MEGH hISTORY ARTICLE:- Source Raj Bose Megh from Rajasthan

Wednesday, December 19, 2018

राजा का वरण : मेघ और गड़रिये, गाड़ी' लोगो की दुश्मनी का अंत-

राजा का वरण : मेघ और गडरिये ‘गाड़ी’ लोगों की दुश्मनी का अंत-
                जम्मू प्रदेश में, जहाँ वर्तमान में भो (bhow) का किला अवस्थित है, यहाँ किसी ज़माने में घना निर्जन जंगल हुआ करता था। पुराने समय में गिनती के कुछ मेघ और टक्कर (टका) परिवार यहाँ आ बसे थे ( ये यहाँ कब आकर रहने लगे, इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं मिलती है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि ये ही यहाँ के प्राचीन मूल आदि-निवासी है)। उन्होंने इस प्रदेश को आबाद किया, परन्तु उनकी आबादी कोई ज्यादा नहीं थी। यहाँ का पूरा पर्वतीय इलाका बीहड़ वन-प्रदेश था। मेघों ने सबसे पहले वहां बसकर उन पर्वतीय वन-प्रदेश में उपजाऊ भूमि पर खेती-बाड़ी करना शुरू किया और अपना जीवन-यापन करने लगे। दूर-दूर तक कोई मानव-बस्ती नहीं थी। उन प्रदेशों में अपने पशुओं के चारे-पानी की खोज में अपने परिवार के साथ इधर-उधर घुमने वाले और घुमक्कड़ी -जीवन बिताने वाले गडरिये मेघों के खेतों में आ जाते थे और समय-समय पर उनका बहुत नुकसान करते थे। ये गडरिये इन मेघों की बस्ती से पूर्वी उत्तरी भागों में दूर डेरा डाल कर रहते थे, जो चंबा और किश्तवाड़ के उत्तर में पड़ता था। ये बर्बर और जालिम अवस्थापन्न पशुपालक अपनी भेड़-बकरियों और परिवारों के साथ आकर मेघों की खेती को बर्बाद कर देते थे। मेघों और गडरिया ‘गाड़ी’ लोगों के बीच खेती-बाड़ी के समय पर प्रतिवर्ष संघर्ष होता रहता था और कई बार खून-खराबा हो जाया करता था। खेती-बाड़ी के नुकसान के साथ ही ये रात को चोरी-धाडी और डाका भी डाल जाते थे। मेघ लोग उनका माकूल मुकाबला करने में असमर्थ थे। कई अवसरों पर नित-प्रति दिन उन में लडाई-झगड़ा होता रहता था। वह वन-प्रदेश उस समय किसी राजा के अधीन नहीं था, इसलिए जो बलशाली होता वो अपनी मन-मर्जी करता और गाड़ी यहाँ आकार बर्बरतापूर्वक मनमानी कर और लूट-पाट कर भाग जाते। मेघ उनका पीछा करते, उनका मुकाबला करते; परन्तु बर्बरता का कभी अंत नहीं होता।
                मेघ बदला लेने के लिए उनकी औरतों और बच्चों को पंजाब में ले जाकर बेच देते। दोनों कबीलों में इसी प्रकार का लम्बा संघर्ष और दुश्मनी ठनी हुई थी। ऐसे में कहीं बसने के उद्देश्य से घूमते हुए दो परिवार वहां आये, जिन में कुल मिलाकर 20 लोग थे। मेघों ने उनको मदद की और वहां उनको बसने दिया। उन्होंने अपने को राजपूत घोषित किया और जम्मू के कटोच राज-परिवार से सम्बंधित बताया (इस क्षेत्र में किसी राजपुत के बसने का यह पहला उदहारण है)। उन दोनों भाईयों ने मेघों और गडरिया गाड़ीयों के बीच जो दुश्मनी थी, उसको मिटाने और भूल जाने का इकरार करा दिया। पहले-पहल तो गाड़ी उद्दंड ही बने रहे, परन्तु इन परिवारों का ज्यों-ज्यों प्रभाव बढ़ता गया तो वे भी उनकी सुरक्षा के इच्छुक हो गए। इस प्रकार इन बाद में आकर बसने वाले राजपूतों ने मेघों के बीच में अपनी एक पैठ और उच्चता कायम कर दी और साथ ही गाड़ी और मेघों के बीच चली आ रही दुश्मनी भी ख़त्म हो गयी।
                ऐसा माना जाता है कि उन्हें वहां बसने के नौ वर्ष बाद हिजरी सन 602 (यानि कि ईसा की 12वीं शताब्दी के अंत में) में ये दोनों भाई किन्हीं कारणों से अलग अलग हो गए। बडे भाई किरपालदे ने वर्तमान भो किले के पास वही पर अपनी झौपडी बनायीं और स्थायी रूप से बस गया। छोटे भाई ने पहाड़ की दूसरी तरफ पश्चिम में नदी के ‘थोवी’ कहे जाने वाले किनारे पर वैसी ही झौपड़ी बनायीं और वहां जा बसा। धीरे-धीरे इन दोनों भाईयों के वंशज ही पहाड़ों के मालिक बन गए यानि की वहां के राजा बन गए। ऐसा माना जाता है कि हिजरी संवत 749 (विक्रमी संवत 1389) अर्थात ईसा की 14वीं शताब्दी में इसी परिवार का वंशज जयदेव पहला आदमी था, जिसने राजा की पदवी ग्रहण की। उसने अपने सभी सम्बन्धियों और वहां के सभी मेघों को थोवी पर इकठ्ठा कर यह पदवी ग्रहण करने के लिए वह एक बड़ी शिला पर बैठा और उसकी घोषणा की। उस समय उनकी कुल संख्या कोई 500 थी। वह इलाका उस समय तक अल्प जनसंख्या वाला ही था। इस घटना के बाद वहां निवासित मेघ और बाद में आने वाले दूसरे लोगों भी उसे राजा के रूप में मानने लगे।
( Reference:  Smyth, G. C. – ‘A History Of Reigning Family Of Lahore’,  W. Thacker & co, Calcutta, 1847,  pages; 232 to 235)
A history of the reigning family of Lahore, with some account of the Jummoo rajahs, the Seik soldiers and their sirdars; with notes on Malcolm, Prinsep, Lawrence, Steinbach, McGregor, and the Calcutta Review


बुधवार, 7 नवंबर 2018

मेघों के अग्रणीय : सम्राट पुरु (पोरस) Our Great Ancestors :The Legend of History

मेघों के अग्रणीय : सम्राट पुरु (पोरस)  Our Great Ancestors :The Legend of History

