पंजाब के मेघ

Friday, April 18, 2025

 पंजाब के मेघ :

                            मेघों की स्थिति :   मेघों के उद्धार ने एक व्यापक तथा स्थायी आन्दोल ਇਸन का रूप धारण कर एक पृथक्‌ विशाल संस्था को जन्म दिया । मेघ नाम की अस्पृश्य जाति सियालकोट, गुरुदासपुर तथा गुजरात के ज़िलो और काश्मीर तथा जम्मू की रियासत मे रहती थी । 1911 की जन-गणना में इस जाति की संख्या 115429 और 1921 की जन-गणना में लगभग तीन लाख बताई गई हैं।  सन 1911 की जनगणना में पंजाब में आर्य समाजियों में मेघों की जनसंख्या सर्वाधिक थी।  दलित जातियों के हाथ का हिंदू खाते-पीते नहीं थे, न उन्हें अपने मन्दिरों में आने और न अपनी दरियो पर बैठने ही देते थे। यही स्थिति मेघों की थी, वे हिन्दुओं के कुओं से पानी लेना चाहे तो उन्हे किसी दयालु की कृपा की प्रतीक्षा करनी होती थी। कोई दयालु द्विज पानी भर कर उन के पात्र में डाल दे तो डाल दे। एक मेघ का बर्तन हिन्दुओं के कुएं में नहीं जा सकता था। उन के सिर पर चोटी थी, व गो-ब्राह्मण की पूजा करते थे, तीर्थों को जाते और अपने शव जलाते थे। उन के गोत्र भी वही थे, जो अन्य हिन्दुओं के। वे जुलाहे का धंधा करते थे, जिस में अपवित्रता का लेश भी नहीं था। फिर भी वे अस्पृश्य थे।" पृष्ठ 215-216 आर्य समाज के शुद्धि अभियान से सियालकोट,गुजरात और गुरदासपुर में मेघों की स्थिति में सुधार 

                             *मेघों की अस्पृश्यता का कारण :*  मेघों की अस्पृश्यता के कारण का अनुमान कई प्रकार से किया गया है। पंजाब के इतिहास में मेघों के साथ की जा रही अस्पृश्यता के तीन प्रमुख कारण बताए गए है। 1901 की जन-संख्या के वृत्तान्त में लिखा है कि मेघ सांसियों, चुहड़ों, चमारों-अर्थात्‌ अन्य अस्पृश्य जातियो के संस्कारों में ब्राह्मण का कार्य करते हैं। सम्भव है, अस्पृश्यों के पुरोहित होने के कारण वे स्वयं भी आगे चल कर अस्पृश्य समझे गये हो। एक और अनुमान यह किया गया है कि जुलाहे का धंधा करते हुए वे कबीर पन्थी हो गये और क्योंकि कबीर मुसलमान समझे जाते थे, सम्भव हैं कि हिन्दुओं ने उनके अनुयायियों को भी अपने से पृथक कर दिया हो। मेघों के बहिष्कार का तीसरा आनुमानिक कारण राजनैतिक है। कहा जाता है कि अली कुली खाँ कशमीर-नरेश भारद्वाज का शत्रु था।  उस ने एक मेघ पण्डित को जो राजा का ज्योतिषी था, राज-द्रोह करने की प्रेरणा की। मेघ नहीं माना। उसने तो लड़ाई का मुहूर्त शुभ बताया, परन्तु फिर भी राजा पराजित हुआ। अब शासन की बाग-डोर अली कुली खाँ के हाथ में आ गई और उस की आज्ञा से ज्योतिषी को सम्पूर्ण जाति को राज-भक्ति के फल स्वरूप इस प्रकार पतित कर दिया गया।

                                अस्पृश्यता का कारण कुछ हो, एक जाति की जाति शताब्दियों से धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक-सभी प्रकार के अधिकारों से वंचित चली आती थी और तो और, मेघ हिन्दुओं के घरों की सेवा भी नहीं कर सकते थे। उन के स्पर्श-मात्र में अपवित्रता समझी जाती थी।

                               *सियालकोट के मेघ और आर्य समाज :* सियालकोट के गजेटियर में बताया गया है कि सन्‌ 1884 में आर्यं समाज लाहौर से लाला दिलबाग राय अपने एक और साथी के साथ सियालकोट आए और स्वामी दयानंद सरस्वती के आर्य समाज का प्रचार करना प्रारंभ किया। इस प्रचार के प्रभाव स्वरूप लाला लभ्भा मल वकील तथा ला० भीमसेन वकील ने यहां आर्य समाज की स्थापना कर दी। सन 1886 में आर्य समाज का दूसरा वार्षिक उत्सव हुआ। इसमें लेखराम पधारे। एक प्रीति भोजन का आयोजन भी हुआ। साप्ताहिक सत्संग होने लगे। 1889 में समाज मन्दिर का निर्माण हुआ। 1896 में ला० गंगाराम ने यहां वकालत का काम आरम्भ करने के साथ ही आर्य समाज का काम भी शुरू किया। आगे जा कर लाला जी इस इलाके के प्रचार-कार्य के और विशेषकर अछूतोद्धार के नेता बने। 4 नवम्बर सन्‌ 1933 को उनका देहांत हो गया।

                                सन 1901 में सियालकोट में एक बाद विवाद सभा खोली गई। जिसके पहले सप्ताह में एक बार और बाद में सप्ताह में दो बार अधिवेशन होते थे। सियालकोट में मेघ प्राचीन सघन रूप से बसे हुए थे। यह मद्र देश की राजधानी रही है और महाराजा मिनांदर की भी राजधानी थी। यहां के मेघ उन्हीं प्राचीन मद्रों के वंशधर माने जाते है। जब सियालकोट में आर्य समाज की गतिविधियां प्रारंभ हुई तो यहां के मेघ लोग भी इसमें शरीक होने लगे। आर्य समाज के इतिहास से ज्ञात होता है कि सन 1901 में पहली बार मेघों ने आर्य समाज में आना प्रारम्भ किया। उस समय इन मेघों का हिन्दुओं के साथ मिल बैठ कर एक स्थान पर सन्ध्या हवन आदि में सम्मिलित होना आश्चर्य-जनक था। आर्य समाज ने विरोध की परवाह न करते हुए इन मेघों को शुद्ध करने का विचार किया।

