कई मामलों में जातिगत अपवित्रता का निराकरण एक धर्म से दूसरे धर्म में जाने से हो जाता है। इस में हिन्दू धर्म से ईसाई या मुसलमान बनने वाले कई उदाहरण है और आज भी जाति के साथ चिपकी हुई जातिगत अपवित्रता भी धर्म परिवर्तन के पीछे  एक बड़ा कारण है।
                हिन्दू धर्म में जाति के कारण अपवित्र या वर्जना माने जाने वाले व्यक्ति के धर्म बदलने पर उसके साथ चिपकी हुई अपवित्रता या अछूतपन मिट जाता है। इस प्रसंग में राय बहादुर हीरालाल ने शोध आलेख ' Caste impurity in the Central Provinces' में पंजाब के मेघों का उल्लेख करते हुए लिखा कि कुछ घंटों पूर्व जो वर्जित या अपवित्र थे, वे हिन्दू से मुसलमान होते ही स्वीकार्य हो गए।
               एक समय पंजाब में किसी जगह मेघ लोग रेलवे में कुली (मजदूर) का काम करते थे। उनको बहुत जोर की प्यास लगी। आस-पास पानी का कोई स्रोत नहीं था। लेकिन वहां एक कुआँ था। मेघों ने उस कुँए से पानी निकलना चाहा तो वहां के एक उच्च जाति के आदमी ने बखेड़ा खड़ा कर दिया और हिन्दुओं ने उन्हें कुँए से पानी निकालने नहीं दिया। मेघ लोगों की पानी के बिना हालत ख़राब होने लग गयी। उन्होंने विचार किया एक मुसलमान इस कुँए से पानी भर सकता है, परंतु एक मेघ नहीं..। सब एक राय होकर पास में बनी मस्जिद में गए और उसी समय मुसलमान हो गए।
                अब मुसलमान बनने के बाद वे कुछ मुस्लमानों और कुछ ऊँची जाति के लोगों के साथ पुनः कुँए पर आये। अब उन्हें मना करने का कोई कारण नहीं था। अब वे उस कुँए का उपयोग कर सकते थे...करने लगे। स्पष्तः धर्म बदलने से अब उनकी तथाकथित अपवित्रता का निरास हो चुका था। उन्हें कुछ ही घंटों में पानी मिल गया।............।
                 राय बहादुर हीरालाल ने लिखा कि कुछ समय पूर्व 30000 मेघों ने मुसलमान धर्म स्वीकार  कर लिया था, उस से उनकी जातिगत  वर्जना या अपवित्रता का निराकरण ( Abrogation of Impurity) हो गया।
Reference:  'Man in India', Vol-3, March & June, 1923, No. 1 & 2. Here below is placed a Page 71.


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तारा राम गौतम जी के साथ कुछ विचार विमर्श

Wednesday, November 7, 2018

[10/30, 21:24] ‭Tara ram‬ Gautam Rishtaa 788: किसी पोस्ट में हम ने यह बताया था कि लाल ढेढ, जो जम्मू-कश्मीर में 14 वीं शदि में हुई, वह जाति से मेघ थी और सिन्ध के दरद इलाके की थी। बहुत बाद में जब अंग्रेजों ने उसकी वाणी को प्रकाशित किया तो उसका फायदा लेने के लिए ब्राह्मणों से उसे ब्राह्मण घोषित करने का षड्यंत्र शुरू किया।
जो भी हो उस समय के हिसाब से वह मेघ ही थी। आज उसे जो भी कहें।
पुरानी पुस्तकों ने ढेढ़ उसकी जाति कही गयीं है और उस समय दरद से आने वाले लोगों को ही ढेढ कहा जाता था। जो एक तरह से मेघ जाती का पर्याय बन गया था, बाद में वह दूसरे अर्थ में बदल गया।
ऊपर के संदर्भ में भी (टिप्पणी देखे) लला ढेढ़ के नाम मे ढेढ़ शब्द को जाति ही कहा गया है।
[10/31, 15:51] ‭Tara ram‬ Gautam Rishtaa 788: हरबंश लीलड़ का एक कॉमेंट एक ग्रुप में-- देखिए:-

"तारा राम जी लीलड़ ने विस्तार एवं प्रमाण सहित राज कुमार जी के सवालों का जवाब देने का प्रयास किया है पर इस विषयांतर्गत बहुत से अनसुलझे सवाल हैं  राजस्थान भूगोलिक स्तिथिनुसार उन्होंने दो राजनेताओं सर्वश्री कैलाश मेघवाल व अर्जुन मेघवाल के नाम की आड़ में स्तिथि स्पष्ट करने की कोशिश की है, क्या किसी राजनेता के नाम की आड़ में मेघ जाति का इतिहास स्पष्ट हो सकता है ? तारा राम लीलड़ साहिब साहिब ने आगे इस audio में  तीन महापुरुषों कबीर साहिब, रविदास जी, एवं राम देव जी का ज़िक्र कर निर्गुण व सर्गुण भक्ति का ज़िक्र कर मेघ जाति का वर्गीकरण करने की कोशिश की है, लेकिन इन तथ्यों को तो कालविशेष के परिपेक्ष में देखा जा सकता है. असल में अध्यात्मक परिपक्तानुसार इन महापुरुषों ने जातिविशेष की बात की ही नहीं, इन अध्यात्मक विभूतियों को किसी जाति विशेष के साथ जोड़ना हमारी अज्ञानता हो सकती है।  अधूरी व तथ्यहीन जानकारियों की वजह से लाखों की संख्या में मेघ दूसरी जातियों व धर्मों में चले गये हैं और धर्मांतरण कर रहे हैं. इस असंवैधानिक कार्यों में बहुत सारी धर्म विशेष की संस्थायें लिप्त हैं, हैरानी जनक सत्य यह है कि तारा राम जी गौतम जो एक नामी लीलड़ गोत्र के परिवार से संबधित हैं , इस गोत्र का एक शानदार इतिहास श्री लाखा जी लीलड़ व सतीमाता फूलां जी कीं गाथा राजस्थान के जैसलमेर क्षेत्र में गाईं जाती हैं, मुझे गर्व है कि मैं उस गोत्र एंव क्षेत्र से संबधित हूँ, लेकिन तारा राम जी ने उस गोत्र एंव जाति का त्याग कर अपना सरनाम गौतम धारण कर लिया.अपनी लेखनी में भी उन्होंने भारत की मेघ जाती के मूल को बौद्धधर्म के साथ जोड़ने की कचेष्टा की है, जो सरासर इस जाति के इतिहास के साथ खिलवाड़ है."
[10/31, 16:01] ‭Tara ram‬ Gautam Rishtaa 788: मेरा यह मानना है-
औऱ यह जो लीलड़ शब्द जो मेघों में पाया जाता है , वह भौगोलिक शब्द है और उन मेघों के लिए प्रयुक्त होता था, जो सिंधु नदी की एक सहायक नदी "लीलड़ी" के मुहाने पर बसे थे। वहां से विस्थापित होकर जहाँ भी गए वे उसी नाम से जाने जाते रहे और बाद में यह मेघों की एक जाति बन  गयी। सिंध में भट्टी या भाटी लोगों का आधिपत्य होने के समय इनका विस्थापन हुआ, इसलिए अपने को भाटी राजपूतों से निसृत भी मानते है, जो ठीक नहीं है।
  सिंध की सहायक नदियों के लिए एंसीएन्ट रिवर्स पर अच्छी पुस्तक में देखा जा सकता है, जहाँ लीलड़ी नदी का भी जिक्र मिलेगा।