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सियालकोट के प्राचीन मेघ
                (महाराजा पुरु और मेघों के सम्बन्ध का संकेत और स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है, उसे यहाँ दोहराना आवश्यक नहीं है। यहाँ इतना संकेत करना ही काफी है कि प्राच्य-विद्या के अनुसन्धान इतिहासवेत्ताओं ने वर्तमान मेघ जाति का निकास मद्र / मेद जाति से होना लक्षित किया है और महाराजा पुरु संज्ञात “मद्र नरेश” थे। अस्तु; वे साकल (सागल) की मेघ जाति के अग्र-पुरुष माने जाते है। महाराजा पुरु मद्र-देश के राजा थे, साकल नगर जिसकी राजधानी थी, जिसे आजकल सियालकोट से समीकृत किया जाता है। तक्षशिला उसका पड़ोसी देश था, जो मद्र की अधीनता में ही था। साकल के मद्र और तक्षशिला के टका एक ही कौम के लोग थे। प्रसिद्द इतिहास-अध्येता कर्नल अलेग्जेंडर कन्निंघम महोदय और अन्य ने वर्तमान मेग जाति को इन्हीं का वंशधर माना है। अगर आज की व्यवस्था में कहें तो वे मेघ जाति के अग्रणीय थे। महाराजा पुरु न केवल मेघ जाति के वन्दनीय है, बल्कि सम्पूर्ण भारत के लिए आदरणीय और आदर्श है। महाप्रतापी महाराजा पुरु के तेज, बल, पराक्रम और आदर्श का आज तक कोई सानी नहीं हुआ है। उनके चरित्र में जो सबसे अधिक प्रभावित करने वाला गुण था, वह था उनका अपना स्वाभिमान। उन में स्वाभिमान का गुण इतना कूट-कूट कर भरा था कि सिकंदर से बुरी तरह से हार जाने के बाद भी उनका हर रोम-रोम उस से अनुरंजित था। सिकंदर और पुरु के बीच के वे लम्हे आज भी मानवीय विजयों के इतिहास में अप्रतिम और अविघटित है। संसार में जितने भी राजा-महाराजा या श्रेष्ठ पुरुष हुए है, उन में निश्चित रूप से साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कोई न कोई विलक्षण गुण होता ही है, परन्तु जिन में स्वाभिमान या आत्म-गौरव हो, वह सर्वोपरि है। वह दूसरों के स्वाभिमान का भी इतना ही ख्याल रखते थे, जितना कि वे अपने स्वाभिमान का ख्याल रखते थे। सम्राट पुरु के जीवन-चरित्र से स्पष्ट होता है कि उन में यह गुण एक पारमिता थी)।
                पुरु का जीवन काल- महाराजा पुरु के जन्म और जीवन काल की घटनाओं का संदेह रहित विवरण कहीं पर भी सिलसिलेवार उपलब्ध नहीं होता है, परन्तु यूनान(ग्रीस) के एक अति-उत्साही और पराक्रमी विश्व-विजेता बादशाह सिकंदर(एलेग्जेंडर) से उनके युद्ध होने की घटना निश्चित है। उसी ऐतिहासिक घटना का संधान कर हम महाराजा पुरु के जन्म और जीवन काल का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकते है। इसके अलावा पुरु के जन्म और जीवन को जानने के स्रोत नगण्य-प्रायः है। सिकंदर का जन्म यूनान की रियासत मकदुनिया में हुआ था और उस के पिता का नाम फिलिप था। इतिहासकारों ने सिकंदर के जन्म-काल को ईस्वी सन से 356 वर्ष पूर्व निश्चित किया है। वह विश्व-विजेता बनने का स्वप्न लेकर विजय पताका फहराता हुआ सिन्धु के मुहाने पर पहुंचा था, जहाँ युद्ध में उसकी मुलाकात हमारे मद्र-नरेश महान सम्राट पुरु से हुई थी।
                महाराजा पुरु और सिकंदर महान के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। सिकंदर ने ईस्वी पूर्व 326 के जनवरी के महीने में भारत में आक्रमण किया था। युद्ध के समय सिकंदर की आयु 29-30 साल की थी। ऐसा वर्णन है कि महाराजा पुरु ने सिकंदर से युद्ध करने हेतु पहले अपने सेनापति पुत्र को भेजा था, जो युद्ध में मारा गया। महाराजा पुरु का यह पुत्र उस समय 20-22 वर्ष का अवश्य रहा होगा। इन सब तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि महाराजा पुरु का जन्म सिकंदर से पूर्व हुआ था और युद्ध के समय उसकी आयु 45 वर्ष से अधिक रही होगी और सिकंदर से 15-20 वर्ष अधिक ही रही होगी। इस प्रकार की गणना से उनका जन्म ईसा पूर्व 370-380 निश्चित होना अनुमान कर सकते है।
                 महाराजा पुरु के पिता का नाम राजा चन्द्रसेन था, जो मद्र देश का सम्राट था। सम्राट चन्द्रसेन का राज्य झेलम और चेनाव नदियों के मध्यवर्ती प्रान्त में अवस्थित था और पंजाब के कई बड़े-बड़े राजा इनके आधीन थे। सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक एक बड़ा पड़ौसी राज्य था, जिस का राजा आम्भी था। यह आम्भी राजा भी सम्राट चन्द्रसेन के आधीन ही था। मद्र-देश के उतर-पूर्व के छोटे-मोटे राजाओं के साथ ही दक्षिण कश्मीर का राजा अभिसार भी महाराजा चन्द्रसेन का सामंत था। इस से स्पष्ट है कि महाराजा चन्द्रसेन बहुत ही शक्तिशाली सम्राट था। उसने अपने शौर्य और पराक्रम से पंजाब के बहुत से राजाओं को अपने आधीन कर लिया था। महाराजा चन्द्र सेन बड़ा उदार, न्याय-प्रिय और साधु स्वाभाव का एक सर्व-गुण संपन्न सम्राट था। उनके इकलौते पुत्र पुरु में भी ये सभी गुण थे। पुरु यानि पोरस का लालन-पालन बड़े राजसी ठाठ-बाट से हुआ था। राजसी-वैभव और लाड़-प्यार के साथ ही पोरस की शिक्षा का उचित प्रबंध उस समय के प्रसिद्ध शिक्षा-संस्थान यानि कि उस समय के प्रसिद्द विश्व-विद्यालय ‘तक्षशिला’ में किया गया था। जैसा कि बताया जा चुका है तक्षशिला उस समय एक रियासत थी, जो सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक मानी गयी है। इसी रियासत में तक्षशिला का विश्व-विद्यालय अवस्थित था। उस समय तक्षशिला शिक्षा का एक बहुत बड़ा विद्यापीठ या केंद्र था, यह बात पुरातात्विक साक्ष्यों से प्रमाणित होती है। भारत के इतिहास के उज्जवल युग को प्रारंभ करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी यहीं विद्यार्जन किया था।
                 पोरस बचपन से ही होनहार और तिक्ष्ण-बुद्धि का था। उसने तक्षशिला में नियमानुसार सारे शास्त्रों का अध्ययन बड़ी तत्परता से किया। उसकी बुद्धि इतनी विलक्षण थी कि उसे एक बार जिस बात को बता दिया जाता वह उसके स्मृति-पटल पर सदैव के लिए अंकित हो जाती थी। कुशाग्र बुद्धि पुरु शीघ्र ही सभी विद्याओं में पारंगत हो गए। विद्याध्ययन के बाद, जैसा आजकल उपाधि-वितरण का कार्यक्रम होता है, वैसा ही तक्षशिला में भी पुरु की विद्यार्जन-अवधि समाप्त होने पर एक बहुत बड़ा आयोजन रखा गया। उस आयोजन में आस-पास के सभी राजा-महाराजा, गुरु-आचार्य आदि सब सरीक हुए। सम्राट चंद्रसेन, स्थानीय राजा आम्भी, अभिसार नरेश, आचार्य-गण और प्रमुख नागरिक उस में उपस्थित थे। इस आयोजन के बाद तक्षशिला के प्रमुख आचार्य ने पुरु को आशीर्वाद के साथ घर जाने की आज्ञा दी।