                                 सन 1903 के आरम्भ में सियालकोट के आर्य समाज के संचालकों ने मेघों की शुद्धि का संकल्प पक्का कर लिया। सियालकोट आर्य समाज की जान ला. गंगाराम, बी. ए., एल. एल. बी. थे। ये वकालत करते थे। आर्य समाज के उपप्रधान ला. खुशाल चन्द इस आन्दोलन के अग्रणी थे। आर्य समाज ने 14 मार्च 1903 को अपनी अन्तरंग सभा में यह निश्चय किया कि 28 मार्च को वार्षिक उत्सव के समय मेघों की शुद्धि का कार्य आरम्भ हो जाना चाहिए। इस विचार से मुसलमानों सहित हिंदुओं ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया। आर्य समाज ने विरोध की परवाह न करते हुए इन मेघों को शुद्ध करने का विचार किया। 1903 में आर्य समाज के वार्षिकोत्सव पर प.राम भज्ज दत्त वकील (लाहौर) की अध्यक्षता में श्री स्वामी सत्यानन्द जी के कर-कमलों द्वारा मेघ बिरादरी के चौधरियों को  इकट्टा करके इनकी शुद्धि (conversion ) करवाई गई। सैकड़ों नर-नारी इस शुद्धि में शामिल हुए।

                                 आर्य समाज के विवरण के अनुसार इसका हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों ने बहुत विरोध किया, परंतु 28 मार्च 1903 को शुद्धि (conversion) का कार्यक्रम हुआ और उसमें 200 मेघों का शुद्धिकरण (conversion ) किया गया। इस प्रकार से सियालकोट में मेघों का सामूहिक रूप से प्रथम बार आर्य समाज में प्रवेश हुआ या यों कहिए कि पंजाब के सियालकोट में उनका सामूहिक रूप से पहला कन्वर्जन हुआ। यह उनके कन्वर्जन की शुरुआत मानी जाती है।

                                इस अवसर पर लाला गणेशदास ने "मेघ और उनका शुद्धि" नाम की पुस्तिका प्रकाशित की और "मेघ जाति" को "ब्राह्मण" जाहिर करके उन के पतन के कारण लिखे और उनकी शुद्धि को शास्त्रोक्त करार दिया। शुद्धि का यह काम बढ़ता ही गया। सियालकोट और गुरदासपुर आदि जगहों में कई नर-नारियों की शुद्धि की गई।

                                मेघों की यह शुद्धि (conversion) क्या हुई, उन्होंने  साक्षात अत्याचार को निमंत्रण दे दिया। राजपूत लोग इस संस्कार के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने शुद्ध हुए मेघों को लाठियों से मारा। पुलिस ने भी मेघों का साथ नहीं दिया। पुलिस ने अभियोग चलाने से इनकार कर दिया। उल्टे मेघों पर झूठे मुकदमे चलाए गये। निचले न्यायालय से मेघों को दण्ड भी मिल गया। परन्तु मेघ इस अत्याचार से झुके नहीं। ऊपरी कोर्ट में अपील की गई और आगे जा कर न केवल मेघ छूट ही गये बल्कि उल्टा राजपूतों को सज़ाएँ मिलीं। सियालकोट के डिप्टी कमिश्नर मि. जे. एफ. कॉनली के हस्तक्षेप से मेघों के जीवन की रक्षा हो सकी। इससे आर्य समाज के शुद्धि का कार्य भी आसान हुआ और सियालकोट, गुजरात और गुरदासपुर में सन 1903 से 1914 के बीच 36000 मेघों का कन्वर्जन किया गया। सवाल यह उत्पन्न हुआ कि राजपूतों ने मेघों का विरोध क्यों किया? जो कारण उन्होंने बताया उनके कथनुसार वह यह था कि जहां पहले मेघ उन्हें "गरीब-नवाज" बुलाते थे, अब वे केवल "नमस्ते" कर मानो सामाजिक समानता के व्यवहार की मांग करते प्रतीत होते थे। इसलिए उनकी पिटाई की गई।

                                जम्मू के मेघों के बारे में बताते हुए मैने उल्लेख किया था कि जम्मू निवासी महंत रामदास मेघ से सौ रुपए का मुचलका इसलिए लिया गया कि वह 500 मेघों को सियालकोट आर्य समाज में ले गया था। जम्मू के ही आलोचक्क ग्राम के मेघों को मुसलमान ज़मीदारों ने अपनी ज़मीन में कुंआ खोदने से रोक दिया था। वे किसी कीमत पर भी यह आज्ञा देने को तैयार न थे। इसलिए जो मेघ शुद्ध हो कर *"आर्य भगत"* बन चुके थे, वे उस गांव को छोड़ कर अन्य गांव जा बसे थे।

                                मुअज्जम आबाद का नत्थू नाम का मेघ गेहूं की फ़सल काट रहा था। उसे प्यास लगी। आस-पास सब मुसलमान थे। वे उसे बिना छुए पानी नहीं पीने देते थे। हिंदुओं से भी उसे पानी प्राप्त नहीं हुआ। अन्त में उस ने एक कुएं में छलांग लगा दी।

                              पंजाब और जम्मू कश्मीर में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में मेघों की यह स्थिति थी। कमोबेश सारे भारत में, जहां जहां मेघ निवास करते थे, उनकी यही स्थिति थी। आप देखिए कि वे शुद्ध होकर हिंदुओं के धर्म में शामिल हो रहे थे, फिर भी हिंदुओं को मेघों की यह स्थिति स्वीकार नहीं थी। उनके साथ दिन ब दिन अत्याचार होने लगे। इन सब में मेघों का अपराध क्या था?  वे  शुद्ध होकर आर्य समाजी ही तो बन रहे थे, लेकिन हिंदुओं को तो मेघों की यह स्थिति भी स्वीकार नहीं थी। लेकिन आर्य समाज के इस शुद्धिकरण (conversion) से एक परिवर्तन हुआ, वह यह कि आर्य समाजियों ने  इनके साथ खान-पान तथा संस्कारों और पर्वों के अवसर पर मिलने जुलने का  बन्धन उड़ा दिया। *साथ ही इन का नाम "मेघ" के स्थान पर "आर्य भक्त"  रख दिया। तब से मेघ "आर्य भगत" कहे जाने लगे।* 

                                "नए शुद्ध हुए लोगों और प्रमुख उच्च जाति के बीच इस तरह के एक संघर्ष की कहानी आर्य शुद्धि अभियान द्वारा उत्तेजित अन्तरजाति प्रतिद्वंद्विता को दिखाती है। "सियालकोट तहसील के  पट्नसेन गांव के मेघों को शुद्ध किया गया था। राजपूतों ने इसे बहुत ही बुरा समझा था। उन्होंने गरीब आर्य भगतों के घरों पर हमला किया। उन लोगों ने लाठियों लेकर मेघों को बुरी तरह पीटा। उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया और उन्हें चेतावनी देते हुए आदेश दिया कि या तो वे आर्य धर्म छोड़ दे या गांव को छोड़ दे। स्पष्ट रूप से, आर्य समाज ने हिंदू सामाजिक संस्करण में निचले पायदान पर रहे लोगो को ऊंचा उठाने का प्रयास किया था, जिससे परंपरा से चली आ रही पदानुक्रमित सामाजिक स्थिति को चुनौती के रूप में देखा गया। 