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मेघ औरतों का भारत की आज़ादी में योगदान। सोर्स तारा राम गौतम।

मेघवाल औरतों का आजादी में योगदान: मेघवाल औरतों ने अपने गहने यानी आभूषण गांधीजी को भेंट किये।

2 मई 1921 को गांधीजी कराची में थे और उन्होंने वहां भीमपुरा में मेघवालों की मीटिंग ली, जिसमें मेघवाल औरतों ने अपने आभूषण गांधीजी को समर्पित किये।

यह हमने पहले ही बताया है कि आजादी की लड़ाई में मेघवालों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। कई लोग जेल गए और कईयों को सजा हुई। उन की जानकारी बिखरी पड़ी है। उसे इक्कठा कर लोगों के बीच मे लाना चाहिए, ताकि आने वाली पीढियां उस पर गौरव कर सके।
   महात्मा गांधी के कराची और हैदराबाद (पाकिस्तान) के दौरे में मेघवालों ने तन मन धन से सहयोग दिया, उसकी साक्षी उस समय के पत्र पत्रिकाओं में न्यून रूप से है।
   भीमपुरा में हुई सभा मे सभी मेघवालों ने गांधी जी को न केवल धन देकर उनके आंदोलन को बल दिया बल्कि मेघवाल औरतों ने भी बढ चढ़ कर अपने सम्पूर्ण गहने गांधीजी को भेंट कर दिए। इसका उल्लेख 'Source Material for a History of the freedom movement in India' 
Mahatma Gandhi Vol. 3,
(Khilafat Movement-1920-1921)
Edited by Dr. K. K. Chaudhary
Govt. Of Maharashtra

इस वॉल्यूम के पेज 381 के एक विवरण को ज्यों का त्यों यहां उद्धृत कर रहा हूँ, देखे:-

"Gandhi addressed a meeting of about 1,000 men and 200 women of the depressed classes in
Bhimpura, mostly Meghwars, including some sweepers. Meghwar women also contributed money
and ornaments freely. The visitor, in addition to his usual advice regarding the spinning-wheel and
Swadeshism, exhorted them not to drink liquor or eat meat, and further asked them to unite with
Hindus and Mahommadans. --------" pp381


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A.S. Rose की किताब Glosarry of Tribes से। सियालकोट के मेघ

सियालकोट के मेघ:

(See Reference: Glossary of the Tribes and Castes of the Punjab)

मेघ:

        मेघ, मिहङ्गः :  सियालकोट और जम्मू के सीमावर्ती इलाकों में निवास करते है। वे अमृतसर, गुरदासपुर, लाहौर और गुजरात में भी निवास करते है। रावलपिंडी में उन्हें मेंग कहते है।
         सियालकोट के मेघ अपनी उत्पत्ति की निम्न कथा बताते है:
         प्राचीन काल में उनका पुरखा, जो कि ब्राह्मण था, काशी/बनारस में रहता था। उसके दो लड़के थे। एक पढ़ा-लिखा विद्वान पंडित था और दूसरा निरा-अनपढ़। उसने बड़े लड़के को छोटे लड़के को पढ़ाने का बोला। लेकिन बड़े लड़के ने अपने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया। इस पर पिता ने क्रोधित होते हुए बड़े लड़के को घर से बाहर निकाल दिया। वह लड़का घर से निकलकर जम्मू रियासत के उत्तर दिशा में जा बसा और वहां पर अपने पूर्वजों की तरह ही बच्चों को पढ़ाने लगा। इसके साथ-साथ वह यज्ञ-हवन भी संपादित करने लगा। एक बार वह यज्ञ कर रहा था तो उसके मंत्र गाय को पुनर्जीवित करने में असफल हो गए। तब लोगों ने उसे अविश्वास और घृणा-भरी नजर से देखना शुरू कर दिया। तब उसके पिता को बुलाया गया, जिसके मंत्रों से गाय जीवित हो गयी। उस समय उसके पिता ने उसके साथ खान-पान करने से मना कर दिया, लेकिन वचन दिया कि कुछ समय बाद वह इस इस बंदिश को खत्म कर देगा, लेकिन पुत्र बाद क्रोधित हुआ और पिता से सब प्रकार के संबंधों को त्याग दिया और एक नई जाति का जन्मदाता बना, उसके वंशज  मिहङ्गः पुकारे गए। (ये सब एक ही है, स्थान विशेष के कारण थोड़ा उच्चारण भेद होने से भेद लगता है, अन्यथा शब्द और इन नामों से जानी वाली जाति एक ही है, मिहङ्गः=मिंग=मेंग=मेग)

