पंजाब के मेघ :
मेघों की स्थिति : मेघों के उद्धार ने एक व्यापक तथा स्थायी आन्दोल ਇਸन का रूप धारण कर एक पृथक् विशाल संस्था को जन्म दिया । मेघ नाम की अस्पृश्य जाति सियालकोट, गुरुदासपुर तथा गुजरात के ज़िलो और काश्मीर तथा जम्मू की रियासत मे रहती थी । 1911 की जन-गणना में इस जाति की संख्या 115429 और 1921 की जन-गणना में लगभग तीन लाख बताई गई हैं। सन 1911 की जनगणना में पंजाब में आर्य समाजियों में मेघों की जनसंख्या सर्वाधिक थी। दलित जातियों के हाथ का हिंदू खाते-पीते नहीं थे, न उन्हें अपने मन्दिरों में आने और न अपनी दरियो पर बैठने ही देते थे। यही स्थिति मेघों की थी, वे हिन्दुओं के कुओं से पानी लेना चाहे तो उन्हे किसी दयालु की कृपा की प्रतीक्षा करनी होती थी। कोई दयालु द्विज पानी भर कर उन के पात्र में डाल दे तो डाल दे। एक मेघ का बर्तन हिन्दुओं के कुएं में नहीं जा सकता था। उन के सिर पर चोटी थी, व गो-ब्राह्मण की पूजा करते थे, तीर्थों को जाते और अपने शव जलाते थे। उन के गोत्र भी वही थे, जो अन्य हिन्दुओं के। वे जुलाहे का धंधा करते थे, जिस में अपवित्रता का लेश भी नहीं था। फिर भी वे अस्पृश्य थे।" पृष्ठ 215-216 आर्य समाज के शुद्धि अभियान से सियालकोट,गुजरात और गुरदासपुर में मेघों की स्थिति में सुधार
*मेघों की अस्पृश्यता का कारण :* मेघों की अस्पृश्यता के कारण का अनुमान कई प्रकार से किया गया है। पंजाब के इतिहास में मेघों के साथ की जा रही अस्पृश्यता के तीन प्रमुख कारण बताए गए है। 1901 की जन-संख्या के वृत्तान्त में लिखा है कि मेघ सांसियों, चुहड़ों, चमारों-अर्थात् अन्य अस्पृश्य जातियो के संस्कारों में ब्राह्मण का कार्य करते हैं। सम्भव है, अस्पृश्यों के पुरोहित होने के कारण वे स्वयं भी आगे चल कर अस्पृश्य समझे गये हो। एक और अनुमान यह किया गया है कि जुलाहे का धंधा करते हुए वे कबीर पन्थी हो गये और क्योंकि कबीर मुसलमान समझे जाते थे, सम्भव हैं कि हिन्दुओं ने उनके अनुयायियों को भी अपने से पृथक कर दिया हो। मेघों के बहिष्कार का तीसरा आनुमानिक कारण राजनैतिक है। कहा जाता है कि अली कुली खाँ कशमीर-नरेश भारद्वाज का शत्रु था। उस ने एक मेघ पण्डित को जो राजा का ज्योतिषी था, राज-द्रोह करने की प्रेरणा की। मेघ नहीं माना। उसने तो लड़ाई का मुहूर्त शुभ बताया, परन्तु फिर भी राजा पराजित हुआ। अब शासन की बाग-डोर अली कुली खाँ के हाथ में आ गई और उस की आज्ञा से ज्योतिषी को सम्पूर्ण जाति को राज-भक्ति के फल स्वरूप इस प्रकार पतित कर दिया गया।
अस्पृश्यता का कारण कुछ हो, एक जाति की जाति शताब्दियों से धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक-सभी प्रकार के अधिकारों से वंचित चली आती थी और तो और, मेघ हिन्दुओं के घरों की सेवा भी नहीं कर सकते थे। उन के स्पर्श-मात्र में अपवित्रता समझी जाती थी।