                                शहरों में इस तरह के बदलाव का विरोध कम था, लेकिन गांवों में कट्टरपंथी लोगो ने आर्य समाज के इस जाति सुधार को सामाजिक व्यवस्था को गंभीर चुनौती माना। अस्तु जगह-जगह लड़ाई झगड़े और अत्याचार होने लगे। इसके बावजूद, आर्य समाज ने हजारो पूर्व की अछूत जातियों को समाज में लाना जारी रखा, जिससे इसकी सामाजिक रचना में बदलाव आया। शिक्षित अभिजात वर्ग, शहरी वैश्य और ब्राह्मणिक जातियां आंदोलन के भीतर अल्पसंख्यक बन गईं, फिर भी, चाहे-अनचाहे  कम से कम कम से कम उन्होंने अपने नेतृत्व को बनाए रखा। 1905 के बाद के वर्षों में, हिंदू नेताओं ने सांप्रदायिक हितों की सुरक्षा, शक्ति और एकजुटता को बनाए रखने में शुद्धिकरण को एक प्रमुख हथियार के रूप में  महसूस किया, इसलिए यह आंदोलन उनकी जरूरतों की पूर्ति हेतु और राजनीतिक अधिकारों और विशेषाधिकारों के लिए शुरू किया गया था। ईसाई और मुसलमान आबादी की तुलना में हिंदुओं की संख्यात्मक शक्ति की प्रगतिशील गिरावट के बारे में उनके बढ़ते ज्ञान,  ईसाई धर्म या मुस्लिम धर्म में हो रहे धर्मांतरण आदि ऐसे कारक थे, जिससे अभिप्रेरित यह शुद्धि कार्यक्रम गतिशील बना रहा। सन 1900-1903 के 'रहतिया' 'ओड' और 'मेघों' की शुद्धि इसके सफल उदाहरण थे, जो उनके अस्तित्व के लिए प्रासंगिकता प्रदान कर रहे थे।

                             *मेघ उद्धार सभा :*  अछूतोद्धार के काम को आगे बढ़ाने के लिए 1910 में आर्य समाज में एक "आर्य मेघद्धार सभा" बनाइ गई। राय ठाकुर दत्त धवन इसके प्रधान तथा लाला गंगाराम मंत्री बनाये गए। आर्य मेघ उद्धार सभा का प्रमुख कार्य पाठशालाओं का प्रबंध करना और शुद्धि करना और मेघों के बुनाई के पुश्तैनी धंधे को प्रोत्साहन देने के लिए कताई, बुनाई, सिलाई और बढ़ाई का प्रशिक्षण देना आदि था। आर्य मेघ उद्धार सभा द्वारा सन 1912 में संस्थापित आर्य हाईस्कूल के भवन की आधारशिला लेफ्टीनेंट कर्नल यंग ने रखी, जो उस समय सियालकोट में डिप्टी कमिश्नर थे। मेघों की भलाई के लिए सन 1912 में सियालकोट में "आर्य मेघ उद्धार सभा" का पंजीकरण करवाया गया। हालांकि इस संस्था में प्रधानता सियालकोट की थी, परंतु पंजाब के और जम्मू कश्मीर के अन्य भागों के सदस्य भी इसमें रखे गए। इस संस्था का सोसायटी पंजीकरण एक्ट 1862 के एक्ट के तहत पंजीकरण भी कराया गया। इसके तहत पंजाब और जम्मू कश्मीर में मेघों के शुद्धिकरण का कार्य आगे बढ़ा। इस संस्था ने पंजाब और जम्मू कश्मीर के कई जगहों पर मेघों के उत्थान के लिए अनेक कार्य भी किए। यह मेघों की एक प्रमुख संस्था के रूप में उभरी।

                               *सियालकोट आर्य हाई स्कूल :*   शुद्धिकरण के समय सियालकोट के मेघों ने शिक्षा की शर्त रखी थी, अस्तु आर्य समाज द्वारा मेघों में शिक्षा और दस्तकारी के लिए स्कूल भी खोले गए। उसके साथ एक आश्रम भी खोल दिया गया। आश्रम में रहने वाले छात्रों को आटा अपने घरों ले लाना होता था। उनको शेष सब आवश्यकताएं समाज पूरी करता था। सन्‌ 1904 में पहले-पहल मेघोद्धार सभा सियालकोट ने प्राइमरी इंडस्ट्रियल स्कूल खोला। इस स्कूल में मेघ बालकों को साधारण शिक्षा के साथ दर्जी और बढ़ई का भी काम सिखाया जाता था। सन 1919 में मेघ और उच्च जाति के बालकों में परस्पर मेल-जोल पैदा करने के लिए मिडिल की श्रेणियां भी खोल दी गई। सन 1920 में हाई क्लास भी खोल दी गई। उस समय स्कूल में 150 विद्यार्थी थे। सन 1932 में यह संख्या 532 हो गई। सन 1935 में 716 छात्र और 22 अध्यापक थे |

        स्कूल के सब से पहले प्रबन्धक लाला गंगाराम थे। वे 1904 से 1933 तक बड़ी लग्न से स्कूल के प्रबन्ध का कार्य करते रहे। इस स्कूल से कई मेघ बालक एंट्रेंस पास करके इज्ज़त की रोटी कमाने लगे। स्कूल के दो मेघ बालकों ने वकालत पास की।

                                इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्र में 7 और प्राथमिक स्कूल खोले गए। वहां पर मेघों के साथ अन्य दलित जातियों के छात्रों को भी प्रवेश मिलता था। गुजरांवाला गुरुकुल ने दो मेघ विद्यार्थी निःशुल्क भर्ती किये। कुछेक विद्यार्थियों को अन्य स्कूलों में रियायत पर प्रविष्ट कराया गया। इस प्रकार उन बालकों की अस्पृश्यता भी क्रियात्मक रूप से हट गई, उनमें शिक्षा का उजाला हुआ और उनकी आर्थिक तथा सामाजिक उन्नति का प्रबन्ध भी हुआ। सियालकोट शहर में पढ़ाई के अतिरिक्त दर्जी और तरखान का श्रेणियां खोल दी गाय। 

            *फलतः* मेघों में शिक्षा का प्रसार हुआ। भक्त पूर्ण के सुपुत्र म. रामचंद्र मेघ जाति में से पहले स्नातक हुए, जिनको सियालकोट समाज ने गुरुकुल में शिक्षा दिलवाई थी।                               