यह सवाल किया गया कि वेद में शुतुद्रु नदी का जिक्र कहाँ है?
      तुरंत संदर्भ के लिए यह ऋग्वेद के 10वें मंडल के 75 सूक्त का 5वां मंत्र दे रहा हूँ। 

      मेरे शोध आलेख 'मेघ: लोक वार्ताएं और वैदिक पुराकथा' में मैंने उल्लेख किया था कि ऋग्वेद में सतलज को शुतुद्री कहा गया है, इसे ही मेगाद्रु और मेगाद्री कहा गया है। शत यानी सैकड़ों, बहुत सी धाराओं वाली, अद्रु यानी जल । अर्थात जल की सैकड़ों धाराओं वाली नदी। इसे ही अन्यत्र मेगाद्रु कहा गया अर्थात मेगों की नदी। बाद में इसे सतलज कहा गया।
    स्पष्ठ यह है कि एलेग्जेंडर के समय सतलज नदी के बाशिंदे मेघ ही थे, जिन से पुरु के नेतृत्व में सिकंदर से युद्ध हुआ। मेघों के यहां सघन रूप से निवास करने और आधिपत्य होने से ही इस नदी को मेगाद्रु कहा जाता था। इस में कोई संशय नहीं होना चाहिए।
   प्राचीन भूगोल वेत्ताओं ने सतलज को ही मेगाद्रु कहा है यानी कि शुतुद्रु /मेगाद्रु का ही आधुनिक नाम सतलज है, जो मेघों की मूल जीवन दायिनी नदी है।🙏🙏


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Source मेघ समाज के महान इतिहासकार:-तारा राम गौतम जोधपुर