                 सम्राट चंद्रसेन इस अवसर पर तक्षशिला के राजा आम्भी के अतिथि थे। आम्भी नरेश उनकी पूरी आव-भगत में था। वह उनका और राजकुमार पुरु का हर-प्रकार से ध्यान रख रहा था। कई वर्ष पूर्व सम्राट चन्द्रसेन ने अपने दिग्विजय-प्रयाण में आम्भी नरेश को जीत लिया था। तब से तक्षशिला सम्राट चंद्रसेन के आधीन ही था। आम्भी नरेश अपनी बुरी तरह से हुई हार को भूला नहीं था। उसने हृदय से अधीनता स्वीकार नहीं की थी। अतः वह हमेशा सम्राट चंद्रसेन की अधीनता से छुटकारा पाने की उधेड़-बुन में लगा रहता था। वह अवसर की ताक में था कि कोई बहाना मिले; जिस से वह अधीनता से छुटकारा पा सके, परन्तु उसे कभी कोई ऐसा अवसर मिला ही नहीं। आम्भी नरेश आस-पास के राजाओं से भी समर्थन चाहता था। वह किसी ऐसे राजा को अपने साथ मिलाना चाहता था, जो उसी की तरह मन से सम्राट चंद्रसेन के विरुद्ध हो, परन्तु सम्राट चंद्रसेन के पराक्रम का ध्यान आते ही कोई भी राजा आम्भी के साथ आने का साहस नहीं करता था।
                 आम्भी नरेश ने भ्रमण के दौरान अभिसार नरेश से गुप्त बात-चीत की कि सम्राट चंद्रसेन अब वृद्ध हो गए है। अब उसे उनके बहुत लम्बे समय तक जीने की आशा नहीं है..... उनके जीवनकाल में वह उनका सामंत बना रहा, परन्तु अब वह उसके उतराधिकारी पुरु का सामंत बने हुए नहीं रहना चाहता है.... और यह उचित समय है कि विद्रोह करके आजाद हो जाये।... उसने अभिसार नरेश को अपने साथ मिलाने की बहुत कोशिश की और सम्राट चंद्रसेन के विरुद्ध हर प्रकार का जहर उगला, परन्तु अभिसार नरेश उसकी योजना से सहमत नहीं हुआ। आम्भी नरेश ने फिर कहा कि जो भी हो सम्राट चंद्रसेन की मृत्यु के बाद तो वह पुरु को सम्राट नहीं मानेगा और चंद्रसेन के मरने पर वह पुरु से युद्ध करेगा और मद्र देश का वह सम्राट बनेगा। अभिसार नरेश ने इस योजना में भी अपनी असमर्थता जाहिर की। अम्भी नरेश वीर था और राजनीती के सभी दांव-पेच जानता था। उसने कूटनीति अपनाते हुए अभिसार नरेश से अपनी पुत्री उर्वशी का विवाह कर देने का वचन दिया तो अभिसार नरेश भी चंद्रसेन के विरुद्ध युद्ध करने हेतु कटिबद्ध हो गया। इस प्रकार से उसे एक सहायक राजा का साथ मिल चुका था। अब वह किसी उचित अवसर की तलाश में था।
                 उधर युवराज पुरु सम-व्यस्क दोस्तों के साथ तक्षशिला के घने जंगल में राज-कर्मचारियों के साथ शिकार खेलने के लिए निकल पड़े। बहुत वर्षों से उन्होंने धनुर्विद्या का उपयोग नहीं किया था। विद्यार्जन के समय कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया था कि वह इस में निरंतरता रख सके। आज वह उन्मुक्त हो अपनी उसी विद्या को परखना भी चाह रहा था।.... जंगल में इधर से उधर भटकते हुए अचानक उसे एक शेर की दहाड़ सुनाई दी। यह एक खूंखार शेर था। राजा आम्भी ने इस शेर को मारने के लिए कई जतन किये थे, परन्तु उसे कभी सफलता नहीं मिली थी। यह शेर कभी भी पकड़ में नहीं आया था। राजकुमार पुरु सचेत हो गया। जंगल में हरिन दौड़े जा रहे थे, शेर उनके पीछे था। अचानक वह दुर्दांत शेर राजकुमार पुरु के सामने आ झपटा। क्रुद्ध हुए उस आक्रमणकारी शेर पर राजकुमार पुरु ने तीर चलाया। निशाना ठीक से नहीं लगा, शेर और क्रुद्ध हो गया और राजकुमार पर टूट पड़ा। राजकुमार ने म्यान से अपनी तलवार को निकाला और बड़ी कुशलता से शेर पर वार किया। शेर घायल होकर वहीँ गिर गया। सभी साथियों ने पुरु को घेर लिया। उसकी बहादुरी की प्रशंसा होने लगी। राजकुमार भी अपनी विजय पर पुलकित था। घने जंगल में राजकुमार पुरु की अकेले की यह पहली विजय थी। सभी मित्र-गण विजय-भाव के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर की ओर लौट पड़े।
                 जब वे रास्ते में लौट रहे थे तो उन्हें एक स्त्री के क्रंदन के स्वर सुनाई दिए। जिधर से आवाज आ रही थी, घोड़े को उधर मोड़ दिया। एक रथ पर एक दुराचारी रियासत की किसी स्त्री को जबरदस्ती ले जा रहा था। राजकुमार पुरु ने उसे पहचान लिया। वह राजा आम्भी का भाई कर्ण था। कर्ण बड़ा दुराचारी और निर्दयी था। रियासत में जिस किसी की सुन्दर बहू-बेटियों को देखता उसको वह अपने भोग की वस्तु बना कर छोड़ देता। कई बालायें उसके बलात्कार की शिकार हो चुकी थी। राजा आम्भी भी उससे परेशां था परन्तु कर्ण की दुर्दांतता के आगे वह भी निस्सहाय था। राजकुमार पुरु ने अपने घोड़े को रथ के आगे ले जाकर कर्ण को रोका और कर्ण को कहा- ‘कर्ण! तुम राजकुमार हो, तुम्हे ऐसा कर्म करते हुए शर्म नहीं आती?’
                 कर्ण भला किसकी सुन ने वाला था। उस ने आज तक किसी की नहीं सुनी थी। वह आपे से बाहर हो गया और राजकुमार पुरु पर बिफर पड़ा। वह वाकयुद्ध करने लगा। पुरु उसे शांति से समझा रहा था, लेकिन कर्ण को वह सब अंगारों की तरह लग रहा था। किसी ने पहली बार उस के काम में इस तरह से दखल देने की कोशिश की थी। वह और कुछ नहीं सुनना चाहता था। उसने झट से तलवार निकाली और पुरु पर वार कर दिया। पुरु यह नहीं समझा था कि यह घटना इतनी सीमा तक पहुँच जाएगी, उसने संभल कर वार को टाला। कर्ण ताबड़-तोड़ वार करने लगा। दोनों में तलवारें चलने लगी। आमोद-प्रमोद और व्यसन में डूबा मदहोश कर्ण निष्णात पुरु के आगे कब तक टिकता। राजकुमार पुरु की तलवार से एक घाव उसकी छाती पर हो गया, वह घाव ऐसा गहरा था कि कर्ण की छाती से रुधिर के फव्वारे फूट पड़े। तड़फते हुए कर्ण के पंख-पंखेरू वहीँ उड़ गए। पुरु यह सब कुछ नहीं चाहता था, परन्तु हालात की नजाकत ने उसे इस परिस्थिति में झोंक दिया था। वह इस अप्रिय घटना से बड़ा दुखी हुआ। वह नहीं चाहता था कि आम्भी नरेश का कुछ बिगाड़ हो, परन्तु जो होना था वह हो चुका था।
                 सभी सहचर व अनुचर स्तब्ध और विक्षुब्ध थे। भयभीत हुई वह स्त्री वहीँ दुबकी हुई थी। पुरु ने उस स्त्री की ओर मुखातिब होकर उसे अपने विश्वस्त अनुचर के साथ घर छोड़ने का आग्रह किया।.... उस स्त्री ने विपत्ति से बचाए जाने पर शुक्रिया अदा किया और स्वयं ही घर चले जाने का बोला।..... इस अप्रत्याशित घटना पर सभी पश्चाताप कर ही रहे थे कि आम्भी नरेश का सेनापति वहां आ पहुंचा।.... सेनापति बोला- ‘राज-दंड के नियमानुसार नर-हत्या के अपराध में आपको मैं बंदी बनाता हूँ।’ पुरु ने सहर्ष इस बात को स्वीकार करते हुए बोला- ‘न्याय के सम्मुख  राजा और रंक सभी एक सामान है’....  ‘वह सहर्ष अपने को सौंपता है।’...... राजकुमार पुरु के दोस्तों को यह सब-कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, परन्तु वे इस में कुछ नहीं कर पाए। सेनापति ने पुरु को बंदी बना दिया और अपने साथ ले गया। पुरु के साथी भी पीछे-पीछे चल पड़े।
                 जिस स्त्री के कारण राजकुमार विपत्ति में पड़ा था, वह स्त्री भी घर न जा सकी और बंदी पुरु के पीछे-पीछे चल पड़ी। उस स्त्री का नाम चंद्रभागा था .......।