         *चौधरी सभाओं की स्थापना :* मेघों के रहन-सहन में सुधार करने के लिए चौधरी सभाओं की स्थापना हुई। इन सभाओं के मुख्य चौधरियों की एक *"मुख्य सभा"* बना दी गई, जो मेघों के अभियोगों का निर्णय करती थी। स्वयं मेघों को ही अपने 15 प्रतिनिधि "मेघोद्धार सभा" में भेजने का अधिकार दिया गया। यह संस्था मेघों की एक सांगठनिक संस्था के रूप में उभरी। मेघों के रहन-सहन के लिए *"आर्य-नगर"* की स्थापना हुई। बारी-दोआब नहर  पर उन्हें भूमि भी आवंटित की गई। सरकार ने 30000 एकड़ जमीन अछूत जातियों के लिए सुरक्षित कर दी। इस ज़मीन में से 5500  एकड़ भूमि 1917 में ईसाई सोसाइटियों को दे दी गई। 2000 एकड़ के अस्सी मुरब्बे मुक्ति फौज को मिले। इन मुरब्बों पर उस ने शान्ति-नगर नाम की बस्ती बसा ली। इन संस्थाओं की देखा-देखी "आर्य मेघोद्धार सभा" ने भी सरकार से प्रार्थना की और  उसे 89 मुरब्बे मिलने स्वीकार हो गये परन्तु अन्त में मिले 52 मुरब्बे। यह भूमि खानेवाल स्टेशन के पास है। इस पर "आर्य नगर" बसाने की आयोजना हुई। पहिले तो "आर्य भक्त" अपने घरों से इतनी दूर जाने को ही तैयार ही नहीं होते थे, परन्तु धीरे-धीरे उन्हें वहां बसाया गया। उन की मानसिक तथा धार्मिक उन्नति के लिए आर्य समाज द्वारा पाठशाला, कन्या-पाठशाला आदि संस्थाएं स्थापित की गई। एक चिकित्सालय खोल दिया गया। वृक्ष बोए गये। वाटिकाएं लगाई गई। बकौलियों के मुनाफे की बचत के लिए सहकारी भण्डार (Co-operative Stores) खोले गये। खाद आदि पर निरीक्षण रखने का प्रबन्ध किया गया। इससे मेघों के जीवन का मानसिक, सामाजिक, शारीरिक तथा आर्थिक, सभी दृष्टि से आश्चर्यजनक विकास हुआ। आर्य नगर एक आदर्श बस्ती के रूप में उभरी।

                                सियालकोट के मेघों के रास्ते में सामाजिक कठिनाइयां कम हुई। कई युवक उच्च शिक्षा प्राप्त कर उच्च जातियों के युवकों के साथ खुली प्रतिस्पर्धा में शामिल हो सके। मेघों के अतिरिक्त डूमों और बटवालों की भी शुद्धि हुई है। इस उद्योग के परिणाम-स्वरूप एक जाति की जाति अपने में एक विचित्र परिवर्तन पाई। सियालकोट में तीस सालों में ही इस जाति की काया-पलट-सी हो गई। मेघों ने यह साबित कर दिया कि अवसर मिलने पर वे किसी से कम नहीं रह सकते है।

                                इस सुधार का सामान्य श्रेय आर्य समाज को है और विशेष रूप से लाला गंगाराम को,  जिन्होंने अपना जीवन मेघों के जीवन के साथ एकीभूत कर लिया था। लाला जी पहिले तो सियालकोट समाज के और फिर आर्य मेघोद्धार सभा के मंत्रीपद्‌ को सुशोभित करते रहे। इस हैसियत से उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण में वह काम किया कि अब तक उन का नाम मेघोद्धार का पर्याय समझा जाता है। मेघ चौधरियों की मुख्य सभा के पहिले प्रधान आप ही बने। अन्य नेताओं द्वारा अस्पृश्यता-निवारण हेतु किये गये कार्य उनके कार्यों का एक अंश है, परन्तु लाला गंगाराम का यह एकमात्र जीवन-कार्य है। इसलिए उसकी सफलता भी अधिक विशाल है। 

                                गुरुकुल

मुल्तान के दो वर्ष बाद गुरुकुल की दूसरी शाखा कुरुक्षेत्र में खुली।सन्‌ 1911 में थानेसर के समीप महाभारत काल की प्रसिद्ध युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में गुरुकुल की स्थापना की गई। सन्‌ 1913 में देहली के सुप्रसिद्ध सेठ रघूमल जी ने एक लाख रुपया इस निमित्त दिया कि इससे देहली के समीप एक गुरुकुल की एक शाखा खोली जाय। इस के फ़लस्वरूप देहली से 10 मील की दूरी पर गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हुई।


*पानी के लिए संघर्ष :*

                                बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में दलित जातियों को एक कष्ट पानी का था। उच्च जाति के लोग उन्हें अपने कुओं से पानी नहीं भरने देते थे। दलित जातियों के ये कष्ट सब जगह व्याप्त थे। कहीं-कहीं स्थानीय रूप में इनकी कठोरता की मात्रा तथा स्वरूप भिन्न थे। इस कष्ट निवारण में दलितोद्धार सभा ने बहुत से स्थानों पर आंदोलन कर उन्हें उन्हीं पुराने कुओं पर चढ़ा दिया और कुओं का प्रयोग दलित करने लगे। जहां ऐसा करना असंभव प्रतीत हुआ, वहां उन्हें नया कुआं बनवा दिया। कुओं पर चढ़ जाने में कई स्थानों पर कठिनता का सामना करना पड़ा, इसके कुछ उदाहरण निम्न है:

                                 जगाधरी में प्याऊ वाले की छूआछात के कारण कुछ "अस्पृश्य" लोग मुसलमान हो गये। वे कलमा पढ़ते ही फिर उसी प्याऊ पर गये और उन्हें निस्संकोच पानी पिला दिया गया। इस पर शेष अछूत भी मुसलमान होने को तैयार हो गए। आर्य समाज के उपदेशकों के समझाने पर हिन्दुओं ने छुआछूत हटा दी और उन्हें पानी भरने का समानता का अधिकार प्राप्त हुआ।

                                बजवात में कुएं से पानी भर रहे आर्य कार्यकर्ताओं को दो बार लाठी से पीट कर घायल कर दिया गया। 

आर्यों की इस सहिष्णुता का परिणाम यह हुआ कि उस सारे इलाके में कुआं की बाधा अपने आप हट गई। आर्य समाज के कल्याण की कान्फ्रेंस में स्वयं राजपूतों ने ही अपने कुएं दलितों के लिए खोल दिए। कुराली (ज़िला अंबाला) में 6 महीने अभियोग चलता रहा। अभियुक्तों में सभा के मंत्री पं. ज्ञानचन्द्र भी था। अन्त में कुओं के प्रयोग का अधिकार अपने आप स्वीकार कर लिया गया। स्वयं हाईकोर्ट दलित जातियों के इस अधिकार को सारे प्रान्त के लिए स्वीकार कर चुकी है।