Monday, November 5, 2018

मेघों के अग्रणीय : सम्राट पुरु (पोरस)  Our Great Ancestors :The Legend of History
.............................................................   1  ..................................................................... 
सियालकोट के प्राचीन मेघ
                (महाराजा पुरु और मेघों के सम्बन्ध का संकेत और स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है, उसे यहाँ दोहराना आवश्यक नहीं है। यहाँ इतना संकेत करना ही काफी है कि प्राच्य-विद्या के अनुसन्धान इतिहासवेत्ताओं ने वर्तमान मेघ जाति का निकास मद्र / मेद जाति से होना लक्षित किया है और महाराजा पुरु संज्ञात “मद्र नरेश” थे। अस्तु; वे साकल (सागल) की मेघ जाति के अग्र-पुरुष माने जाते है। महाराजा पुरु मद्र-देश के राजा थे, साकल नगर जिसकी राजधानी थी, जिसे आजकल सियालकोट से समीकृत किया जाता है। तक्षशिला उसका पड़ोसी देश था, जो मद्र की अधीनता में ही था। साकल के मद्र और तक्षशिला के टका एक ही कौम के लोग थे। प्रसिद्द इतिहास-अध्येता कर्नल अलेग्जेंडर कन्निंघम महोदय और अन्य ने वर्तमान मेग जाति को इन्हीं का वंशधर माना है। अगर आज की व्यवस्था में कहें तो वे मेघ जाति के अग्रणीय थे। महाराजा पुरु न केवल मेघ जाति के वन्दनीय है, बल्कि सम्पूर्ण भारत के लिए आदरणीय और आदर्श है। महाप्रतापी महाराजा पुरु के तेज, बल, पराक्रम और आदर्श का आज तक कोई सानी नहीं हुआ है। उनके चरित्र में जो सबसे अधिक प्रभावित करने वाला गुण था, वह था उनका अपना स्वाभिमान। उन में स्वाभिमान का गुण इतना कूट-कूट कर भरा था कि सिकंदर से बुरी तरह से हार जाने के बाद भी उनका हर रोम-रोम उस से अनुरंजित था। सिकंदर और पुरु के बीच के वे लम्हे आज भी मानवीय विजयों के इतिहास में अप्रतिम और अविघटित है। संसार में जितने भी राजा-महाराजा या श्रेष्ठ पुरुष हुए है, उन में निश्चित रूप से साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कोई न कोई विलक्षण गुण होता ही है, परन्तु जिन में स्वाभिमान या आत्म-गौरव हो, वह सर्वोपरि है। वह दूसरों के स्वाभिमान का भी इतना ही ख्याल रखते थे, जितना कि वे अपने स्वाभिमान का ख्याल रखते थे। सम्राट पुरु के जीवन-चरित्र से स्पष्ट होता है कि उन में यह गुण एक पारमिता थी)।
                पुरु का जीवन काल- महाराजा पुरु के जन्म और जीवन काल की घटनाओं का संदेह रहित विवरण कहीं पर भी सिलसिलेवार उपलब्ध नहीं होता है, परन्तु यूनान(ग्रीस) के एक अति-उत्साही और पराक्रमी विश्व-विजेता बादशाह सिकंदर(एलेग्जेंडर) से उनके युद्ध होने की घटना निश्चित है। उसी ऐतिहासिक घटना का संधान कर हम महाराजा पुरु के जन्म और जीवन काल का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकते है। इसके अलावा पुरु के जन्म और जीवन को जानने के स्रोत नगण्य-प्रायः है। सिकंदर का जन्म यूनान की रियासत मकदुनिया में हुआ था और उस के पिता का नाम फिलिप था। इतिहासकारों ने सिकंदर के जन्म-काल को ईस्वी सन से 356 वर्ष पूर्व निश्चित किया है। वह विश्व-विजेता बनने का स्वप्न लेकर विजय पताका फहराता हुआ सिन्धु के मुहाने पर पहुंचा था, जहाँ युद्ध में उसकी मुलाकात हमारे मद्र-नरेश महान सम्राट पुरु से हुई थी।
                महाराजा पुरु और सिकंदर महान के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। सिकंदर ने ईस्वी पूर्व 326 के जनवरी के महीने में भारत में आक्रमण किया था। युद्ध के समय सिकंदर की आयु 29-30 साल की थी। ऐसा वर्णन है कि महाराजा पुरु ने सिकंदर से युद्ध करने हेतु पहले अपने सेनापति पुत्र को भेजा था, जो युद्ध में मारा गया। महाराजा पुरु का यह पुत्र उस समय 20-22 वर्ष का अवश्य रहा होगा। इन सब तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि महाराजा पुरु का जन्म सिकंदर से पूर्व हुआ था और युद्ध के समय उसकी आयु 45 वर्ष से अधिक रही होगी और सिकंदर से 15-20 वर्ष अधिक ही रही होगी। इस प्रकार की गणना से उनका जन्म ईसा पूर्व 370-380 निश्चित होना अनुमान कर सकते है।