                 तक्षशिला के राज-भवन में आम्भी और अभिसार के साथ सम्राट चंद्रसेन बात-चीत कर रहे थे।.......सम्राट को समाचार मिला कि राजकुमार पुरु ने शिकार में एक भयंकर शेर को मारा है। सम्राट चंद्रसेन अपने पुत्र की वीरता से महत्तिभूत गौरवान्वित हो रहे थे। एक पिता के लिए पुत्र की वीरता और कामयाबी से बढ़कर कोई सुख नहीं होता है। सम्राट चंद्रसेन आनंद-सागर में गोते खा रहे थे तो उधर आम्भी के सीने पर सांप लौट रहे थे। वह इर्ष्या और द्वेष में जला जा रहा था। बातों-बातों में काफी समय निकल चुका था।.... अब सम्राट चंद्रसेन को चिंता होने लगी कि राजकुमार को आखेट में गए हुए काफी समय हो चुका था, उसे अब तक आ जाना चाहिए था।.... वे अपनी चिंता को नहीं रोक सके और चिंतातुर स्वर में आम्भी से बोले- ‘पुरु को शिकार के लिए गए हुए काफी समय हो गया है, उसे अभी तक वापस आ जाना चाहिए... वह अभी तक लौटा नहीं है।’
                 इतने में ही सेनापति ने बंदी राजकुमार पुरु के साथ प्रवेश करते हुए बोला- ‘राजकुमार पुरु कर्ण का हत्यारा है।......’  सम्राट चंद्रसेन अवाक् हो रह गए...... घटनाक्रम एकदम बदल गया।....... सम्राट चंद्रसेन और राजा आम्भी के बीच तकरार हुई।....... हालाँकि आम्भी कर्ण के अत्याचारों से तंग आ चुका था और उसका भी अंत चाहता था, परन्तु अब जब राजकुमार पुरु के हाथों उसका वध हो गया तो वह सब भूलकर अपने भ्रातृत्व की ममता को लेकर सम्राट चंद्रसेन और राजकुमार पुरु पर हावी हो गया। उसे सम्राट चंद्रसेन को कैद करने का एक मौका मिल गया। वह तो कभी से ही ऐसे मौके की तलाश में ही था, अब वह इस स्वर्णिम मौके को किसी भी प्रकार की अनुनय-विनती से या नीति-अनीति से कैसे भी गंवाना नहीं चाहता था। सम्राट चंद्रसेन को भी नजर-बंद कर लिया गया। राजा आम्भी ने उसी समय न्याय का फरमान जारी किया कि कर्ण के वध के बदले कल सवेरे पुरु को फांसी दे दी जाय।
                 सम्राट चंद्रसेन अवाक् थे। वे चारों ओर से घिरे थे। उन्होंने आम्भी को समझाया, धमकाया, डराया पर आम्भी सब कुछ परिस्थितियों को अपने अनुकूल समझ कर उन्हें जलील करता रहा। सम्राट ने अभिसार को इस अवसर पर हस्तक्षेप करने का कहा, परन्तु राजा अभिसार हृदय से राजा आम्भी के साथ मिला हुआ था, इसलिए उसने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। आम्भी ने सम्राट चंद्रसेन को नजर-बंद और पुरु को कारागार में बंद करवा दिया। पिता और पुत्र दोनों कैदी हो गए। जीवन और मरण के बीच एक रात थी और वह भी त्वरित गति से बीतती जा रही थी। राजा आम्भी और अभिसार दोनों को अब किसी बात का डर नहीं था.....।
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                 उधर राजा आम्भी की पुत्री राजकुमारी उर्वशी यह सब जानकर बड़ी उद्विग्न थी। वह राजकुमार पुरु को हृदय से चाहती थी। उसकी पीड़ा का आज कोई पैमाना नहीं था। बीता हुआ कल उसकी आँखों के सामने घूम रहा था। यह कल ही की तो बात थी, जब वह अपने पिता महाराजा आम्भी के साथ तक्षशिला विश्व-विद्यालय के दीक्षांत समारोह में गयी थी और राजकुमार पुरु को पहली बार जी-भर के देखा था। वह उसके शरीर-सौष्ठव, रूप-सौन्दर्य, प्रत्युत्पन्न-मति, कान्ति और ओज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी थी और जिस क्षण उसने राजकुमार को देखा उसी दिन क्षण मन ही मन वह अपने आपको उसे समर्पित कर चुकी थी। वह उस से विवाह करने का ठान चुकी थी। परन्तु दुर्योग से उसके इस सुंदर सपने को ग्रास लग चुका था। कर्ण की हत्या से पुरु को फांसी का दंड होने के कारण उर्वशी की आशाओं पर पानी फिर गया था।
                 वह विचारों में खो गयी। प्रेम प्राणी को पागल बना देता है, वह किस किनारे डूब जाये और किस किनारे बह जाये, कोई कुछ नहीं जता सकता है। विचार सागर में डूबी हुई उर्वशी अपने आप को भूल चुकी थी। उसका मन और मष्तिष्क शांत नहीं था। एक से बढ़कर एक आवेश उसे लपेटे जा रहे थे। वह किसी भी हद तक जाकर पुरु को फांसी से बचाना चाहती थी और सदा-सदा के लिए उसकी होना चाहती थी। भयानक सपनों के जंजाल में खोयी हुई वह अपने पर्यंक पर निढाल हो गयी। इतने में उसे महाराजा आम्भी के मधुर शब्दों ने सचेत कर दिया। आम्भी बोले-  ‘पुत्री, उर्वशी! अभिसार नरेश के साथ मैंने तुम्हारा विवाह करना निश्चित कर लिया है......।’ उर्वशी को ऐसे लगा जैसे कोई उसके कलेजे पर करोत चला रहा हो। वह कुछ नहीं बोली। राजा बोलता जा रहा था। वह बोला- ‘.......मुझे हर-प्रकार से वह तुम्हारे योग्य प्रतीत होते है।’..... वह क्या बोलती। उसका पुरु से एक तरफ़ा प्यार था और वह भी कैद हो चुका था। उसके जीवन के बचे रहने की कोई मद्धिम सी भी आशा की किरण शेष नहीं थी। वह यह सब अपने पिता को बता भी नहीं सकती थी। उसने अपने को सँभालते हुए बोला- ‘..... पिताजी, आप मेरे विवाह की चिंता नहीं करें, मैं विवाह नहीं करना चाहती हूँ।’ पिता ने उसको बातों ही बातों में समझाने की कोशिश की, परन्तु वह हाँ नहीं कह सकी। काफी देर तक पिता-पुत्री के बीच बातें होती रही। आखिर आम्भी क्रोधित होते हुए उर्वशी के कमरे से बाहर चले गए।
                 राजा आम्भी के जाने के बाद उर्वशी और ज्यादा उद्विग्न हो गयी। वह किसी भी कीमत पर राजकुमार पुरु को आज़ाद कराना चाहती थी। विचारों के जंजाल में न तो उसे कोई राह सूझ रही थी और न ही नींद आ रही थी। महाराजा आम्भी अपने शयन-कक्ष में जाकर सो चुके थे। उर्वशी अपने कक्ष से बाहर आई और जहाँ सम्राट चंद्रसेन नजरबंद थे, वहां उनके पास गयी। सम्राट चंद्रसेन पुत्र की सजा सुनकर असह्य वेदना में अर्धमूर्च्छित अवस्थापन्न प्रलाप कर रहे थे। उर्वशी ने उन्हें सचेत करने की असफल कोशिश की.....। सम्राट होश में नहीं आ सके अँधेरी निष्ठुर रात में उनके प्राण-पंखेरू उड़ गए। उसकी आँखों के सामने सम्राट चंद्रसेन के जीवन की बुझती लौह ने उसे डर के साथ-साथ साहस की बहुत बड़ी पतवार सौंप दी। उसे अब अपनी मृत्यु से भी भय नहीं रहा और उसने ठान ली कि वह किसी भी तरह से कारागाह की चाबियाँ प्राप्त कर राजकुमार को आज़ाद करा लेगी।
                 सम्राट चंद्रसेन के पार्थिव शरीर को वहीँ छोड़कर वह वापस महल में आई। चारों तरफ इधर-उधर देखकर वह चतुराई से पिता के कक्ष में प्रविष्ट हुई। राजा आम्भी निसंग हो सो रहे थे। कारागाह की चाबियां उनकी जेब में रखी थी और राजकीय मोहर भी उसे वहीँ मिल गयी। एक कागज पर मोहर लगाकर उसने कारागाह के अध्यक्ष को लिखा, कि पुरु को इसी समय मुक्त कर दिया जाय तथा एक सैनिक को उनकी राजधानी तक छोड़ने का प्रबंध कर दिया जाय। उर्वशी ने स्वयं सैनिक का वेश धारण किया और महल का दरवाजा बंद करके कारागार पहुँच गयी। करागाराध्यक्ष को मुक्त करने वाला पत्र दिया। कारगाराध्यक्ष को संदेह करने का कोई कारण नहीं दिखा।
                  राजकुमार पुरु के जीवन की यह काली रात उर्वशी के लेख से ही धवल चांदनी में बदलने वाली थी, परन्तु उसे इस बात का तनिक भी आभाष नहीं था। वह तो कल सुबह आने वाले मौत के क्षण के बारे में शोकाकुल था। भयानक कल्पना के भंवर जाल ने उसे जकड़ रखा था। नींद का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। इतने में कारागाराध्यक्ष पहुंचा और उसने उसे राजा द्वारा मुक्त करने का फरमान सुनाते हुए मुक्त कर दिया। राजकुमार पुरु के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था। उसे सैनिक वेश में साथ चल रही उर्वशी के साथ ही मद्र देश की राजधानी जाना था। अस्तबल से दो घोड़े लिए गए और दोनों उस पर बैठकर बाहर निकल गए। थोड़ी दूर जाने के बाद उर्वशी ने पुरु को अपने सैनिक होने का राज बताते हुए बोला कि आप मेरे पहने हुए सैनिक के कपडे पहन ले और यह मेरा घोडा ‘रत्न’ ले ले। इस पर बैठकर जितना जल्दी हो सके अभी राज्य से बाहर अपने राज्य की सीमा में चले जाये। पुरु ने वैसा ही किया। उर्वशी को अपने किये पर संतोष हो रहा था। वह चुपचाप वापस आकार अपने महल के शयनागार में सो गयी।
                 सुबह का सूर्योदय होते ही राजा आम्भी अपना मनोरथ पूरा करने के लिए मंत्री से मंत्रणा कर रहा था। उसने कई देशों के राजाओं को पत्र लिखाये कि वह मद्र देश का राजा है।.... वह इसी मनोरथ पूर्ति में लगा हुआ था कि सेनापति ने आकर राजा को बताया कि पुरु को तो रात में ही कारागार से मुक्त कर दिया गया। राजा भौचक्का रह गया..... जब कारागार के प्रमुख ने राजाज्ञा का पत्र दिखाया तो राजा अवाक् रह गया। वह उस पत्र की हस्तलिपि को देखते ही पहचान गया। वह हस्तलिपि उर्वशी की ही थी। शिकार हाथ से निकल चुका था। अब राजा आम्भी के गुस्से का कोई आर था न पार, वह तत्क्षण आग अबुला होते हुए हाथ में खड़ग ले उर्वशी को मारने के लिए उर्वशी के महल में गया। उर्वशी अपने कमरे में ही थी। क्रोध के आवेश में राजा उर्वशी की छाती पर कटार मारने को उद्ध्यत हुआ, परन्तु उर्मिला मुंह नीचे किये पत्थर की मूर्ति की तरह मौन खडी थी, मानो वह इसी का इंतजार कर रही थी।
                 अचानक आम्भी ने कटार को फेंक दिया।......उर्वशी अचंभित हुई। वह लज्जा में सिर झुकाए क्षमा याचना करने लगी। पिता ने उसे भला-बुरा कहना शुरू किया परन्तु सब व्यर्थ उर्वशी निःशब्द बुत बनी रही। अब क्या हो सकता था। तक्षशिला और साकल का युद्ध अब अवश्यम्भावी था। आम्भी वापस अपने महल में गया... उर्मिला अपने महल में भविष्य को निहार रही थी। उधर राजकुमार पुरु अपने देश पहुँच चुका था।
                 पुरु ने बिना समय गंवाए उसी समय सेना को एकत्रित किया और पिता को आज़ाद कराने के लिए लश्कर के साथ तक्षशिला की ओर कूच किया। जब वह आधे रास्ते पहुँचा तो उसे समाचार मिला कि उसके पिता सम्राट चंद्रसेन के प्राण-पंखेरू उड़ चुके है और आम्भी राजा युद्ध करना चाहता है। सम्राट चंद्रसेन और राजकुमार पुरु दुर्योग से ही आम्भी के चंगुल में फंसे थे अन्यथा आम्भी की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह उनके सामने जबान भी खोले। यह एक अप्रत्याशित युद्ध की वेला थी।
                दोनों देशों की सेनायें आमने सामने थी। उन में भयंकर युद्ध हुआ। आम्भी की सेना पराजित हुई। आम्भी को बंदी बना दिया गया। आम्भी का जीवन अब पुरु की दया पर निर्भर था। इस समय अगर पुरु चाहता तो आम्भी को मार डालता, परन्तु पुरु उदार हृदय था। उसने आम्भी को छोड़ दिया और उसका राज्य भी उसे वापस कर दिया। आम्भी-नरेश का हृदय ग्लानी से भर आया। युद्ध समाप्त हुआ।.... पुरु अपने पिता की मृत-देह ले विजय के साथ साकल आ गया। वह मद्र-देश का राज-काज सँभालने लगा।
                चंद्रभागा के कारण ही पुरु विपत्ति में पड़ा था, इसलिए जब पुरु बंदी था तो चंद्रभागा कारागार के सामने ही बैठ गयी थी। बाद की घटनाओं ने उर्वशी और चंद्रभागा को मिला दिया। उर्वशी ने चंद्रभागा का विद्यापीठ में प्रबंध करवा दिया। उर्वशी मन से पुरु को चाहती थी। एक दिन उर्वशी ने पुरु से विवाह करने का प्रस्ताव अपने पिता से छेड़ दिया। आम्भी यद्यपि पुरु के आधीन था, परन्तु वह उसे शत्रु ही समझता था। वह किसी भी कारण से ऐसा नहीं होने देना चाहता था और उर्वशी अभिसार के प्रस्ताव को तो पहले ही मना कर चुकी थी। राजा आम्भी और सम्राट पुरु की दुश्मनी जग-जाहिर हो चुकी थी। तक्षशिला के गण-मान्यों और विद्यापीठ के आचार्यों ने भी पुरु और आम्भी के आपसी विरोध को ख़त्म करने के लिए उर्वशी का विवाह पुरु से करने की सलाह आम्भी को दी; परन्तु आम्भी इसे विचार करने योग्य तक नहीं मानता था। उर्वशी अपने पिता के विरुद्ध भी नहीं जाना चाहती थी। उसने आजन्म कुंवारा रहने का निश्चय कर लिया।
                 पुरु अब मद्र-देश का समारत था। वह भी अपने पिता की तरह दिद्विजय की इच्छा कर कुछ सेना को लेकर विजय यात्रा पर निकल पड़ा। पहले उसने उतर कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। उस तरफ के सारे देशों को विजय कर वह सिंध की ओर लौटा। जिन दिनों सम्राट पुरु सिंधप्रदेश का दौरा कर रहा था, उन्हीं दिनों फ़ारस का राजा सिकंदर विश्व-विजय की पताका के साथ भारत की सीमा पर आक्रमण करने आ पहुंचा था।