*सियालकोट के मेघ और आर्य समाज :* सियालकोट के गजेटियर में बताया गया है कि सन् 1884 में आर्यं समाज लाहौर से लाला दिलबाग राय अपने एक और साथी के साथ सियालकोट आए और स्वामी दयानंद सरस्वती के आर्य समाज का प्रचार करना प्रारंभ किया। इस प्रचार के प्रभाव स्वरूप लाला लभ्भा मल वकील तथा ला० भीमसेन वकील ने यहां आर्य समाज की स्थापना कर दी। सन 1886 में आर्य समाज का दूसरा वार्षिक उत्सव हुआ। इसमें लेखराम पधारे। एक प्रीति भोजन का आयोजन भी हुआ। साप्ताहिक सत्संग होने लगे। 1889 में समाज मन्दिर का निर्माण हुआ। 1896 में ला० गंगाराम ने यहां वकालत का काम आरम्भ करने के साथ ही आर्य समाज का काम भी शुरू किया। आगे जा कर लाला जी इस इलाके के प्रचार-कार्य के और विशेषकर अछूतोद्धार के नेता बने। 4 नवम्बर सन् 1933 को उनका देहांत हो गया।
सन 1901 में सियालकोट में एक बाद विवाद सभा खोली गई। जिसके पहले सप्ताह में एक बार और बाद में सप्ताह में दो बार अधिवेशन होते थे। सियालकोट में मेघ प्राचीन सघन रूप से बसे हुए थे। यह मद्र देश की राजधानी रही है और महाराजा मिनांदर की भी राजधानी थी। यहां के मेघ उन्हीं प्राचीन मद्रों के वंशधर माने जाते है। जब सियालकोट में आर्य समाज की गतिविधियां प्रारंभ हुई तो यहां के मेघ लोग भी इसमें शरीक होने लगे। आर्य समाज के इतिहास से ज्ञात होता है कि सन 1901 में पहली बार मेघों ने आर्य समाज में आना प्रारम्भ किया। उस समय इन मेघों का हिन्दुओं के साथ मिल बैठ कर एक स्थान पर सन्ध्या हवन आदि में सम्मिलित होना आश्चर्य-जनक था। आर्य समाज ने विरोध की परवाह न करते हुए इन मेघों को शुद्ध करने का विचार किया।
सन 1903 के आरम्भ में सियालकोट के आर्य समाज के संचालकों ने मेघों की शुद्धि का संकल्प पक्का कर लिया। सियालकोट आर्य समाज की जान ला. गंगाराम, बी. ए., एल. एल. बी. थे। ये वकालत करते थे। आर्य समाज के उपप्रधान ला. खुशाल चन्द इस आन्दोलन के अग्रणी थे। आर्य समाज ने 14 मार्च 1903 को अपनी अन्तरंग सभा में यह निश्चय किया कि 28 मार्च को वार्षिक उत्सव के समय मेघों की शुद्धि का कार्य आरम्भ हो जाना चाहिए। इस विचार से मुसलमानों सहित हिंदुओं ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया। आर्य समाज ने विरोध की परवाह न करते हुए इन मेघों को शुद्ध करने का विचार किया। 1903 में आर्य समाज के वार्षिकोत्सव पर प.राम भज्ज दत्त वकील (लाहौर) की अध्यक्षता में श्री स्वामी सत्यानन्द जी के कर-कमलों द्वारा मेघ बिरादरी के चौधरियों को इकट्टा करके इनकी शुद्धि (conversion ) करवाई गई। सैकड़ों नर-नारी इस शुद्धि में शामिल हुए।
आर्य समाज के विवरण के अनुसार इसका हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों ने बहुत विरोध किया, परंतु 28 मार्च 1903 को शुद्धि (conversion) का कार्यक्रम हुआ और उसमें 200 मेघों का शुद्धिकरण (conversion ) किया गया। इस प्रकार से सियालकोट में मेघों का सामूहिक रूप से प्रथम बार आर्य समाज में प्रवेश हुआ या यों कहिए कि पंजाब के सियालकोट में उनका सामूहिक रूप से पहला कन्वर्जन हुआ। यह उनके कन्वर्जन की शुरुआत मानी जाती है।
इस अवसर पर लाला गणेशदास ने "मेघ और उनका शुद्धि" नाम की पुस्तिका प्रकाशित की और "मेघ जाति" को "ब्राह्मण" जाहिर करके उन के पतन के कारण लिखे और उनकी शुद्धि को शास्त्रोक्त करार दिया। शुद्धि का यह काम बढ़ता ही गया। सियालकोट और गुरदासपुर आदि जगहों में कई नर-नारियों की शुद्धि की गई।