                 महाराजा पुरु के पिता का नाम राजा चन्द्रसेन था, जो मद्र देश का सम्राट था। सम्राट चन्द्रसेन का राज्य झेलम और चेनाव नदियों के मध्यवर्ती प्रान्त में अवस्थित था और पंजाब के कई बड़े-बड़े राजा इनके आधीन थे। सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक एक बड़ा पड़ौसी राज्य था, जिस का राजा आम्भी था। यह आम्भी राजा भी सम्राट चन्द्रसेन के आधीन ही था। मद्र-देश के उतर-पूर्व के छोटे-मोटे राजाओं के साथ ही दक्षिण कश्मीर का राजा अभिसार भी महाराजा चन्द्रसेन का सामंत था। इस से स्पष्ट है कि महाराजा चन्द्रसेन बहुत ही शक्तिशाली सम्राट था। उसने अपने शौर्य और पराक्रम से पंजाब के बहुत से राजाओं को अपने आधीन कर लिया था। महाराजा चन्द्र सेन बड़ा उदार, न्याय-प्रिय और साधु स्वाभाव का एक सर्व-गुण संपन्न सम्राट था। उनके इकलौते पुत्र पुरु में भी ये सभी गुण थे। पुरु यानि पोरस का लालन-पालन बड़े राजसी ठाठ-बाट से हुआ था। राजसी-वैभव और लाड़-प्यार के साथ ही पोरस की शिक्षा का उचित प्रबंध उस समय के प्रसिद्ध शिक्षा-संस्थान यानि कि उस समय के प्रसिद्द विश्व-विद्यालय ‘तक्षशिला’ में किया गया था। जैसा कि बताया जा चुका है तक्षशिला उस समय एक रियासत थी, जो सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक मानी गयी है। इसी रियासत में तक्षशिला का विश्व-विद्यालय अवस्थित था। उस समय तक्षशिला शिक्षा का एक बहुत बड़ा विद्यापीठ या केंद्र था, यह बात पुरातात्विक साक्ष्यों से प्रमाणित होती है। भारत के इतिहास के उज्जवल युग को प्रारंभ करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी यहीं विद्यार्जन किया था।
                 पोरस बचपन से ही होनहार और तिक्ष्ण-बुद्धि का था। उसने तक्षशिला में नियमानुसार सारे शास्त्रों का अध्ययन बड़ी तत्परता से किया। उसकी बुद्धि इतनी विलक्षण थी कि उसे एक बार जिस बात को बता दिया जाता वह उसके स्मृति-पटल पर सदैव के लिए अंकित हो जाती थी। कुशाग्र बुद्धि पुरु शीघ्र ही सभी विद्याओं में पारंगत हो गए। विद्याध्ययन के बाद, जैसा आजकल उपाधि-वितरण का कार्यक्रम होता है, वैसा ही तक्षशिला में भी पुरु की विद्यार्जन-अवधि समाप्त होने पर एक बहुत बड़ा आयोजन रखा गया। उस आयोजन में आस-पास के सभी राजा-महाराजा, गुरु-आचार्य आदि सब सरीक हुए। सम्राट चंद्रसेन, स्थानीय राजा आम्भी, अभिसार नरेश, आचार्य-गण और प्रमुख नागरिक उस में उपस्थित थे। इस आयोजन के बाद तक्षशिला के प्रमुख आचार्य ने पुरु को आशीर्वाद के साथ घर जाने की आज्ञा दी।
                 सम्राट चंद्रसेन इस अवसर पर तक्षशिला के राजा आम्भी के अतिथि थे। आम्भी नरेश उनकी पूरी आव-भगत में था। वह उनका और राजकुमार पुरु का हर-प्रकार से ध्यान रख रहा था। कई वर्ष पूर्व सम्राट चन्द्रसेन ने अपने दिग्विजय-प्रयाण में आम्भी नरेश को जीत लिया था। तब से तक्षशिला सम्राट चंद्रसेन के आधीन ही था। आम्भी नरेश अपनी बुरी तरह से हुई हार को भूला नहीं था। उसने हृदय से अधीनता स्वीकार नहीं की थी। अतः वह हमेशा सम्राट चंद्रसेन की अधीनता से छुटकारा पाने की उधेड़-बुन में लगा रहता था। वह अवसर की ताक में था कि कोई बहाना मिले; जिस से वह अधीनता से छुटकारा पा सके, परन्तु उसे कभी कोई ऐसा अवसर मिला ही नहीं। आम्भी नरेश आस-पास के राजाओं से भी समर्थन चाहता था। वह किसी ऐसे राजा को अपने साथ मिलाना चाहता था, जो उसी की तरह मन से सम्राट चंद्रसेन के विरुद्ध हो, परन्तु सम्राट चंद्रसेन के पराक्रम का ध्यान आते ही कोई भी राजा आम्भी के साथ आने का साहस नहीं करता था।
                 आम्भी नरेश ने भ्रमण के दौरान अभिसार नरेश से गुप्त बात-चीत की कि सम्राट चंद्रसेन अब वृद्ध हो गए है। अब उसे उनके बहुत लम्बे समय तक जीने की आशा नहीं है..... उनके जीवनकाल में वह उनका सामंत बना रहा, परन्तु अब वह उसके उतराधिकारी पुरु का सामंत बने हुए नहीं रहना चाहता है.... और यह उचित समय है कि विद्रोह करके आजाद हो जाये।... उसने अभिसार नरेश को अपने साथ मिलाने की बहुत कोशिश की और सम्राट चंद्रसेन के विरुद्ध हर प्रकार का जहर उगला, परन्तु अभिसार नरेश उसकी योजना से सहमत नहीं हुआ। आम्भी नरेश ने फिर कहा कि जो भी हो सम्राट चंद्रसेन की मृत्यु के बाद तो वह पुरु को सम्राट नहीं मानेगा और चंद्रसेन के मरने पर वह पुरु से युद्ध करेगा और मद्र देश का वह सम्राट बनेगा। अभिसार नरेश ने इस योजना में भी अपनी असमर्थता जाहिर की। अम्भी नरेश वीर था और राजनीती के सभी दांव-पेच जानता था। उसने कूटनीति अपनाते हुए अभिसार नरेश से अपनी पुत्री उर्वशी का विवाह कर देने का वचन दिया तो अभिसार नरेश भी चंद्रसेन के विरुद्ध युद्ध करने हेतु कटिबद्ध हो गया। इस प्रकार से उसे एक सहायक राजा का साथ मिल चुका था। अब वह किसी उचित अवसर की तलाश में था।