                 सिकंदर संसार के महान विजेताओं में भी महान माना जाता है। वह बड़ा उत्साही वीर था। उसने बाल्यकाल से ही जीवन का लक्ष्य बना लिया था कि वह समस्त संसार को जीत कर विश्व-विजयी बनेगा। वह बीस वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा और थोड़े ही समय में मिस्र से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक एशिया का सारा प्रदेश जीत लिया। ईस्वी सन से 326 वर्ष पूर्व उसने भारतवर्ष पर आक्रमण किया।
...............निरंतर ... इसके दूसरे खंड में पुरु और सिकंदर का वर्णन है ,  उसे भी पढ़े .........




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मेदे(Mede): मद्र( Madra):मेग/Megh:तारा राम गौतम-जोधपुर राजस्थान।

Saturday, December 8, 2018

मेदे (mede) : मद्र (madra) : मेग/मेघ (meg/megh)
                                                                                                                    - ताराराम
                                                                                                    बुद्धिस्ट स्टडीज एंड रिसर्च सेंटर,
                                                                                    23/946 चोपासनी हाउसिंग बोर्ड, जोधपुर(राजस्थान) 

             सतलज नदी के मुहानों और उसके आसपास के  प्रदेशों में प्राचीन काल में निवासित जाति को रामायण, महाभारत, पुराण और अन्य संस्कृत व पालि साहित्य में मद्र कहा गया है. सभी स्रोतों से यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में मद्र लोग शुतुद्रु नदी के किनारे भी बसे हुए थे, जिसे आजकल सतलज नदी कहते है. शुतुद्रू के नाम से सतलुज नदी का वर्णन ऋग्वेद में दो बार हुआ है. (ऋग्वेद, 3.33.1 व 10.75.5 ) वाल्मीकि रामायण में इस नदी के लिए शतद्रु शब्द का प्रयोग हुआ है. ( वाल्मीकि कृत रामायण, 2.71.2 ), जिसका अर्थ किया जाता है-  शतधा द्रवति अर्थात 100 धाराओं वाली नदी. यह शब्द इस नदी का विशेषण है. शुतुद्रु नदी का सम्बन्ध घनिष्ठ रूप से मेगों से रहा है. सिकंदर के आक्रमण के समय मेग (मेघ) जाति सतलुज नदी के मुहाने पर बसी हुई थी.

            कर्नल अलेक्जेंडर कनिंघम महोदय (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट्स, वॉल्यूम-2, पृष्ठ-10) ने पहली बार हमारा  ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि आज की  मेग ( मेघ ) जाति भारत की प्राचीन व प्रथम निवासित जाति है और सप्रमाण यह बताया कि सिकंदर के आक्रमण के समय इस जाति की बस्तियां सतलज, रावी, चेनाब और झेलम आदि नदियों के मुहानों पर बसी हुई थी. ग्रीक व ईरानी साहित्य के मेगार्सुस और संस्कृत के मेगद्रु व शुतुद्रु शब्दों के मूल में जाकर दावे के साथ कनिंघम महोदय ने यह प्रमाणित किया है कि सिकंदर के आक्रमण के समय मेग जाति मुख्यतः सतलज नदी के आसपास निवासित थी और वर्तमान सतलज नदी का ही मेगार्सुस नदी के नाम से उल्लेख हुआ है. सभी साहित्यिक और भौगोलिक साक्ष्यों के आधार पर कर्नल एलेक्जेंडर कनिंघम ने यह स्पष्ट किया कि वर्तमान ‘सतलज नदी’ का प्राचीन नाम मेगद्रु था, जो बाद में शुतुद्रू और शुतुद्रू से शतद्रु और शतद्रु से सतलज हो गया.

            पालि और संस्कृत के ग्रंथों के वर्णनानुसार यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में सतलज नदी के आसपास मद्र जाति निवासित थी, न केवल इस भू-भाग पर बल्कि उतर में हिमालय के परे बहुत बड़े विस्तृत भू-भाग में मद्र जाति फैली हुई/अधिवासित थी. मद्र जाति से अधिवासित होने के कारण ही इन प्रदेशों को मद्र-देश कहा जाता था. जिसका अवलोकन हम आगे करेंगे. ग्रीक और पर्शियन इतिहास-वेत्ताओं ने इस भू-भाग पर निवासित जाति को मेदे (Mede) जाति का कहा है, जो उपनिषद, महाभारत, पुराण आदि संस्कृत ग्रंथों में वर्णित ‘मद्र' जाति से साम्यता रखती है याकि मेदे ही मद्र है और मद्र ही मेघ है.  इस पृष्ठभूमि में प्रस्तुत लघु-आलेख में उपलब्ध ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोतों के आधार पर यहाँ प्राचीन इतिहास के मेदे (mede) और मद्र (madra) पर विचार के साथ उनके निवास स्थानों की प्रासंगिक चर्चा और उस से निष्पन्न ज्ञान से वर्तमान मेग (मेघ) जाति के प्राचीन इतिहास का अवबोध कराने का एक लघु प्रयत्न किया गया है.  

                वाल्मीकि रामायण में भरत जिस रास्ते से अयोध्या लौटता है, उस रास्ते में आने वाली नदियों का उल्लेख वाल्मीकि ने किया है, जिस में  सतलज का उल्लेख शतद्रु के नाम से हुआ है. (रामायण, अयोध्याकाण्ड, 71.1-9),  पुराणों (भागवत पुराण- 5.18.18, विष्णु पुराण- 2.3.10 ) में इस नदी का उल्लेख हुआ है, यह उल्लेख कहीं कहीं पर शुतुद्रू, कहीं कहीं पर शिताद्रु, कहीं कहीं पर सिताद्रू आदि के रूप में मिलता है. (शब्दकल्पद्रुम और भारतद्विरूपकोश, मोनिएर विलियम, तथा नन्दों लाल डे ; जियोग्राफिकल डिक्शनरी ऑफ़ एंसियेंट एंड मिडिवल इंडिया, तीसरा संस्करण, दिल्ली, 1971, पृष्ठ-187,ओ. पी. भारद्वाज कृत स्टडीज इन द हिस्टोरिकल जियोग्राफी ऑफ़ एंसियेंट इंडिया में उद्धृत, पृष्ठ-178) अलबरूनी ने इसे शतरुद्र कहा है, जिसे पंजाब में शतद्रु/सतलदर आदि भी बोला जाता है. स्कन्द-पुराण में इस नदी को शतरुद्रिका कहा गया है. (भारद्वाज, ओ पी : स्टडीज इन द हिस्टोरिकल जियोग्राफी ऑफ़ एंसियेंट इंडिया, संदीप प्रकाशन, दिल्ली, 1986, पृष्ठ- १७७-178 ).  इस नदी को सारंग भी कहा गया है. (विलियम विन्सेंट, डी. डी., द वॉयेज ऑफ़ नेअर्चुस फ्रॉम इंडस टू द यूफ्रातेस, टी. कादल जुन. एंड डब्लू. दविएस, लंदन, पृष्ठ- 76.) स्पष्ट यह है कि  इस नदी के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त शब्द शुतुद्रु से आज के सतलज शब्द की यात्रा विभिन्न सांस्कृतिक पड़ावों से होकर गुजरी है और ये शब्द इस नदी मूल नाम मेगद्रु शब्द को संस्कृतनिष्ठ बनाने के फेर में साहित्य में प्रयुक्त हुए है. इस नदी का मूल या प्रारंभिक नाम, जैसा कि कनिंघम महोदय ने गवेषित किया, मेगद्रु रहा है (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट्स, वॉल्यूम-2, पृष्ठ-11 से 13 ),  डाइयोनिसस (Dionysius Periegetes ) ने इस नदी ( सतलज नदी ) के लिए Megarsus (Megandros) शब्द प्रयुक्त किया है, जो संस्कृत के मेगद्रु के समतुल्य है. इस नदी का उल्लेख एविएनुस (Avienus) ने Cymander, प्लिनी ने Hesidros नदी के नाम से किया है. टोलेमी ने सतलज नदी हेतु जरादृस (zaradrus/zadadrus) शब्द का प्रयोग किया है. कई अन्य ईरानी और ग्रीक इतिहासकारों ने इस से मिलते-जुलते शब्दों का प्रयोग इस नदी को संबोधित करने हेतु किया है.  (आर्कियोलॉजिकल रिपोर्ट्स-1863-64, पृष्ठ-12 ). ईरान और फ़ारस में नदियों के नाम पर वहां के निवासियों का नामकरण करने की एक आम-परंपरा रही है, यथा भारत के लिए वे लोग हप्त-हिंदु शब्द प्रयुक्त करते है. इस प्रकार से ‘मेगद्रु नदी’ के मुहानों पर बसे हुए लोग ही आगे चलकर मेग कहलाये, जो वैदिक साहित्य में  मद्र और प्राचीन ईरानी व यूनानी साहित्य-इतिहास में मेदे (Mede) या मेदेस/मेडिज आदि के रूप में वर्णिके प्रारंभिक या त किये गये है.
               