मेघों की यह शुद्धि (conversion) क्या हुई, उन्होंने साक्षात अत्याचार को निमंत्रण दे दिया। राजपूत लोग इस संस्कार के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने शुद्ध हुए मेघों को लाठियों से मारा। पुलिस ने भी मेघों का साथ नहीं दिया। पुलिस ने अभियोग चलाने से इनकार कर दिया। उल्टे मेघों पर झूठे मुकदमे चलाए गये। निचले न्यायालय से मेघों को दण्ड भी मिल गया। परन्तु मेघ इस अत्याचार से झुके नहीं। ऊपरी कोर्ट में अपील की गई और आगे जा कर न केवल मेघ छूट ही गये बल्कि उल्टा राजपूतों को सज़ाएँ मिलीं। सियालकोट के डिप्टी कमिश्नर मि. जे. एफ. कॉनली के हस्तक्षेप से मेघों के जीवन की रक्षा हो सकी। इससे आर्य समाज के शुद्धि का कार्य भी आसान हुआ और सियालकोट, गुजरात और गुरदासपुर में सन 1903 से 1914 के बीच 36000 मेघों का कन्वर्जन किया गया। सवाल यह उत्पन्न हुआ कि राजपूतों ने मेघों का विरोध क्यों किया? जो कारण उन्होंने बताया उनके कथनुसार वह यह था कि जहां पहले मेघ उन्हें "गरीब-नवाज" बुलाते थे, अब वे केवल "नमस्ते" कर मानो सामाजिक समानता के व्यवहार की मांग करते प्रतीत होते थे। इसलिए उनकी पिटाई की गई।
जम्मू के मेघों के बारे में बताते हुए मैने उल्लेख किया था कि जम्मू निवासी महंत रामदास मेघ से सौ रुपए का मुचलका इसलिए लिया गया कि वह 500 मेघों को सियालकोट आर्य समाज में ले गया था। जम्मू के ही आलोचक्क ग्राम के मेघों को मुसलमान ज़मीदारों ने अपनी ज़मीन में कुंआ खोदने से रोक दिया था। वे किसी कीमत पर भी यह आज्ञा देने को तैयार न थे। इसलिए जो मेघ शुद्ध हो कर *"आर्य भगत"* बन चुके थे, वे उस गांव को छोड़ कर अन्य गांव जा बसे थे।
मुअज्जम आबाद का नत्थू नाम का मेघ गेहूं की फ़सल काट रहा था। उसे प्यास लगी। आस-पास सब मुसलमान थे। वे उसे बिना छुए पानी नहीं पीने देते थे। हिंदुओं से भी उसे पानी प्राप्त नहीं हुआ। अन्त में उस ने एक कुएं में छलांग लगा दी।
पंजाब और जम्मू कश्मीर में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में मेघों की यह स्थिति थी। कमोबेश सारे भारत में, जहां जहां मेघ निवास करते थे, उनकी यही स्थिति थी। आप देखिए कि वे शुद्ध होकर हिंदुओं के धर्म में शामिल हो रहे थे, फिर भी हिंदुओं को मेघों की यह स्थिति स्वीकार नहीं थी। उनके साथ दिन ब दिन अत्याचार होने लगे। इन सब में मेघों का अपराध क्या था? वे शुद्ध होकर आर्य समाजी ही तो बन रहे थे, लेकिन हिंदुओं को तो मेघों की यह स्थिति भी स्वीकार नहीं थी। लेकिन आर्य समाज के इस शुद्धिकरण (conversion) से एक परिवर्तन हुआ, वह यह कि आर्य समाजियों ने इनके साथ खान-पान तथा संस्कारों और पर्वों के अवसर पर मिलने जुलने का बन्धन उड़ा दिया। *साथ ही इन का नाम "मेघ" के स्थान पर "आर्य भक्त" रख दिया। तब से मेघ "आर्य भगत" कहे जाने लगे।*