                   चंबा रियासत में हाली नाम की जाति बसती हैं। उसे राज नियमानुसार लाश उठाने, पशुओं की खाल उतारने तथा ढोल पीटने पर बाधित किया जाता था। सन 1933 में उन्हें नाग देवता के आगे बकरे की बलि देने पर मजबूर किया गया। इस आज्ञा के विरुद्ध प्रतिवाद के रूप में आर्य कार्यकर्ता म. रामशरण ने रियासत की सेवा छोड़ दी। ये महाशय वहीं रह कर अपने उद्देश्य की पूर्ति में लगे रहे। सभा की ओर से वहां एक बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ और राज्य का ध्यान इन अत्याचारों की ओर खींचा गया।

                                अकालगढ़ (गुजरांवाला), अख़लास पुर (गुरदासपुर), अजनाला (अमृतसर), अटारी (अमृतसर), अपरा (जालंधर), अबोहर (फिरोज़पुर), अमृतसर, अम्बाला (छावनी), अंबाला (रेजीमेंटल बाज़ार), अम्बाला (लाल कुड़ती बाज़ार),  अम्बाला (शहर), अलावलपुर (जालंधर ), अलीपुर, अहमदपुर लंबा (बहावलपुर), अहमदपुर शकरिया (बहावलपुर), अहमदपुर स्याल (झंग), अहिसानपुर (मुज्जफ़रगढ़), आदमपुर (जालन्धर), आरिफ़वाला (मिण्टगुम्मरी), आर्यनगर ( मुल्लतान), आहलूवाल (सियालकोट), इंदौरा (कांगड़ा),  इन्द्रप्रस्थ (गुड़गांव), ईसाखेल (बन्नू), उग्गो के (सियालकोट),  उच्च (बहावलपुर), ऊधमपुर (जम्मू), एमटाबाद, ओकाड़ा  (मिण्टगुम्मरी), कुंजरूर (गुरदासपुर), कठूआ (जम्मू), कबीर वाला (मुल्लतान), कमर मशानी (मुल्लतान), कमालिया (लायलपुर), कड़ियां वाला (गुजरात), कपूरथला, करनाल, करियाला (जेहलम), करोड़ (मुजफ्फरगढ़), करोड़पका (मुललतान), करतारपुर (जालन्धर), कलियांवाला (गुजरांवाला), कसूर (लाहौर), कसोली (शिमला), कहुला (मिन्टगुम्मरी),  कांगड़ा, कादियां (गुरदासपुर),  कादिराबाद (गुजरात), कंमोकी (गुजरांवाला), कालका (अंबाला), कालाबाग (मियांवाली), कलांवाली (हिसार), कालेकी (गुजरांवाला), कलानौर (रोहतक),  कहनानों (लाहौर), किला दीदारसिंह (गुजरांवाला), किला सोभा सिंह (सियालकोट), किश्तवाड़ (जम्मू), कुंजाह (गुजरात), कुन्दियां (मियांवाली),  कुलाची (डेरा इस्माइलखां), कुल्लू (कांगड़ा), कैथल (करनाल), कमालपुर, कोक कलां (रोहतक), कोट अद्दू (मुज़फरगढ़), कोटकपूरा (फरीदकोट), कोटख़लीफा (बहावलपुर), कोसली (रोहतक), कोटछट्टा (डेरागाजीखां), 


*लाश को जलाने की मनाही:*

" दौलत नगर (गुजरात) :"  सन्‌ 1910 में गुलाबू नामक मेघ की शुद्धि की गई। उसकी मृत्यु हो जाने पर सनातनियों ने उस की लाश को श्मशान भूमि में जलाने से रोका। जिस पर आर्य वीरों ने भय-रहित हो कर उस का श्मशान भूमि में दाह संस्कार किया और सनातनी देखते रह गए। आर्यों का बायकाट हो जाने पर भी वे अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। सन्‌ 1913 में सनातनियों के साथ एक बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ। आर्य समाज की ओर से प.चाननराम तथा प. राजाराम थे।


*दशहरा भोजन :* धर्मकोट रन्धावा (गुरदासपुर): गुरदासपुर के धर्म कोट रंधावा में सन 1914 में दशहरे के दिनों में म. लभ्भू राम मेघ यहां मेला देखने आया। म. पूर्णं चन्द ने उसे अपने यहां चौके मै बिठा कर भोजन कराया। बिरादरी ने निश्चय किया कि महाशय जी के साथ म. काशीराम और ला० हज़ारी मल का बायकाट कर दिया जाय और इन्हे कुआं से पानी न लेने दिया जाय। इन्हें क्षमा मांगने के लिये कहा गया, परन्तु ये दृढ़ रहे। म. पूरण चन्द का इस इलाके में लेन-देन था, बड़ा विरोध किया गया। इनका पानी तक बंद किया जाने लगा परन्तु इनके छोटे भाई अनन्त राम ने बाज़ार में विरोधियों को ललकार कर उनका मुंह बन्द कर दिया और पानी घर में ले आया।


आर्य प्रतिनिधि सभा का कार्यालय लाहौर से जालंधर स्थानांतरित किया गया।


Reference:

1. Punjab past and present , vol. 21 part 1, April 1937

2. Jones, Kenneth W. : Arya dharm : Hindu consciousness in 19th-century Punjab


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दलितोद्धार मूवमेंट

 दलितोद्धार के क्षेत्र में आर्य समाज क्रांति लाया है। अब छूत-छात पंजाब प्रान्त में कहीं-कहीं है तो सही, पर आखिरी साँसों पर। आर्य समाज के दलितोद्धार की विशेषता यह हैं कि इसका आधार धार्मिक है। अस्पृश्यता चली ही धामिक भ्रान्तियों के कारण है। इसका वास्तविक प्रतिकार धर्म ही के रास्ते हो सकता है। आर्थिक संकट केवल अछूतों पर नहीं, और समुदायों पर भी हैं।


 इस शताब्दी के पहले देशक में जब आर्य समाज' स्यालकोट अस्पृश्य समझी जानेवाली मेघ जाति के उद्धार का प्रयास कर रहा था और आर्य मेघोद्धार सभा” की स्थापना हो रही थी, उसी समय प्रेमचन्द जी ने अपने उर्दू उपन्यास 'जलवा-ए-ईसार' (वरदान) में इस समस्या को उठाया था। अतः यह स्पष्ट है कि प्रेमचन्द जी इस समस्या के विवेचन में भारतीय राजनीति में गांधी जी के आगमन से पहले ही लगे हुए थे। इस विषय में उन पर प्रथम और प्रबल प्रभाव आर्यसमाज का ही था।

शकरगढ़ के आर्य सज्जनों में धर्म-प्रचार के लिए इतना उत्साह था, कि कुछ वर्ष पश्चात्‌ समीप के दूबोचक, खानेवाल, नूरकोट, नेनेकोट, बारामंगा, कंजरूड़, सुखौचक्र और इखलासपुर आदि में भी आर्यसमाज स्थापित हो गये और गुरुदासपुर जिला वैदिक धर्म का सशक्त केन्द्र बन गया । मेघों की शुद्धि में भी इस जिले के आर्य समाजो का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। गुरुदासपुर जिले के श्रीगोविन्दपुर नगर, घरोटा का पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा के इतिहास में विशिष्ट स्थान रहा है।