       मेदे (mede)-  मेदे (mede) शब्द इतिहास में पहली बार ईसा-पूर्व 9वीं शताब्दी में असीरिया के दस्तावेजों में अमदी (Amadai) के रूप में प्रकाश में आता है. प्राचीन काल में ‘मेदे’ प्रजाति अमर्दुस (Amardus) नदी के तट पर बसी हुई थी. वे ही बाद में मेदे/मडई (mede/madai) कहे जाने लगे. ईरानी परंपरानुसार Amadai शब्द में अ विलुप्त कर लिए जाने पर वे इन्हें मैदे या मदे/मेदी  बोलते थे, इस प्रकार से अमर्ड्स में प्रयुक्त ‘अ' विलुप्त हो कर मैदे शब्द रह गया. मेला पोम्पोनिउस (प्रथम शताब्दी ईस्वी) कैस्पियन सागर के पास अमार्दी (Amardi) राष्ट्र का जिक्र करता है. असीरिया से प्राप्त दस्तावेजों के शब्द में ‘r’ अक्षर नहीं मिलता है, अन्यथा इन शब्दों में पूर्ण शब्द साम्यता है. हरित कृष्णा देब एक शोध-आलेख ‘मेदे और मद्र (Mede and madra)’ में यह स्पष्ट करते है कि हमें असीरिया के मदई (Madai) शब्द को मर्दा {ma(r)da} के समान लेना चाहिए, जो संस्कृत के मद्र शब्द की जाँच-पड़ताल (ये शब्द एक ही है) को युक्तियुक्त बनाते है. (Journal and Proceedings of the Asiatic Society of Bengal, new series, Vol. 21, 1925, Pp. 205-210)  

     मेडिज के प्रारंभिक इतिहास  को जानने के लिए हेरोडोटस एक प्रमुख स्रोत है. वह वर्णन करता है कि लगभग 1700 ईस्वी पूर्व मेदेस ने असीरियन प्रभुत्व के विरुद्ध विद्रोह किया था. वे अलग-अलग गांवों में बिखरे हुए बिना किसी एक केन्द्रीय सत्ता के निवास करते थे. उनके प्रत्येक गाँव में एक न्यायधीश/पञ्च होता था. हालाँकि वे देइओकेस (Deioces) के जैसी प्रतिष्ठा के नहीं थे, जिसे आसपास के गाँव वाले अपने विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थ के रूप में बुलाते थे, परन्तु उनके हर-एक ग्राम में उनका न्यायाधीश या पञ्च होता था, जो उनका मुखिया होता था. जब देइओकेस ने अपने आप को मध्यस्थता हेतु असमर्थ/अपरिहार्य महसूस किया तो उसने मध्यस्थता करनी छोड़ दी. ऐसी स्थिति में सब जगह अराजकता फ़ैल गयी. इस अराजकता को समाप्त करने के लिए सभी मेडीस एक जगह एकत्रित हुए और देइओकेस को अपना राजा चुना. उसके बाद उसका पुत्र फ्रोर्तेस उनका राजा हुआ और उसने पर्शिया को जीत कर मेदी राज्य की सीमा पर्शिया तक फैलाई. उसने पडौस के असीरिया राज्य पर भी धावा बोला, जिसकी राजधानी उस समय निनेवेह थी,  परन्तु उसे जीत नहीं मिली. फ्रोर्तेस के बाद क्याक्सार्रेस सिंहासन पर बैठा. उस ने लीडिया पर आक्रमण किया. इन सब की और बाद के राज-काज की ऐतिहासिकता प्रमाणित है.

            देइओकेस की प्रतिष्ठा या विश्वसनीयता उसकी ईमानदारी और न्यायप्रियता से थी, उस समय मदे लोग भी ग्रीक लोगों की तरह छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त थे और प्रत्येक राज्य का एक अधिपत्ति होता था, जो उनका राजा होता था. प्रत्येक नगर उसके आदेशों की पालना करता था.  ईमानदारी और न्यायप्रियता प्रत्येक मेदी का एक विशिष्ट गुण माना जाता था और मेडिज राज्य का राजा होने के लिए यह गुण प्रमुख अहर्ता थी. फ्रोर्तेस भी देइओकेस की तरह मेदी गण का गण-प्रमुख था.     

          नाबोनिदुस ने मेडीस के लिए मंदा (manda) शब्द प्रयुक्त किया है. क्याक्सारेस ने 606 ईस्वी पूर्व में निनेवेह को समाप्त कर मदेइ राज्य की स्थापना की थी. हालाँकि प्रोफ. सयके का मानना है कि मदा और मेदाई अलग अलग है. मदा अधिनायक है, वही मदई  गणतंत्रवादी है.

            ओक्सुस नदी के दक्षिण में बसी जातियों को मुस्लिम लेखकों ने  मेद या मेंद नाम से उल्लेखित किया है. यह नाम मेदी या मंद्नेई के रूप में पंजाब के पुराने दस्तावेजों में भी उपलब्ध होता है. एलेग्जेंडर कन्निंघम उच्चारण भेद के अलावा इन्हें एक ही साबित करते है एवं वर्जिल का साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि सबसे पहले वर्जिल (Virgil) के उल्लेख में मेदुस ह्य्दास्पेस (Medus Hydaspes) शब्द प्रयुक्त हुआ है, टोलेमी इसे यूथी मीडिया (Euthy-media)  या सागल (sagal)के नाम से उल्लेख करता है. इन सब साक्ष्यों से स्पष्ट है कि वर्जिल के समय अर्थात ईसा पूर्व पहली शताब्दी में मेदी जाति पंजाब में निवासित थी. ईसा पूर्व की पहली शताब्दी में जाट/जट भी सिंध में  में आ चुके थे, जो कि ओक्सुस (Oxus) नदी पर उनके पुराने पडौसी और शत्रु थे. मसूदी (915-91 ईस्वी) इन्हें मिंद कहकर उल्लेखित करता है. मुस्लिम आक्रमणों के समय ये कठियावाड और अरावली की ओर जा बसे.(( Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871,  page-51-54).                                

            अरियन (Arrian) इंडिका (I.1.3) में लिखता है  :-  ‘the Indians between rivers Indus and Cophen (Kabul) were in ancient times subject to the Assyrians, afterwards to Medes and finally submitted to the Persians and paid to Cyrus the son of Cambyses, the tribute that he imposed on them.’   अर्थात सिन्धु और काबुल नदियों के बीच में रहने वाले भारतीय पहले असीरिया के अधीन थे, उसके बाद मेडिज के और अंत में पर्शियन के और साइरस को कर अदा करते थे. (अर्रियन बुक 8, INDICA में लिखा है:-  “1. All the territory that lies west of the river Indus up to the river Cophen is inhabited by Astacenians and Assacenians, Indian tribes. But they are not like the Indians dwelling within the river Indus, tall of stature, nor similarly brave in spirit, nor as black as greater part of Indians. These long ago were subject to Assyrians; then to the Medes, and so they become subject to Persians;and they paid tribute to Cyrus son of Cambyses from their territory, as Cyrus commanded.”  (Arrian with an English translation by E. Iliff Robson, B. D. Vol. 2, William Heinemann Ltd, Harward University Press, Momxlix .  pp-307)

            ईसा-पूर्व लगभग 7वीं शताब्दी में  मेडिज ने असीरिया के विरुद्ध विद्रोह करके अपनी स्वतंत्र सत्ता कायम कर ली थी, अस्तु सिन्धु-क्षेत्र में भी ईसा से 700 वर्ष पूर्व यहाँ मेडिज का शासन होना प्रमाणित होता है. इस सब साक्ष्यों से यह पुष्ट होता है कि ग्रीक-असीरिया के मेदे और सिन्धु-सागर (पंजाब) के मेद एक ही थे, जिन्हें भारत के प्राचीन शास्त्रीय-साहित्य में मद्र कहा गया है.   

            मद्र (madra)-  ‘मद्र’ भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित एक देश का नाम है, या उस देश के एक राजा का नाम है (बहुवचन में यह शब्द व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त होता है). यह शिबी के एक पुत्र का भी नाम है (जो मद्रों का पूर्वज था. ( Personal and Geographical names in Gupta Inscriptions, page-93).  भारतीय साक्ष्यों में सबसे पहले हमें ऐतरेय ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद् में मद्रों का सन्दर्भ मिलता है, जिसका रचना-काल वेदमतानुयायी  6ठी-7वीं शताब्दी होना अनुमानित करते है.  ब्राह्दारंयक उपनिषद में  वर्णित है कि यज्ञ-बलि के अध्ययन के लिए उद्दालक आरुणी मद्र-देश में पतंचल कप्य के घर जाता है. (ब्राह्दारंयक, 3.7), संख्यायन श्रोत सूत्र ( सांख्य., 16.27.6) में उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु अपने पिता के पास मद्र देश जाता है. ऐतरेयब्राह्मण (8.14) में पृथ्वी के विभिन्न भू-भागों पर पांच-प्रकार की शासन-व्यवस्था का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि हिमालय के आगे उतर में उत्तर-कुरु और उत्तर मद्रों के जनपद है. इन जनपदों को वैराज्य कहा गया है. वैराज्य राज्य अधिनायकवादी (राजतन्त्र) राज्यों से अलग राज्य हुआ करते थे, जिन में शासक का चुनाव जनता करती थी.