"नए शुद्ध हुए लोगों और प्रमुख उच्च जाति के बीच इस तरह के एक संघर्ष की कहानी आर्य शुद्धि अभियान द्वारा उत्तेजित अन्तरजाति प्रतिद्वंद्विता को दिखाती है। "सियालकोट तहसील के पट्नसेन गांव के मेघों को शुद्ध किया गया था। राजपूतों ने इसे बहुत ही बुरा समझा था। उन्होंने गरीब आर्य भगतों के घरों पर हमला किया। उन लोगों ने लाठियों लेकर मेघों को बुरी तरह पीटा। उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया और उन्हें चेतावनी देते हुए आदेश दिया कि या तो वे आर्य धर्म छोड़ दे या गांव को छोड़ दे। स्पष्ट रूप से, आर्य समाज ने हिंदू सामाजिक संस्करण में निचले पायदान पर रहे लोगो को ऊंचा उठाने का प्रयास किया था, जिससे परंपरा से चली आ रही पदानुक्रमित सामाजिक स्थिति को चुनौती के रूप में देखा गया।
शहरों में इस तरह के बदलाव का विरोध कम था, लेकिन गांवों में कट्टरपंथी लोगो ने आर्य समाज के इस जाति सुधार को सामाजिक व्यवस्था को गंभीर चुनौती माना। अस्तु जगह-जगह लड़ाई झगड़े और अत्याचार होने लगे। इसके बावजूद, आर्य समाज ने हजारो पूर्व की अछूत जातियों को समाज में लाना जारी रखा, जिससे इसकी सामाजिक रचना में बदलाव आया। शिक्षित अभिजात वर्ग, शहरी वैश्य और ब्राह्मणिक जातियां आंदोलन के भीतर अल्पसंख्यक बन गईं, फिर भी, चाहे-अनचाहे कम से कम कम से कम उन्होंने अपने नेतृत्व को बनाए रखा। 1905 के बाद के वर्षों में, हिंदू नेताओं ने सांप्रदायिक हितों की सुरक्षा, शक्ति और एकजुटता को बनाए रखने में शुद्धिकरण को एक प्रमुख हथियार के रूप में महसूस किया, इसलिए यह आंदोलन उनकी जरूरतों की पूर्ति हेतु और राजनीतिक अधिकारों और विशेषाधिकारों के लिए शुरू किया गया था। ईसाई और मुसलमान आबादी की तुलना में हिंदुओं की संख्यात्मक शक्ति की प्रगतिशील गिरावट के बारे में उनके बढ़ते ज्ञान, ईसाई धर्म या मुस्लिम धर्म में हो रहे धर्मांतरण आदि ऐसे कारक थे, जिससे अभिप्रेरित यह शुद्धि कार्यक्रम गतिशील बना रहा। सन 1900-1903 के 'रहतिया' 'ओड' और 'मेघों' की शुद्धि इसके सफल उदाहरण थे, जो उनके अस्तित्व के लिए प्रासंगिकता प्रदान कर रहे थे।
*मेघ उद्धार सभा :* अछूतोद्धार के काम को आगे बढ़ाने के लिए 1910 में आर्य समाज में एक "आर्य मेघद्धार सभा" बनाइ गई। राय ठाकुर दत्त धवन इसके प्रधान तथा लाला गंगाराम मंत्री बनाये गए। आर्य मेघ उद्धार सभा का प्रमुख कार्य पाठशालाओं का प्रबंध करना और शुद्धि करना और मेघों के बुनाई के पुश्तैनी धंधे को प्रोत्साहन देने के लिए कताई, बुनाई, सिलाई और बढ़ाई का प्रशिक्षण देना आदि था। आर्य मेघ उद्धार सभा द्वारा सन 1912 में संस्थापित आर्य हाईस्कूल के भवन की आधारशिला लेफ्टीनेंट कर्नल यंग ने रखी, जो उस समय सियालकोट में डिप्टी कमिश्नर थे। मेघों की भलाई के लिए सन 1912 में सियालकोट में "आर्य मेघ उद्धार सभा" का पंजीकरण करवाया गया। हालांकि इस संस्था में प्रधानता सियालकोट की थी, परंतु पंजाब के और जम्मू कश्मीर के अन्य भागों के सदस्य भी इसमें रखे गए। इस संस्था का सोसायटी पंजीकरण एक्ट 1862 के एक्ट के तहत पंजीकरण भी कराया गया। इसके तहत पंजाब और जम्मू कश्मीर में मेघों के शुद्धिकरण का कार्य आगे बढ़ा। इस संस्था ने पंजाब और जम्मू कश्मीर के कई जगहों पर मेघों के उत्थान के लिए अनेक कार्य भी किए। यह मेघों की एक प्रमुख संस्था के रूप में उभरी।