                 उधर युवराज पुरु सम-व्यस्क दोस्तों के साथ तक्षशिला के घने जंगल में राज-कर्मचारियों के साथ शिकार खेलने के लिए निकल पड़े। बहुत वर्षों से उन्होंने धनुर्विद्या का उपयोग नहीं किया था। विद्यार्जन के समय कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया था कि वह इस में निरंतरता रख सके। आज वह उन्मुक्त हो अपनी उसी विद्या को परखना भी चाह रहा था।.... जंगल में इधर से उधर भटकते हुए अचानक उसे एक शेर की दहाड़ सुनाई दी। यह एक खूंखार शेर था। राजा आम्भी ने इस शेर को मारने के लिए कई जतन किये थे, परन्तु उसे कभी सफलता नहीं मिली थी। यह शेर कभी भी पकड़ में नहीं आया था। राजकुमार पुरु सचेत हो गया। जंगल में हरिन दौड़े जा रहे थे, शेर उनके पीछे था। अचानक वह दुर्दांत शेर राजकुमार पुरु के सामने आ झपटा। क्रुद्ध हुए उस आक्रमणकारी शेर पर राजकुमार पुरु ने तीर चलाया। निशाना ठीक से नहीं लगा, शेर और क्रुद्ध हो गया और राजकुमार पर टूट पड़ा। राजकुमार ने म्यान से अपनी तलवार को निकाला और बड़ी कुशलता से शेर पर वार किया। शेर घायल होकर वहीँ गिर गया। सभी साथियों ने पुरु को घेर लिया। उसकी बहादुरी की प्रशंसा होने लगी। राजकुमार भी अपनी विजय पर पुलकित था। घने जंगल में राजकुमार पुरु की अकेले की यह पहली विजय थी। सभी मित्र-गण विजय-भाव के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर की ओर लौट पड़े।
                 जब वे रास्ते में लौट रहे थे तो उन्हें एक स्त्री के क्रंदन के स्वर सुनाई दिए। जिधर से आवाज आ रही थी, घोड़े को उधर मोड़ दिया। एक रथ पर एक दुराचारी रियासत की किसी स्त्री को जबरदस्ती ले जा रहा था। राजकुमार पुरु ने उसे पहचान लिया। वह राजा आम्भी का भाई कर्ण था। कर्ण बड़ा दुराचारी और निर्दयी था। रियासत में जिस किसी की सुन्दर बहू-बेटियों को देखता उसको वह अपने भोग की वस्तु बना कर छोड़ देता। कई बालायें उसके बलात्कार की शिकार हो चुकी थी। राजा आम्भी भी उससे परेशां था परन्तु कर्ण की दुर्दांतता के आगे वह भी निस्सहाय था। राजकुमार पुरु ने अपने घोड़े को रथ के आगे ले जाकर कर्ण को रोका और कर्ण को कहा- ‘कर्ण! तुम राजकुमार हो, तुम्हे ऐसा कर्म करते हुए शर्म नहीं आती?’
                 कर्ण भला किसकी सुन ने वाला था। उस ने आज तक किसी की नहीं सुनी थी। वह आपे से बाहर हो गया और राजकुमार पुरु पर बिफर पड़ा। वह वाकयुद्ध करने लगा। पुरु उसे शांति से समझा रहा था, लेकिन कर्ण को वह सब अंगारों की तरह लग रहा था। किसी ने पहली बार उस के काम में इस तरह से दखल देने की कोशिश की थी। वह और कुछ नहीं सुनना चाहता था। उसने झट से तलवार निकाली और पुरु पर वार कर दिया। पुरु यह नहीं समझा था कि यह घटना इतनी सीमा तक पहुँच जाएगी, उसने संभल कर वार को टाला। कर्ण ताबड़-तोड़ वार करने लगा। दोनों में तलवारें चलने लगी। आमोद-प्रमोद और व्यसन में डूबा मदहोश कर्ण निष्णात पुरु के आगे कब तक टिकता। राजकुमार पुरु की तलवार से एक घाव उसकी छाती पर हो गया, वह घाव ऐसा गहरा था कि कर्ण की छाती से रुधिर के फव्वारे फूट पड़े। तड़फते हुए कर्ण के पंख-पंखेरू वहीँ उड़ गए। पुरु यह सब कुछ नहीं चाहता था, परन्तु हालात की नजाकत ने उसे इस परिस्थिति में झोंक दिया था। वह इस अप्रिय घटना से बड़ा दुखी हुआ। वह नहीं चाहता था कि आम्भी नरेश का कुछ बिगाड़ हो, परन्तु जो होना था वह हो चुका था।
                 सभी सहचर व अनुचर स्तब्ध और विक्षुब्ध थे। भयभीत हुई वह स्त्री वहीँ दुबकी हुई थी। पुरु ने उस स्त्री की ओर मुखातिब होकर उसे अपने विश्वस्त अनुचर के साथ घर छोड़ने का आग्रह किया।.... उस स्त्री ने विपत्ति से बचाए जाने पर शुक्रिया अदा किया और स्वयं ही घर चले जाने का बोला।..... इस अप्रत्याशित घटना पर सभी पश्चाताप कर ही रहे थे कि आम्भी नरेश का सेनापति वहां आ पहुंचा।.... सेनापति बोला- ‘राज-दंड के नियमानुसार नर-हत्या के अपराध में आपको मैं बंदी बनाता हूँ।’ पुरु ने सहर्ष इस बात को स्वीकार करते हुए बोला- ‘न्याय के सम्मुख  राजा और रंक सभी एक सामान है’....  ‘वह सहर्ष अपने को सौंपता है।’...... राजकुमार पुरु के दोस्तों को यह सब-कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, परन्तु वे इस में कुछ नहीं कर पाए। सेनापति ने पुरु को बंदी बना दिया और अपने साथ ले गया। पुरु के साथी भी पीछे-पीछे चल पड़े।
                 जिस स्त्री के कारण राजकुमार विपत्ति में पड़ा था, वह स्त्री भी घर न जा सकी और बंदी पुरु के पीछे-पीछे चल पड़ी। उस स्त्री का नाम चंद्रभागा था .......।