             


भगत मुंशीराम : भगत मुंशीराम का जन्म सियालकोट के सुंदरपुर गांव में हुआ था। इनके पिताजी का नाम महंगा राम जी था। माताजी का नाम करमां देवी था। बाबू गोपीचंद भगत इनके साला थे। देश के बंटवारे के बाद ये भी भारत में आ गए और मुक्तसर में रहे। बाद में चंडीगढ़ में बस गए। ये परम दयाल के शिष्य बनाकर मानवता मंदिर होशियारपुर में रहे। 1981 में परिनिर्वान प्राप्त किया।


संतराम बी.ए. : संतराम बी. ए. (1887-1988) भी पंजाब के प्रसिद्ध आर्य समाजी थे। उनका परिवार भी मेघ समाज से था। "मेरे जीवन के अनुभव" में वे लिखते है कि उनके वंश के लोग एक जगह जाकर कुम्हार का कार्य करने लग गए तो वे कुम्हार कहे जाने लगे। उनके पिताजी मिट्टी के बर्तन बेचते थे। संतराम जी आर्य समाजी थे। आर्य समाजी जाति व्यवस्था नहीं मानते और न वे जाति का प्रयोग करते थे। संतराम जी ने अपनी पुत्री का भी अंतर्जातीय विवाह किया। उनकी पुत्री गार्गी चड्ढा ने दिनांक 13 मार्च 1990 को डॉ. आर. के. क्षीरसागर को दिए गए अपने एक साक्षात्कार में बताया कि संतराम जी जाति से मेघ थे। (देखें: Dalit Movement in India and its leaders, New Delhi, 1994(2017), p 353-354)


भगत अमीचंद मेघ : सन्‌ 1932 के आसपास स्वतंत्र-राष्ट्रीय विचारधारा के हरिजन नेताओं ने लाहौर में "अखिल भारतीय हरिजन लीग” की स्थापना की थी। इसके संस्थापक आर्य समाज से प्रभावित थे। समाज सुधारों, अंतर्जातीय विवाह, उत्तरोत्तर शिक्षा, सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता के लिए कार्य करते थे। बंगाल के हेमचंद्र नस्कर इसके अध्यक्ष और भगत अमीचंद मंत्री थे। भारत विभाजन के बाद इसका केंद्रीय कार्यालय दिल्ली में स्थानांतरित हुआ। इसकी शाखाएं जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हिमाचल, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में सक्रिय रहीं। सन्‌ 1947 में मेघ अछूत जाति के भगत अमीचंद इसके अध्यक्ष बने। वे सन्‌ 1952 में दिल्‍ली विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और कांग्रेस दल के असेम्बली में सचेतक बने। उस समय दिल्ली में चौधरी ब्रह्म प्रकाश मुख्यमंत्री थे, जो भारत में पिछड़ा वर्ग आंदोलन के संस्थापकों में से एक हैं। हरिजन लीग ने अस्पृश्यता निवारण, जाति भेद मिटाने, सामाजिक-आर्थिक प्रगति, अनुसूचित जातियों की सूची में क्षेत्रीय विसंगतियां हटाने के लिए संघर्ष किया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद, प्रसिद्ध अभिनेता पृथ्वीराज कपूर और बलराज साहनी, बंबई के फादर विल्सन, ज्ञानी गुरुमुख सिंह मुसाफिर इस संस्था के संरक्षकों में से थे। अपने प्रारंभिक दौर में महात्मा गांधी और सरदार पटेल ने इसके कार्यों की प्रशंसा की थी। जगजीवन राम का अपना “दलित वर्ग संघ" था और उनके अनुयायी और वे स्वयं एक अरसे तक दलितों का नेतृत्व करते हुए सत्ता में रहे वे भी इसकी संगठन क्षमता और सक्रियता से प्रभावित थे।" 

"अविभाजित पंजाब में स्वतंत्रतापूर्व इस संगठन का बड़ा . असर था। अमीरचंद कम पढ़े-लिखे थे, लेकिन श्रेष्ठ कोटि के संगठन कर्त्ता थे। जिनका अम्बेडकर और जगजीवन राम लोहा मानते थे। ईसाईयों ने उन्हें बहुत प्रलोभन दिए लेकिन वे किसी भुलावे में नहीं आए। 'हरिजन' लीग के सुझावों पर दलितों के आर्थिक हितों के लिए निगम बने। इसी की पहल पर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में बी.एन. लोकुर की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति बनी, जिसने अनुसूचित जातियों की सूची में क्षेत्रीय प्रतिबंध और जातीय पर्यायों की समीक्षा करते हुए संशोधन प्रस्तुत किए। इससे लाखों-करोड़ों दलितों को लाभ मिले। साथ ही "लोकुर समिति" ने उन जातियों के जिन्होंने अनुसूचित जातियों के लाभ-सहूलियतों को हथिया लिया है इसकी समीक्षा करते हुए सुझाव दिए। लेकिन इसका जगजीवन राम द्वारा भारी विरोध हुआ और ये सिफारिशें लागू नहीं हो सकीं |” उन्होंने अंग्रेजी मासिक “हरिजन” निकाला जो कई वर्ष तक प्रकाशित हुआ।

      "सन्‌ 980 के दशक तक यह संगठन सक्रिय रहा और भगत अमीचंद के निधन के बाद इसकी गतिविधियां ठप्प हो गईं।" (आर, चन्द्रा एवं कन्हैयालाल चंचरी, आधुनिक भारत का दलित आंदोलन, नई दिल्ली, 2002, पृष्ठ 102-103)


भगत मिल्खीराम : भगत मिल्खी राम जी का गाँव गोहतपुर था, जो स्यालकोट (अब पाकिस्तान में) के पास ही था. भगत जी के दादा का नाम श्री भोलानाथ था और पिता का नाम श्री अमींचंद। माता का नाम मोहताब देवी था। उनकी एक बहन वीराँदेवी हैं। श्री मिल्खी राम जी का जन्म 12 नवंबर 1918 में हुआ। उनकी प्रारंभिक पढ़ाई स्यालकोट के आर्य समाज स्कूल में हुई, फिर वे ईसाई स्कूल में पढ़े। उन्होंने डीएवी कालेज, लाहौर से 1939 में इंगलिश ऑनर्स के साथ बी.ए. किया। 1940 में उन्होंने अविभाजित पंजाब के गवर्नर के कार्यालय में क्लर्क के तौर पर करियर की शुरुआत की। भारत विभाजन के बाद 19-9-1047 को उन्होंने शिमला में सहायक के तौर पर कार्यभार संभाला। 1950 में पंजाब सरकार में मंत्री रहे पृथ्वीसिंह आज़ाद की अनुशंसा पर वे पीसीएस नामित हुए और एक्स्ट्रा असिसटेंट कमिश्नर के पद पर रहे। उसके बाद भगत जी के प्रयासों से कई अन्य मेघ भगत भी पीसीएस सेवाओं में आए।


भगत बुड्ढा मल : उनका जन्म और पालन-पोषण पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था। वे मेघ जाति के एक सामान्य परिवार में जन्मे थे। बहुत शिक्षित नहीं थे, लेकिन छोटी आयु में ही वे समाज सेवा के कार्य में प्रवृत्त हो गए थे। भारत में आने के बाद तो वे अमृतसर, जालंधर और चंड़ीगढ़ में समाज सेवा में सक्रिय देखा है.