*सियालकोट आर्य हाई स्कूल :* शुद्धिकरण के समय सियालकोट के मेघों ने शिक्षा की शर्त रखी थी, अस्तु आर्य समाज द्वारा मेघों में शिक्षा और दस्तकारी के लिए स्कूल भी खोले गए। उसके साथ एक आश्रम भी खोल दिया गया। आश्रम में रहने वाले छात्रों को आटा अपने घरों ले लाना होता था। उनको शेष सब आवश्यकताएं समाज पूरी करता था। सन् 1904 में पहले-पहल मेघोद्धार सभा सियालकोट ने प्राइमरी इंडस्ट्रियल स्कूल खोला। इस स्कूल में मेघ बालकों को साधारण शिक्षा के साथ दर्जी और बढ़ई का भी काम सिखाया जाता था। सन 1919 में मेघ और उच्च जाति के बालकों में परस्पर मेल-जोल पैदा करने के लिए मिडिल की श्रेणियां भी खोल दी गई। सन 1920 में हाई क्लास भी खोल दी गई। उस समय स्कूल में 150 विद्यार्थी थे। सन 1932 में यह संख्या 532 हो गई। सन 1935 में 716 छात्र और 22 अध्यापक थे |
स्कूल के सब से पहले प्रबन्धक लाला गंगाराम थे। वे 1904 से 1933 तक बड़ी लग्न से स्कूल के प्रबन्ध का कार्य करते रहे। इस स्कूल से कई मेघ बालक एंट्रेंस पास करके इज्ज़त की रोटी कमाने लगे। स्कूल के दो मेघ बालकों ने वकालत पास की।
इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्र में 7 और प्राथमिक स्कूल खोले गए। वहां पर मेघों के साथ अन्य दलित जातियों के छात्रों को भी प्रवेश मिलता था। गुजरांवाला गुरुकुल ने दो मेघ विद्यार्थी निःशुल्क भर्ती किये। कुछेक विद्यार्थियों को अन्य स्कूलों में रियायत पर प्रविष्ट कराया गया। इस प्रकार उन बालकों की अस्पृश्यता भी क्रियात्मक रूप से हट गई, उनमें शिक्षा का उजाला हुआ और उनकी आर्थिक तथा सामाजिक उन्नति का प्रबन्ध भी हुआ। सियालकोट शहर में पढ़ाई के अतिरिक्त दर्जी और तरखान का श्रेणियां खोल दी गाय।
*फलतः* मेघों में शिक्षा का प्रसार हुआ। भक्त पूर्ण के सुपुत्र म. रामचंद्र मेघ जाति में से पहले स्नातक हुए, जिनको सियालकोट समाज ने गुरुकुल में शिक्षा दिलवाई थी।
*चौधरी सभाओं की स्थापना :* मेघों के रहन-सहन में सुधार करने के लिए चौधरी सभाओं की स्थापना हुई। इन सभाओं के मुख्य चौधरियों की एक *"मुख्य सभा"* बना दी गई, जो मेघों के अभियोगों का निर्णय करती थी। स्वयं मेघों को ही अपने 15 प्रतिनिधि "मेघोद्धार सभा" में भेजने का अधिकार दिया गया। यह संस्था मेघों की एक सांगठनिक संस्था के रूप में उभरी। मेघों के रहन-सहन के लिए *"आर्य-नगर"* की स्थापना हुई। बारी-दोआब नहर पर उन्हें भूमि भी आवंटित की गई। सरकार ने 30000 एकड़ जमीन अछूत जातियों के लिए सुरक्षित कर दी। इस ज़मीन में से 5500 एकड़ भूमि 1917 में ईसाई सोसाइटियों को दे दी गई। 