                 तक्षशिला के राज-भवन में आम्भी और अभिसार के साथ सम्राट चंद्रसेन बात-चीत कर रहे थे।.......सम्राट को समाचार मिला कि राजकुमार पुरु ने शिकार में एक भयंकर शेर को मारा है। सम्राट चंद्रसेन अपने पुत्र की वीरता से महत्तिभूत गौरवान्वित हो रहे थे। एक पिता के लिए पुत्र की वीरता और कामयाबी से बढ़कर कोई सुख नहीं होता है। सम्राट चंद्रसेन आनंद-सागर में गोते खा रहे थे तो उधर आम्भी के सीने पर सांप लौट रहे थे। वह इर्ष्या और द्वेष में जला जा रहा था। बातों-बातों में काफी समय निकल चुका था।.... अब सम्राट चंद्रसेन को चिंता होने लगी कि राजकुमार को आखेट में गए हुए काफी समय हो चुका था, उसे अब तक आ जाना चाहिए था।.... वे अपनी चिंता को नहीं रोक सके और चिंतातुर स्वर में आम्भी से बोले- ‘पुरु को शिकार के लिए गए हुए काफी समय हो गया है, उसे अभी तक वापस आ जाना चाहिए... वह अभी तक लौटा नहीं है।’
                 इतने में ही सेनापति ने बंदी राजकुमार पुरु के साथ प्रवेश करते हुए बोला- ‘राजकुमार पुरु कर्ण का हत्यारा है।......’  सम्राट चंद्रसेन अवाक् हो रह गए...... घटनाक्रम एकदम बदल गया।....... सम्राट चंद्रसेन और राजा आम्भी के बीच तकरार हुई।....... हालाँकि आम्भी कर्ण के अत्याचारों से तंग आ चुका था और उसका भी अंत चाहता था, परन्तु अब जब राजकुमार पुरु के हाथों उसका वध हो गया तो वह सब भूलकर अपने भ्रातृत्व की ममता को लेकर सम्राट चंद्रसेन और राजकुमार पुरु पर हावी हो गया। उसे सम्राट चंद्रसेन को कैद करने का एक मौका मिल गया। वह तो कभी से ही ऐसे मौके की तलाश में ही था, अब वह इस स्वर्णिम मौके को किसी भी प्रकार की अनुनय-विनती से या नीति-अनीति से कैसे भी गंवाना नहीं चाहता था। सम्राट चंद्रसेन को भी नजर-बंद कर लिया गया। राजा आम्भी ने उसी समय न्याय का फरमान जारी किया कि कर्ण के वध के बदले कल सवेरे पुरु को फांसी दे दी जाय।
                 सम्राट चंद्रसेन अवाक् थे। वे चारों ओर से घिरे थे। उन्होंने आम्भी को समझाया, धमकाया, डराया पर आम्भी सब कुछ परिस्थितियों को अपने अनुकूल समझ कर उन्हें जलील करता रहा। सम्राट ने अभिसार को इस अवसर पर हस्तक्षेप करने का कहा, परन्तु राजा अभिसार हृदय से राजा आम्भी के साथ मिला हुआ था, इसलिए उसने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। आम्भी ने सम्राट चंद्रसेन को नजर-बंद और पुरु को कारागार में बंद करवा दिया। पिता और पुत्र दोनों कैदी हो गए। जीवन और मरण के बीच एक रात थी और वह भी त्वरित गति से बीतती जा रही थी। राजा आम्भी और अभिसार दोनों को अब किसी बात का डर नहीं था.....।
........
......
                 उधर राजा आम्भी की पुत्री राजकुमारी उर्वशी यह सब जानकर बड़ी उद्विग्न थी। वह राजकुमार पुरु को हृदय से चाहती थी। उसकी पीड़ा का आज कोई पैमाना नहीं था। बीता हुआ कल उसकी आँखों के सामने घूम रहा था। यह कल ही की तो बात थी, जब वह अपने पिता महाराजा आम्भी के साथ तक्षशिला विश्व-विद्यालय के दीक्षांत समारोह में गयी थी और राजकुमार पुरु को पहली बार जी-भर के देखा था। वह उसके शरीर-सौष्ठव, रूप-सौन्दर्य, प्रत्युत्पन्न-मति, कान्ति और ओज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी थी और जिस क्षण उसने राजकुमार को देखा उसी दिन क्षण मन ही मन वह अपने आपको उसे समर्पित कर चुकी थी। वह उस से विवाह करने का ठान चुकी थी। परन्तु दुर्योग से उसके इस सुंदर सपने को ग्रास लग चुका था। कर्ण की हत्या से पुरु को फांसी का दंड होने के कारण उर्वशी की आशाओं पर पानी फिर गया था।
                 वह विचारों में खो गयी। प्रेम प्राणी को पागल बना देता है, वह किस किनारे डूब जाये और किस किनारे बह जाये, कोई कुछ नहीं जता सकता है। विचार सागर में डूबी हुई उर्वशी अपने आप को भूल चुकी थी। उसका मन और मष्तिष्क शांत नहीं था। एक से बढ़कर एक आवेश उसे लपेटे जा रहे थे। वह किसी भी हद तक जाकर पुरु को फांसी से बचाना चाहती थी और सदा-सदा के लिए उसकी होना चाहती थी। भयानक सपनों के जंजाल में खोयी हुई वह अपने पर्यंक पर निढाल हो गयी। इतने में उसे महाराजा आम्भी के मधुर शब्दों ने सचेत कर दिया। आम्भी बोले-  ‘पुत्री, उर्वशी! अभिसार नरेश के साथ मैंने तुम्हारा विवाह करना निश्चित कर लिया है......।’ उर्वशी को ऐसे लगा जैसे कोई उसके कलेजे पर करोत चला रहा हो। वह कुछ नहीं बोली। राजा बोलता जा रहा था। वह बोला- ‘.......मुझे हर-प्रकार से वह तुम्हारे योग्य प्रतीत होते है।’..... वह क्या बोलती। उसका पुरु से एक तरफ़ा प्यार था और वह भी कैद हो चुका था। उसके जीवन के बचे रहने की कोई मद्धिम सी भी आशा की किरण शेष नहीं थी। वह यह सब अपने पिता को बता भी नहीं सकती थी। उसने अपने को सँभालते हुए बोला- ‘..... पिताजी, आप मेरे विवाह की चिंता नहीं करें, मैं विवाह नहीं करना चाहती हूँ।’ पिता ने उसको बातों ही बातों में समझाने की कोशिश की, परन्तु वह हाँ नहीं कह सकी। काफी देर तक पिता-पुत्री के बीच बातें होती रही। आखिर आम्भी क्रोधित होते हुए उर्वशी के कमरे से बाहर चले गए।
                 राजा आम्भी के जाने के बाद उर्वशी और ज्यादा उद्विग्न हो गयी। वह किसी भी कीमत पर राजकुमार पुरु को आज़ाद कराना चाहती थी। विचारों के जंजाल में न तो उसे कोई राह सूझ रही थी और न ही नींद आ रही थी। महाराजा आम्भी अपने शयन-कक्ष में जाकर सो चुके थे। उर्वशी अपने कक्ष से बाहर आई और जहाँ सम्राट चंद्रसेन नजरबंद थे, वहां उनके पास गयी। सम्राट चंद्रसेन पुत्र की सजा सुनकर असह्य वेदना में अर्धमूर्च्छित अवस्थापन्न प्रलाप कर रहे थे। उर्वशी ने उन्हें सचेत करने की असफल कोशिश की.....। सम्राट होश में नहीं आ सके अँधेरी निष्ठुर रात में उनके प्राण-पंखेरू उड़ गए। उसकी आँखों के सामने सम्राट चंद्रसेन के जीवन की बुझती लौह ने उसे डर के साथ-साथ साहस की बहुत बड़ी पतवार सौंप दी। उसे अब अपनी मृत्यु से भी भय नहीं रहा और उसने ठान ली कि वह किसी भी तरह से कारागाह की चाबियाँ प्राप्त कर राजकुमार को आज़ाद करा लेगी।