            महाभारत में मद्र-देश को भारत का एक प्राचीन खंड कहा गया है. उसकी स्थिति झेलम नदी के पास बताई गयी है. पांडू की पत्नी माद्री वहीँ की थी, जो शल्य की बहिन थी और जिस से पांडू के नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र हुए. भीष्म के मद्र देश जाने और पांडू के लिए माद्री का हाथ मांगने का वर्णन महाभारत में हुआ है. (महाभारत, आदि-पर्व, अध्याय-112 व अन्य) सावित्री का पिता अश्वपति भी मद्र का था. द्युतिमान मद्र देश का राजा था, जिसकी पुत्री विजया से सहदेव की शादी हुई थी. (महाभारत, आदि पर्व, अध्याय, 95, श्लोक-80). देवी भागवत में सुन्ध्वा को मद्र देश का राजा कहा गया है (देवी भागवत, स्कंध-5), पद्मपुराण के सृष्टि-खंड में श्री कृष्ण की 8 रानियों में एक लक्षणा मद्र राजा की पुत्री कही गयी है. ब्रह्मानंद पुराण में अत्री महर्षि की 10 पत्नियों में एक मद्रा थी, जिस से सोम नाम का एक पुत्र हुआ, महाभारत के कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण मद्र और बाह्लिकों की बुराई करता है.(महाभारत, कर्ण-पर्व, अध्याय-44), मद्र-नरेश अश्वपति की पत्नी मालवी, जो सावित्री की माँ थी, उस से 100 पुत्र पैदा हुए, वे मालव कहलाते थे. (महाभारत, वन-पर्व, अध्याय-297). इस प्रकार से आख्यायनों और पौराणिक ग्रंथों में कई जगहों और संदर्भो में मद्रों का उल्लेख हुआ है. उनकी शासन सत्ता, राज्य और राजाओं के वर्णन के साथ-साथ उनके राज्यों की भौगोलिक स्थिति का वर्णन भी इन ग्रंथो से हुआ है, जो अर्रियन के वर्णन से मेल खाते है.

                                    

            मद्रों के राज्यों को वैराज्य कहा गया है.  कौटिल्य के अर्थशास्त्र (8.2) में वैराज्य राज्यों का उल्लेख है. कौटिल्य ऐसे राज्यों की दुर्दशा का भी वर्णन करता है और इस प्रणाली को वह अच्छी नहीं मानता है. यह विदित है कि कौटिल्य राजशाही को पसंद करता था, इसलिए उसने इन गणराज्यों को राजा-विहीन और दुर्दशा वाला वर्णित किया और इस शासन प्रणाली को अस्वीकृत किया. अगर हम वैराज्य शब्द की उत्त्पति पर गौर करें तो देखते है कि सायण ने ऐतरेयब्राह्मण के भाष्य में वैराज्य के सन्दर्भ में इसे ‘विशेषेण राजत्वं‘ शब्द से परिभाषित किया है. एक अन्य जगह पर उसने वैराज्य को ‘इतरेभ्यो भूपतिभ्यो वैशिष्ट्यं’ कहा है. मार्टिन हौग, के. पी. जायसवाल और आर. सी. मजुमदार इसे राजा-विहीन शासन के समान मानते है और आर. शामाशास्त्री इसे विदेशी शासन के रूप में ग्रहण करते है.(देब, JASB, पृष्ठ-207)

            इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 188वें सूक्त के मन्त्र 4 से 6 दृष्टव्य है:

‘प्राचीनं बहिर्रोजसा सहस्रवीरम स्त्रणन. यत्रादित्या विराजथ. (ऋग. 1.188.4)
विराट सम्राद्विभ्विः प्रभ्वीर्बहिविश्च भूयसीश्च याः. दुरो घृतान्यक्षरण . (ऋग. 1.188.5)
सुरुक्मे ही सुपेशसाधि श्रिया विराजतः. उषासावेह सीदताम. (ऋ ग. 1.188.4)

             इन मन्त्रों में हमें विराट और सम्राट शब्दों का अवलोकन होता है, जो वि’ राज शब्द से जुड़े है, ये शब्द तेजस्वी, विभु और शोभा आदि अर्थ के द्योतक है. विराट शब्द ‘वैराज्य ‘ की उपमा प्राप्त करता है. इस से स्पष्ट है कि प्रारंभिक रूप में ‘वैराज्य’ शासन का एक विशिष्ट प्रकार था, जो अपने गुणों या प्रसिद्धि से जाना जाता था. ऋग्वेद में प्रयुक्त यही अर्थ ऐतरेयब्राह्मण (8) में लिया गया है, जहाँ राज्य विराट, सम्राट शब्द साथ साथ आये है और ये शब्द शासन के स्वरुप को निदर्शित करते है अर्थात ऐसे राज्य जो अपने तेज और शोभा से शासन करते है. यह अभिजात्य-वर्ग (Aristocracy) या कुलीन तंत्र को इंगित करता है जैसा की ग्रीक दार्शनिक इसे कहते है. स्पष्टतः वैराज्य राज्यों में सत्ता की शक्ति जनता/जनपद यानि कि लोगों के समूह में सन्निहित होती थी. शासन के स्वरुप का यह प्रतिदर्श उस समय हमें दुनिया के अन्य भागों में भी मिलता है, इसलिए वैराज्य का अर्थ राजा-विहीन राज्य नहीं होता है, बल्कि एक ऐसा राज्य जिसके शासन की बागडोर जनता के हाथ में थी अर्थात ‘वैराज्य' शब्द गणराज्य का अर्थ द्योतित करता है. इस अर्थ में मद्रों में गणतंत्र-व्यवस्था प्रचलित थी, यह सुस्पष्ट होता है.      

            मेदे लोगों ने ईसा-पूर्व 625 को राजतन्त्र को अंगीकार कर लिया था. जातक कथाओं में वर्णित मद्रों की शासन-व्यवस्था इस बात की पुष्टि करती है. भगवन बुद्ध के समकालीन बिम्बसार ने मद्र राजकुमारी से शादी की थी, सम्भवतः वह अजातशत्रु की माँ थी.बुद्ध के समय मद्र की राजकुमारियां सौन्दर्य के लिए प्रसिद्द रही है. इस प्रकार से यह तथ्य पुष्ट होता है कि असीरियन मेदे और भारतीय मद्र समकालीन थे. न केवल समकालीन थे, बल्कि वे एक ही मानव-समूह के लोग थे, यह भी स्पष्ट होता है.       

        यह स्पष्ट है कि ऐतरेयब्राह्मण और ब्रहदारन्यकोपनिषद में उल्लेखित ‘उत्तर मद्र’ 700 वर्ष पूर्व एक गणतंत्रात्मक शासन के अधीन हिमालय के आगे अधिवासित थे. उनकी शासन प्रणाली भी मीडिया में उस समय अधिवासित मेदे या मेदाई लोगों के सामान ही गणतंत्रात्मक थी. जब बाद में मिडिया में मेदे लोगों में राजतन्त्र प्रणाली को चुना तो भारत के उत्तर-मद्र लोगों में भी राजतन्त्र हावी रहा. भारतीय ग्रंथों में निबंधित हिमालय से परे उत्तर मद्रों का स्थान अर्रियन के मेदे लोगों के स्थान (अर्थात सिन्धु और काबुल नदी के बीच में अर्रियन जिन्हें मेदे कहकर वर्णित करता है, वे भारतीय साहित्य में मद्र के रूप में वर्णित है) से मिलता है. अतः इस साक्ष्य से मेदे और मद्र एक ही मानव-समूह प्रमाणित होता है.    .

            मेदे और मद्र की पहचान या समानता के लिए ये संकेत महत्वपूर्ण है. इन संकेतों से संतोषपूर्ण ढंग से मेदे और मद्र का तादाम्य और पहचान होती है. उनकी समानता या तादाम्य को उनके धर्म और दर्शन के विचारों से भी समर्थन मिलता है, जो ग्रीक/पर्शियन ग्रंथों के के साथ-साथ भारतीय वांग्मय में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है. प्राचीन काल में पंजाब को आरत्त देश भी कहा गया है, जिसे आर्य लोगों के लिए अच्छी जगह नहीं कहा गया है. इसे मद्र(मद्र्का ) और वाह्लिक लोगों से अधिवासित भूमि कहा गया है. महाभारत (... अध्याय 40) में मलेच्चः कहा गया है. पाणिनी ने मद्रों को भद्र और mangal कहा है. (पाणिनी, 2.3.73; 5.4.67), पाणिनी सम्भवतः मद्र देश का ही था और वह श्वेतकेतु के समय की बात कर रहा है. पाणिनी के बाद में भी पंजाब में मद्र लोगों के अधिवासन के संकेत मिलते है. यह दारीउस (Darius) के भारत पर आक्रमण के समय की अवधि बैठती है, जब पर्शियन यहाँ बसे. हिन्दुओं ने उसी अर्थ में उनके लिए मद्र शब्द का प्रयोग किया, जिस अर्थ में अकेमेनियन समय में ग्रीक लोग मेदे या पर्शियन शब्द को प्रयुक्त करते थे.