  

मेघ गुलज़ारी लाल : अविभाजित पंजाब में 1923 में जन्मे। और मिल्ट्री में भर्ती हुए। सन 1941 में क्वेटा में पोस्टिंग रही। पंजाब भारत विभाजन के समय वे पाकिस्तान के क्वेटा में तैनात थे. तभी आर्मी ने सारे रिकार्ड सहित डिफेंस स्टाफ ट्रेनिंग कालेज में (ऊटी, तमिलनाडु) भेजा. उसके बाद उन्हें पठानकोट में तैनात किया गया था. 1949-50 में उनका स्थानांतरण पठानकोट में हुआ. 1969 में आर्मी की सेवा से निवृत्त होने के एक-दो वर्ष के बाद श्री गुलज़ारी लाल ने पंजाब शिड्यूल्ड कास्ट लैंड डिवेलपमेंट एंड फाइनेंस कार्पोरेशन, चंडीगढ़ में कार्य किया और प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर वहाँ से सेवानिवृत्त हुए।


 भगत हंसराज : पंजाब के डालोवाली गाँव के हंसराज भगत और ननजवाल गाँव के जगदीश मित्र ने 1935 तक आर्यसमाज की मुहिम के तहत शिक्षा प्राप्त की और दोनों ने LLB की। मेघ जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करवाने में भगत हंसराज जी ही प्रमुख व्यक्ति थे। 1937 में उन्होंने यूनियनिस्ट पार्टी से चुनाव लडा और हार गए। 1945 में विधान परिषद के सदस्य नामित हुए।

हंसराज भगत मेघ समुदाय के एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता और नेता थे, जिन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में पंजाब और जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में मेघ समाज के उत्थान और उनके राजनीतिक अधिकारों के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। विशेष रूप से, उन्होंने मंगतुराम मंगोवालिया जैसे अन्य दलित नेताओं के साथ मिलकर 1933 में फ्रेंचाइजी कमेटी के समक्ष वयस्क मताधिकार (Adult Franchise) की पैरवी की, जो उस समय ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत भारत में राजनीतिक सुधारों का एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। उनकी गतिविधियाँ मुख्य रूप से मेघ समुदाय की सामाजिक, शैक्षिक, और राजनीतिक स्थिति को बेहतर बनाने पर केंद्रित थीं। उनकी यह मांग मेघवाल समुदाय को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल करने और उनकी आवाज़ को मजबूत करने का एक प्रयास था। इसके अलावा, उन्होंने कबीरपंथ के माध्यम से मेघवाल समुदाय में सामाजिक जागरूकता, शिक्षा, और एकता को बढ़ावा दिया। हालांकि उनके कार्यों का दस्तावेजीकरण सीमित है, मेघवाल समुदाय में उनकी भूमिका को सामाजिक और राजनीतिक सशक्तीकरण के लिए एक प्रेरणा के रूप में याद किया जाता है। देश की आजादी के बाद वे दिल्ली आ गए और वकालत शुरू की।


बाबू गोपीचंद : सियालकोट के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और अंडोलनकारी थे। आजादी से पहले पंजाब (पाकिस्तान) में चुनाव भी लड़ा था। 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद, सियालकोट (तत्कालीन पंजाब, अब पाकिस्तान) से कई मेघवाल परिवार राजस्थान, विशेष रूप से अलवर, में बस गए। इन परिवारों को बंजर भूमि आवंटित की गई थी, और वे सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे थे। बाबू गोपीचंद ने इन परिवारों को संगठित करने और उनके पुनर्वास में मदद की। बाबू गोपीचंद मेघवाल समुदाय के एक प्रेरणादायक नेता थे, जिन्होंने अलवर में मेघवालों के सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षिक उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका सबसे बड़ा योगदान विभाजन के बाद मेघवाल परिवारों का पुनर्वास, शिक्षा का प्रसार, और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देना था। उन्होंने आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन को मेघवाल समुदाय से जोड़कर उनकी धार्मिक और सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाने में भी मदद की। हालांकि उनके कार्यों का दस्तावेजीकरण सीमित है, लेकिन मेघवाल समुदाय में उनकी भूमिका को आज भी सम्मान के साथ याद किया जाता है।

                              भारत विभाजन के बाद सेटेलमेंट मंत्रालय में एडवाइज़र सुश्री रामेश्वरी नेहरू, भगत हंसराज, श्री दौलत राम (मेघ), भगत गोपीचंद और भगत बुड्ढामल सभी ने समन्वित प्रयास किया और स्यालकोट से भारत में आए मेघों को अलवर (राजस्थान) आदि जगहों पर ज़मीनें दिला कर बसाया गया. भगत हंसराज राजनीतिक रूप से सक्रिय थे, श्री दौलत राम सेटेलमेंट ऑफिसर थे. इस टीम ने बहुत अच्छा कार्य किया और सफल रही. 


मंगत राम भगत (आईएएस) : "Our Pioneers" में मंगत राम भगत का उल्लेख प्रमुखता से है, जो जम्मू-कश्मीर के पहले मेघवाल आईएएस अधिकारी थे। उन्होंने हरिजन मंडल के गठन और सामाजिक सुधारों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह संदर्भ हंसराज भगत जैसे अन्य मेघवाल नेताओं के कार्यों को समझने के लिए एक व्यापक पृष्ठभूमि प्रदान करता है।

भगत विरुमल : दबलीवाला के वीरूमल जी भ

 लेखराज भगत: लेखराज भगत का जन्म सन 1930 में सियालकोट के पतन गांव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सियालकोट में ही हुई। जब वे दसवीं में थे तब 1947 में भारत का विभाजन हुआ और उनका परिवार भारत में आ गया और जालंधर कैंप में रहे। जम्मू कश्मीर में मेघों के वर्णन के समय मैंने ढीढे कलां का जिक्र किया था, जहां मेघों में जागृति आई और आंदोलित हुए। उसी ढीढ़े कलां में लेखराज जी का ननिहाल था। भारत में आने के बाद 1964 में इनका आईपीएस में चयन हुआ। 