                 सम्राट चंद्रसेन के पार्थिव शरीर को वहीँ छोड़कर वह वापस महल में आई। चारों तरफ इधर-उधर देखकर वह चतुराई से पिता के कक्ष में प्रविष्ट हुई। राजा आम्भी निसंग हो सो रहे थे। कारागाह की चाबियां उनकी जेब में रखी थी और राजकीय मोहर भी उसे वहीँ मिल गयी। एक कागज पर मोहर लगाकर उसने कारागाह के अध्यक्ष को लिखा, कि पुरु को इसी समय मुक्त कर दिया जाय तथा एक सैनिक को उनकी राजधानी तक छोड़ने का प्रबंध कर दिया जाय। उर्वशी ने स्वयं सैनिक का वेश धारण किया और महल का दरवाजा बंद करके कारागार पहुँच गयी। करागाराध्यक्ष को मुक्त करने वाला पत्र दिया। कारगाराध्यक्ष को संदेह करने का कोई कारण नहीं दिखा।
                  राजकुमार पुरु के जीवन की यह काली रात उर्वशी के लेख से ही धवल चांदनी में बदलने वाली थी, परन्तु उसे इस बात का तनिक भी आभाष नहीं था। वह तो कल सुबह आने वाले मौत के क्षण के बारे में शोकाकुल था। भयानक कल्पना के भंवर जाल ने उसे जकड़ रखा था। नींद का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। इतने में कारागाराध्यक्ष पहुंचा और उसने उसे राजा द्वारा मुक्त करने का फरमान सुनाते हुए मुक्त कर दिया। राजकुमार पुरु के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था। उसे सैनिक वेश में साथ चल रही उर्वशी के साथ ही मद्र देश की राजधानी जाना था। अस्तबल से दो घोड़े लिए गए और दोनों उस पर बैठकर बाहर निकल गए। थोड़ी दूर जाने के बाद उर्वशी ने पुरु को अपने सैनिक होने का राज बताते हुए बोला कि आप मेरे पहने हुए सैनिक के कपडे पहन ले और यह मेरा घोडा ‘रत्न’ ले ले। इस पर बैठकर जितना जल्दी हो सके अभी राज्य से बाहर अपने राज्य की सीमा में चले जाये। पुरु ने वैसा ही किया। उर्वशी को अपने किये पर संतोष हो रहा था। वह चुपचाप वापस आकार अपने महल के शयनागार में सो गयी।
                 सुबह का सूर्योदय होते ही राजा आम्भी अपना मनोरथ पूरा करने के लिए मंत्री से मंत्रणा कर रहा था। उसने कई देशों के राजाओं को पत्र लिखाये कि वह मद्र देश का राजा है।.... वह इसी मनोरथ पूर्ति में लगा हुआ था कि सेनापति ने आकर राजा को बताया कि पुरु को तो रात में ही कारागार से मुक्त कर दिया गया। राजा भौचक्का रह गया..... जब कारागार के प्रमुख ने राजाज्ञा का पत्र दिखाया तो राजा अवाक् रह गया। वह उस पत्र की हस्तलिपि को देखते ही पहचान गया। वह हस्तलिपि उर्वशी की ही थी। शिकार हाथ से निकल चुका था। अब राजा आम्भी के गुस्से का कोई आर था न पार, वह तत्क्षण आग अबुला होते हुए हाथ में खड़ग ले उर्वशी को मारने के लिए उर्वशी के महल में गया। उर्वशी अपने कमरे में ही थी। क्रोध के आवेश में राजा उर्वशी की छाती पर कटार मारने को उद्ध्यत हुआ, परन्तु उर्मिला मुंह नीचे किये पत्थर की मूर्ति की तरह मौन खडी थी, मानो वह इसी का इंतजार कर रही थी।
                 अचानक आम्भी ने कटार को फेंक दिया।......उर्वशी अचंभित हुई। वह लज्जा में सिर झुकाए क्षमा याचना करने लगी। पिता ने उसे भला-बुरा कहना शुरू किया परन्तु सब व्यर्थ उर्वशी निःशब्द बुत बनी रही। अब क्या हो सकता था। तक्षशिला और साकल का युद्ध अब अवश्यम्भावी था। आम्भी वापस अपने महल में गया... उर्मिला अपने महल में भविष्य को निहार रही थी। उधर राजकुमार पुरु अपने देश पहुँच चुका था।
                 पुरु ने बिना समय गंवाए उसी समय सेना को एकत्रित किया और पिता को आज़ाद कराने के लिए लश्कर के साथ तक्षशिला की ओर कूच किया। जब वह आधे रास्ते पहुँचा तो उसे समाचार मिला कि उसके पिता सम्राट चंद्रसेन के प्राण-पंखेरू उड़ चुके है और आम्भी राजा युद्ध करना चाहता है। सम्राट चंद्रसेन और राजकुमार पुरु दुर्योग से ही आम्भी के चंगुल में फंसे थे अन्यथा आम्भी की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह उनके सामने जबान भी खोले। यह एक अप्रत्याशित युद्ध की वेला थी।
                दोनों देशों की सेनायें आमने सामने थी। उन में भयंकर युद्ध हुआ। आम्भी की सेना पराजित हुई। आम्भी को बंदी बना दिया गया। आम्भी का जीवन अब पुरु की दया पर निर्भर था। इस समय अगर पुरु चाहता तो आम्भी को मार डालता, परन्तु पुरु उदार हृदय था। उसने आम्भी को छोड़ दिया और उसका राज्य भी उसे वापस कर दिया। आम्भी-नरेश का हृदय ग्लानी से भर आया। युद्ध समाप्त हुआ।.... पुरु अपने पिता की मृत-देह ले विजय के साथ साकल आ गया। वह मद्र-देश का राज-काज सँभालने लगा।
                चंद्रभागा के कारण ही पुरु विपत्ति में पड़ा था, इसलिए जब पुरु बंदी था तो चंद्रभागा कारागार के सामने ही बैठ गयी थी। बाद की घटनाओं ने उर्वशी और चंद्रभागा को मिला दिया। उर्वशी ने चंद्रभागा का विद्यापीठ में प्रबंध करवा दिया। उर्वशी मन से पुरु को चाहती थी। एक दिन उर्वशी ने पुरु से विवाह करने का प्रस्ताव अपने पिता से छेड़ दिया। आम्भी यद्यपि पुरु के आधीन था, परन्तु वह उसे शत्रु ही समझता था। वह किसी भी कारण से ऐसा नहीं होने देना चाहता था और उर्वशी अभिसार के प्रस्ताव को तो पहले ही मना कर चुकी थी। राजा आम्भी और सम्राट पुरु की दुश्मनी जग-जाहिर हो चुकी थी। तक्षशिला के गण-मान्यों और विद्यापीठ के आचार्यों ने भी पुरु और आम्भी के आपसी विरोध को ख़त्म करने के लिए उर्वशी का विवाह पुरु से करने की सलाह आम्भी को दी; परन्तु आम्भी इसे विचार करने योग्य तक नहीं मानता था। उर्वशी अपने पिता के विरुद्ध भी नहीं जाना चाहती थी। उसने आजन्म कुंवारा रहने का निश्चय कर लिया।
                 पुरु अब मद्र-देश का समारत था। वह भी अपने पिता की तरह दिद्विजय की इच्छा कर कुछ सेना को लेकर विजय यात्रा पर निकल पड़ा। पहले उसने उतर कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। उस तरफ के सारे देशों को विजय कर वह सिंध की ओर लौटा। जिन दिनों सम्राट पुरु सिंधप्रदेश का दौरा कर रहा था, उन्हीं दिनों फ़ारस का राजा सिकंदर विश्व-विजय की पताका के साथ भारत की सीमा पर आक्रमण करने आ पहुंचा था।

                 सिकंदर संसार के महान विजेताओं में भी महान माना जाता है। वह बड़ा उत्साही वीर था। उसने बाल्यकाल से ही जीवन का लक्ष्य बना लिया था कि वह समस्त संसार को जीत कर विश्व-विजयी बनेगा। वह बीस वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा और थोड़े ही समय में मिस्र से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक एशिया का सारा प्रदेश जीत लिया। ईस्वी सन से 326 वर्ष पूर्व उसने भारतवर्ष पर आक्रमण किया।
...............निरंतर ... इसके दूसरे खंड में पुरु और सिकंदर का वर्णन है ,  उसे भी पढ़े .........


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Glossary of Tribes : A.S.ROSE