2000 एकड़ के अस्सी मुरब्बे मुक्ति फौज को मिले। इन मुरब्बों पर उस ने शान्ति-नगर नाम की बस्ती बसा ली। इन संस्थाओं की देखा-देखी "आर्य मेघोद्धार सभा" ने भी सरकार से प्रार्थना की और उसे 89 मुरब्बे मिलने स्वीकार हो गये परन्तु अन्त में मिले 52 मुरब्बे। यह भूमि खानेवाल स्टेशन के पास है। इस पर "आर्य नगर" बसाने की आयोजना हुई। पहिले तो "आर्य भक्त" अपने घरों से इतनी दूर जाने को ही तैयार ही नहीं होते थे, परन्तु धीरे-धीरे उन्हें वहां बसाया गया। उन की मानसिक तथा धार्मिक उन्नति के लिए आर्य समाज द्वारा पाठशाला, कन्या-पाठशाला आदि संस्थाएं स्थापित की गई। एक चिकित्सालय खोल दिया गया। वृक्ष बोए गये। वाटिकाएं लगाई गई। बकौलियों के मुनाफे की बचत के लिए सहकारी भण्डार (Co-operative Stores) खोले गये। खाद आदि पर निरीक्षण रखने का प्रबन्ध किया गया। इससे मेघों के जीवन का मानसिक, सामाजिक, शारीरिक तथा आर्थिक, सभी दृष्टि से आश्चर्यजनक विकास हुआ। आर्य नगर एक आदर्श बस्ती के रूप में उभरी।
सियालकोट के मेघों के रास्ते में सामाजिक कठिनाइयां कम हुई। कई युवक उच्च शिक्षा प्राप्त कर उच्च जातियों के युवकों के साथ खुली प्रतिस्पर्धा में शामिल हो सके। मेघों के अतिरिक्त डूमों और बटवालों की भी शुद्धि हुई है। इस उद्योग के परिणाम-स्वरूप एक जाति की जाति अपने में एक विचित्र परिवर्तन पाई। सियालकोट में तीस सालों में ही इस जाति की काया-पलट-सी हो गई। मेघों ने यह साबित कर दिया कि अवसर मिलने पर वे किसी से कम नहीं रह सकते है।
इस सुधार का सामान्य श्रेय आर्य समाज को है और विशेष रूप से लाला गंगाराम को, जिन्होंने अपना जीवन मेघों के जीवन के साथ एकीभूत कर लिया था। लाला जी पहिले तो सियालकोट समाज के और फिर आर्य मेघोद्धार सभा के मंत्रीपद् को सुशोभित करते रहे। इस हैसियत से उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण में वह काम किया कि अब तक उन का नाम मेघोद्धार का पर्याय समझा जाता है। मेघ चौधरियों की मुख्य सभा के पहिले प्रधान आप ही बने। अन्य नेताओं द्वारा अस्पृश्यता-निवारण हेतु किये गये कार्य उनके कार्यों का एक अंश है, परन्तु लाला गंगाराम का यह एकमात्र जीवन-कार्य है। इसलिए उसकी सफलता भी अधिक विशाल है।
गुरुकुल
मुल्तान के दो वर्ष बाद गुरुकुल की दूसरी शाखा कुरुक्षेत्र में खुली।सन् 1911 में थानेसर के समीप महाभारत काल की प्रसिद्ध युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में गुरुकुल की स्थापना की गई। सन् 1913 में देहली के सुप्रसिद्ध सेठ रघूमल जी ने एक लाख रुपया इस निमित्त दिया कि इससे देहली के समीप एक गुरुकुल की एक शाखा खोली जाय। इस के फ़लस्वरूप देहली से 10 मील की दूरी पर गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हुई।
*पानी के लिए संघर्ष :*
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में दलित जातियों को एक कष्ट पानी का था। उच्च जाति के लोग उन्हें अपने कुओं से पानी नहीं भरने देते थे। दलित जातियों के ये कष्ट सब जगह व्याप्त थे। कहीं-कहीं स्थानीय रूप में इनकी कठोरता की मात्रा तथा स्वरूप भिन्न थे। इस कष्ट निवारण में दलितोद्धार सभा ने बहुत से स्थानों पर आंदोलन कर उन्हें उन्हीं पुराने कुओं पर चढ़ा दिया और कुओं का प्रयोग दलित करने लगे। जहां ऐसा करना असंभव प्रतीत हुआ, वहां उन्हें नया कुआं बनवा दिया। कुओं पर चढ़ जाने में कई स्थानों पर कठिनता का सामना करना पड़ा, इसके कुछ उदाहरण निम्न है:
जगाधरी में प्याऊ वाले की छूआछात के कारण कुछ "अस्पृश्य" लोग मुसलमान हो गये। वे कलमा पढ़ते ही फिर उसी प्याऊ पर गये और उन्हें निस्संकोच पानी पिला दिया गया। इस पर शेष अछूत भी मुसलमान होने को तैयार हो गए। आर्य समाज के उपदेशकों के समझाने पर हिन्दुओं ने छुआछूत हटा दी और उन्हें पानी भरने का समानता का अधिकार प्राप्त हुआ।
बजवात में कुएं से पानी भर रहे आर्य कार्यकर्ताओं को दो बार लाठी से पीट कर घायल कर दिया गया।
आर्यों की इस सहिष्णुता का परिणाम यह हुआ कि उस सारे इलाके में कुआं की बाधा अपने आप हट गई। आर्य समाज के कल्याण की कान्फ्रेंस में स्वयं राजपूतों ने ही अपने कुएं दलितों के लिए खोल दिए। कुराली (ज़िला अंबाला) में 6 महीने अभियोग चलता रहा। अभियुक्तों में सभा के मंत्री पं. ज्ञानचन्द्र भी था। अन्त में कुओं के प्रयोग का अधिकार अपने आप स्वीकार कर लिया गया। स्वयं हाईकोर्ट दलित जातियों के इस अधिकार को सारे प्रान्त के लिए स्वीकार कर चुकी है।
चंबा रियासत में हाली नाम की जाति बसती हैं। उसे राज नियमानुसार लाश उठाने, पशुओं की खाल उतारने तथा ढोल पीटने पर बाधित किया जाता था। सन 1933 में उन्हें नाग देवता के आगे बकरे की बलि देने पर मजबूर किया गया। इस आज्ञा के विरुद्ध प्रतिवाद के रूप में आर्य कार्यकर्ता म. रामशरण ने रियासत की सेवा छोड़ दी। ये महाशय वहीं रह कर अपने उद्देश्य की पूर्ति में लगे रहे। सभा की ओर से वहां एक बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ और राज्य का ध्यान इन अत्याचारों की ओर खींचा गया।
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*लाश को जलाने की मनाही:*
" दौलत नगर (गुजरात) :" सन् 1910 में गुलाबू नामक मेघ की शुद्धि की गई। उसकी मृत्यु हो जाने पर सनातनियों ने उस की लाश को श्मशान भूमि में जलाने से रोका। जिस पर आर्य वीरों ने भय-रहित हो कर उस का श्मशान भूमि में दाह संस्कार किया और सनातनी देखते रह गए। आर्यों का बायकाट हो जाने पर भी वे अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। सन् 1913 में सनातनियों के साथ एक बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ। आर्य समाज की ओर से प.चाननराम तथा प. राजाराम थे।
*दशहरा भोजन :* धर्मकोट रन्धावा (गुरदासपुर): गुरदासपुर के धर्म कोट रंधावा में सन 1914 में दशहरे के दिनों में म. लभ्भू राम मेघ यहां मेला देखने आया। म. पूर्णं चन्द ने उसे अपने यहां चौके मै बिठा कर भोजन कराया। बिरादरी ने निश्चय किया कि महाशय जी के साथ म. काशीराम और ला० हज़ारी मल का बायकाट कर दिया जाय और इन्हे कुआं से पानी न लेने दिया जाय। इन्हें क्षमा मांगने के लिये कहा गया, परन्तु ये दृढ़ रहे। म. पूरण चन्द का इस इलाके में लेन-देन था, बड़ा विरोध किया गया। इनका पानी तक बंद किया जाने लगा परन्तु इनके छोटे भाई अनन्त राम ने बाज़ार में विरोधियों को ललकार कर उनका मुंह बन्द कर दिया और पानी घर में ले आया।
आर्य प्रतिनिधि सभा का कार्यालय लाहौर से जालंधर स्थानांतरित किया गया।
Reference:
1. Punjab past and present , vol. 21 part 1, April 1937
2. Jones, Kenneth W. : Arya dharm : Hindu consciousness in 19th-century Punjab