            महाभारत में वर्णित मद्र ही मेदे है, इस तथ्य कि पुष्टि दुर्योधन द्वारा मद्र राजकुमार शल्य के सारथी के रूप में कर्ण को चुनने से भी होती है. (महाभारत,8, अध्याय-32)  

            मेग/मेघ-  वर्तमान में यह जाति भारत के 10 राज्यों- राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हिमाचल-प्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ व कर्णाटक- और 2 केंद्र प्रशासित संघ-राज्यों- दिल्ली और चंडीगढ़-  में निवास करती है. इस को मेग, मेघ, मेगवाल, मेघवाल, मेंघवार आदि नामों से भी पुकारा जाता है. यह जाति मूलतः पंजाब (एकीकृत भारत)  की एक आदि-निवासी जाति है और आर्यों के भारत में आने से पहले सिन्धु-सागर यानि कि पंजाब की नदियों के मुहानों पर बस चुकी थी. मेघों को भारत (सिंध-सागर) में सबसे पहले बसने वाले पहले मानव समूह में रखा जाता है और उसे पंजाब की आदि-निवासी जाति कहा गया है. भारत में निवास करने वाली मानव-प्रजातियों को  1. प्राचीन तूरानी, 2. आर्य और 3. बाद के तूरानी व सीथियन, इन तीन भागों में विभक्त किया जाता है:- (“1. Early Turanians, or Aborigines. 2. Aryas, or Brahmanical Hindu. 3. Later Turanians, or Indo-Sythians. The early Turanians includes all those races of undeniable antiquity who do not belong to any one of the three classes of Aryas. Such are the Takkas and the Megs,........ call them Turanians”-  Erhnology:  Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871 , page-2).   इस वर्गीकरण के अनुसार  टक्का और मेग आदि सिंध-सागर के प्रारंभिक या मूल निवासी थे और वे मद्र कहलाते थे. प्लिनी के साक्ष्य से कन्निंघम बताते है कि ईसा की पहली शताब्दी में तक्षशिला का क्षेत्र अमंदा या अमंद्र कहा जाता था, जिसका उल्लेख मेदे (mede) के प्रसंग में आ चुका है. अलेक्जेंडर कन्निंघम लिखते है “........ But as, when first mentioned in history, about the beginning of the Christian era, we find them coupled with Bahikas or Madras of the Central Panjab, it is certain that they had already been ejected from their original seats, beyond the Jhelam. In the utter absence of all information, we can only make guess, more or less probable, regarding either the date or the cause of this event. Now, in the first century of our era, the District of Taxila was already called Amanda, or Amandra, a name which at once reveals the Awans of the present day, and their country Awankari………….As the latter is by far the more likely sorce, we may conclude with some probability that the Takkas had already been ejected previous to the expedition of Alexander. The cause of their ejectment, therefore, be assigned with much probability, to the immigration of Toranian colony of Gakars, whose settlement must have taken place either during the reign of Darius Hystaspes, or under the long lived Afrasiyab.”  (Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871,  page-6). 

            इस पृष्ठभूमि में मेघ जाति के निवास की वर्तमान स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि आज भी इनकी जनसँख्या का सर्वाधिक घनत्व प्राचीन काल के मद्र देश के भू-भागों में या उसके इर्द-गिर्द ही है अर्थात विभिन्न घटनाओं ने उन्हें विस्थापित होने को मजबूर किया तो वे आसपास के क्षेत्रों में जा बसे. ग्रीक इतिहासकारों ने उन्हें मेगले कह कर उल्लेख किया है. प्लिनी ने नेचुरल हिस्ट्री की 6ठी जिल्द में इस जाति का उल्लेख ‘मद्र' के नाम से न करके मेगल्लाए (megallae) के नाम से किया है. ( H. Rackham: PLINY- Ntural History, with an English translation in the ten volumes, Vol.2, Libri 3-4, Harward University Press, Cambridge, 1912 pp-392-393 ), जिसे आजकल मेग/मेघ/मेंघवार/मेघवाल/मेगवाल आदि नामों से संज्ञात करते है. मेगास्थनीज की इंडिका में भी इस जाति को मेगल्लाए कहा गया है:-   “The hill-tribes between the Indus and Iomanes are Cesi; the Cetriboni, who live in woods; then the Megallae, whose king is master of five hundred elephants and an army of horse and foot of unknown strengh; the Chrysei, the Parasangae,and Asangae,.....” (McCrindle: Ancient India: As described by Megasthenes and Arrian, Chuckervertty, Chatterjee & co., Ltd, Calcutta, 1926, pp-145-146, see also; Purana, Vol. 9, no. 1, All India Kashiraj Trust, Varanasi;  january, 1967, pp-135  ). स्पष्टतः प्लिनी, अर्रियन और मेगास्थनीज आदि ने जिस मेगल्लाए जाति का वर्णन किया है, वे भारतीय लोग थे (Kalus Karttunen: India and the Hellenistic World, Studia Orientalia, Vol. 83, 1997, pp-100) और वे सिकंदर के आक्रमण के समय सतलज नदी और उसके आसपास बसे हुए थे, परन्तु मध्यकाल में उनका कहीं पर भी नामोल्लेख नहीं मिलता है. इस सन्दर्भ में कन्निंघम लिखते है:- “..... I have failled in tracing their name in the middle ages, but I believe that we safely identify them with Mekei of Aryan, who inhabited the bank of the River Saranges near its confluence with Hydraotes………, it should be the same as the Satlaj. In the Sanskrit the Satlaj is called Satadru, or the “hundred channeled,” a name which is fairly represented by Ptolem’s Zaradrus, and also by Pliny’s Hesidrus, as the Sanskrit Sata become Hata in many of the W. Dialects. In its upper course the commonest name is Satrudr or Satudr, a spoken form of Satudra, which is only a curruption of the Sanskrit Satadru. By many Brahmans , however, Satudra is considered to be the proper name, although from the meaning which they give to it of “hundred bellied,” the correct form would be Satodru. Now Arrian’s Saranges means the “hundred divisions,” or “hundred parts,”in allusion to the numerous channels which the Satlaj takes just as it leaves the hills. According to this identification the Mekei, or ancient Megs, must have inhabited the banks of the Satlaj at the time of Alexander’s invasion,”    

            “In confirmation of this position, I cite the name of Megarsus, which Dionysius Periegetes gives to the Satlaj, along with the epithets of great and rapid. The name is changed to Cymander by Avienus, but as Priseian preserve it unaltered, it seems probable that we ought to read Mycander, which would assimilate it with the original of Dionysius. ………, it is most probable that we have the neme of the Meg tribe preserved in the Megarsus River of Dionysius. On comparing two names together, I think it possible that the original reading may have been Megandros, which would be equivalent to Sanskrit Megadru, or river of of the Megs. now in this very part of Satlaj, where the river leaves the hills,.......from him sprang Sahariya, who with his son Sal was turned out of Arabia, and migrated to the Island of Pundri; eventually they reached Mahmudsar, in Barara, to the west of Bhatinda, where they colonised seventeen villages. Thence they driven forth, and, after sundry migrations, are now settled in the districts of Patiala, Shahabad, Thanesar, Ambala, Mustafabad, Sadhora, and Muzafarnagar. From this account we can learn that the earliest location of the Meghs was to the westward of Bhatinda, that is on the bank of Satlaj............... The Megs of the Chenab have a tradition that they were driven from the plains by the early Muhammadans, a statement which we may refer either to the first inroads of Mahmud, in the beginning of the eleventh century, or the final occupation of Lahor by his immediate successors.”  (Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871,  page- 12-13). 

            इन संकेतों से यह स्पष्ट होता है कि मेगल्लाए शब्द वर्तमान मेग/मेघ जाति का प्राचीन नाम है. मेगल्लाए शब्द को मल्लोई, मल्ल, मालव आदि के रूप में भी अनुदित किया गया है. वहीँ पालि साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि मल्ल पूर्वोत्तर भारत की एक प्राचीन क्षत्रिय जाति थी. यह भी ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध की समकालीन इस प्राचीन मल्ल जाति के उस समय पावा और कुसिनारा में  प्रसिद्ध गणराज्य थे. (लॉ, बी. सी.: सम क्षत्रिया ट्राइब्स ऑफ़ एंसियेंट इंडिया, 1923, पृष्ठ;152-165) पूर्वोत्तर की इस मल्ल जाति का पश्चिमोत्तर मेगल्लाए/मल्लोई/मल्ल या मालव से क्या सम्बन्ध था, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन महाभारत से यह सुपठित है कि मद्र-नरेश की महारानी, जो सावित्री की भी माँ थी, उस से उत्पन्न उसके 100 पुत्र मालव कहलाते थे. इस साहित्यिक साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि पश्चिमोत्तर के मेगल्लाए/मल्ल/मल्लोई/मालव जाति प्राचीन मद्र जाति से ही निकली हुई जाति थी. मेगल्लाए या मल्लोई अपने मूल-स्थान से विस्थापित होने के बाद मध्यभारत में जा बसे. मध्यकाल में मालवा के नाम से प्रसिद्द भौगोलिक क्षेत्र इसी जाति के निवास-स्थान से पड़ा हो, ऐसा स्पष्ट होता है. साथ ही पश्चिम में मारवाड़, जैसलमेर, बहावलपुर और भटनेर, बीकानेर आदि तक इस जाति के अधिनिवास के प्रमाण मिलते है. मध्य-काल में मारवाड़ का बाड़मेर क्षेत्र भी मालानी/मलानी कहा जाता था. इसका कारण भी  इस क्षेत्र में उस समय मेगालाए/मल्लोई लोगों से अधिवासित होना ही रहा है. जहाँ से बाद में राजपूत सत्ता का उदय होता है. वर्तमान समय में भी इन क्षेत्रों में मेघ जाति का सर्वाधिक जनसँख्या घनत्व इन्हीं क्षेत्रों में है.


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Glossary of Tribes : A.S.ROSE