The country lying between the Ravi and Satlej is Trigartta or Traigartta-desa, the  land watered by three rivers, which are the Ravi, the Bias, and the Satlej. Similarly the district lying between the Ravi and the Chenab is called Dogardes or Dogarttordesa, the  land watered by two rivers. The name of Trigartta is found in the Mahabharata and in the Purans, as well as in the Raja Tarangini or history of Kashmir. It is also given as synonimous of Jalandhar by Hema Chandra(ASI REPORTS for the year 1872-1873, vol 5,  p 148)  

                    रावी और सतलुज नदियों के बीच स्थित क्षेत्र को त्रिगर्त या त्रिगर्त-देश कहा जाता है, जो तीन नदियों से सिंचित भूमि है, रामवी., व्यास और सतलुज हैं। इसी प्रकार रावी और चेनाब के बीच स्थित क्षेत्र को डोगर्त या दुग्गर-देश कहा जाता है, जो "दो नदियों से सिंचित भूमि है।" त्रिगर्त का नाम महाभारत और पुराणों में, साथ ही राजतरंगिनी या कश्मीर के इतिहास में भी मिलता है। हेमचंद्र इसे जालंधर का पर्यायवाची कहा है।

                      इस क्षेत्र में मुक्तेश्वर का मंदिर रहा है, मुक्तेश्वर को मेघों का पूर्वज कहा गया है अर्थात यहां के मेघ प्राचीन कल में अपने को मुक्तेश्वर का पूर्वज मानते थे (ASI four reports, vol 2, p 8-12)। त्रिगर्त और द्विगर्त या डुग्गर में प्राचीन काल से ही मेघों की सघन बस्तियां रही है और वर्तमान में भी इनकी सघन आबादी इन्हीं क्षेत्रों में निवास करती है। सतलज का प्राचीन नाम मेगाद्रु था अर्थात मेघों की नदी और जिसे आज व्यास नदी कहते है, इसका नाम भी महाभारत के वर्णन के अनुसार यहां निवास करने वाले बाही और हिका नाम के असुर के कारण बाहिका था। बाहिका नाम ही आगे जाकर व्यास नाम में बदल गया। महाभारत के समय सियालकोट का राजा बाहिक था। यहां के मेघ उस समय बाल्हिका या बाह्लीक कहे जाते थे और त्रिगर्त क्षेत्र के नाम से त्रि गर्ता भी कहे जाते थे। कश्मीर के राजा शंकरवर्मन के समय तक यहां उनका ही शासन था और उनका स्वतंत्र गण हुआ करता था।

                                             आर्य समाज के कार्यों से जम्मू, गुरुदासपुर, मुलतान, फीरोजपुर, सियालकोट, शिमला, लाहौर, लुधियाना, किस्टवार, मीरपुर, बटाला और रामसू के मेघों में जागृति आई। महात्मा गांधी तथा काँग्रेस द्वारा संचालित हरिजन आन्दोलन के कारण बाद में इनके कार्ये में कुछ शिथिलता आने लग गयी थी । लोग गांधीजी के हरिंजन आन्दोलन की ओर अधिक आकर्षित होने लगे।


गुरदासपुर में पंडित रामभज दत्त ने शुद्धि कर मेघों का आर्य समाज में प्रवेश कराया। 

होशियारपुर में भी शुद्धि का अभियान चला और मेघ आर्य समाजी बने। 

लाहौर में भी आर्य शुद्धि का अभियान चला और वहां पर मेघ सभा का गठन हुआ। लाहौर में रावी नदी के किनारे डिप्रेस्ड क्लासेज मिशन की ओर से एक बहुत बड़ा प्लॉट खरीदा गया और सेंट्रल स्कूल शुरू की गई।


वसिष्ठ जाति : सिन्ध में  "वसिष्ठ" नाम की एक अछूत जाति का निवास था। उस समय सिन्ध भी पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा के क्षेत्र में था। उसके तत्त्वावधान में सन्‌ 1911 में खैरपुर नाथनशाह गाँव में वसिष्ठों की शुद्धि करायी गयी, जिसके कारण ऊँचे कुलों के हिन्दुओं ने आर्यों का बहिष्कार कर दिया। एक शुद्ध हुए वसिष्ठ का यज्ञोपवीत उतारकर फेंक दिया गया और उसके शरीर पर गरम लोहे से यज्ञीपवीत अंकित कर दिया गया। पर इससे वसिष्ठों की शुद्धि एवं उद्धार के आन्दोलन को रोका नहीं जा सका। पण्डित भक्तराम ने मीरपुर (सिन्ध) के क्षेत्र में 46 गाँवों के वसिष्ठों की शुद्धि की। इस प्रकार सिन्ध में जो वसिष्ठ शुद्धि द्वारा "आर्य" बना लिये गये, उनकी संख्या दस हजार के लगभग थी। (आर्य समाज का इतिहास, पृष्ठ 118)

                              बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा चार क्षेत्रों में दलितोद्धार का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया था, मुजफ्फरगढ़ और मुलतान में ओडों तथा मोहतमो की शुद्धि का, जालन्धर और लुधियाना में रहतियों की शुद्धि का, सिन्ध में वसिष्ठो की शुद्धि का और गुरुदासपुर में डूमनों की शुद्धि का। पर अछूतों को शुद्ध कर हिन्दू (आय) समाज का अंग बना लेने का कार्य इन्हीं क्षेत्रों व जातियों तक ही सीमित नहीं रहा। मेघों की भी शुद्धि का अभियान चला।


बटोहरा : अखनूर से चार मील की दूरी पर बटौहड़ा की बस्ती है। वहाँ के मेघों ने  महाशय रामचंद्र जी को पाठशाला स्थापित करने के लिए निमन्त्रित किया। 13 जनवरी 1923 को उन्हें देखकर राजपूत लोग भड़क गये और उन्होंने लाठियाँ लेकर मेघों पर हमला कर दिया, लेकिन वे इससे घबराये नहीं। उन्होंने 14 जनवरी, 1923 को पाठशाला खोलने का दिन नियत कर दिया, और उसके लिए लाहौर से एक उपदेशक भी बुला लिया। स्कूल खुला, लेकिन महाशय रामचंद्र की शहादत हो गई। जम्मू कश्मीर के मेघों के इतिहास के प्रसंग में इसका उल्लेख कर दिया गया था। 


जम्मू, बुटहरा, बरकतपुर और ऊधमपुर आदि स्थानों पर उन्हीं दिनों ऐसी पाटशालाएं खोली गयीं, जिनमें अछूत जातियों के बच्चों की पढ़ाई की समुचित व्यवस्था थी।

पंजाब के मेघ 

                  


Various Sabhas and Mandals :

It is difficult to trace all of the Dalitodhar Sabhas and Mandals working in this direction but the following have been mentioned :


(1) Meghoddhar Sabha, Sialkot, established on 3rd March, 1903. 

(2) Dayanand Dalitoddhar Sabha, Guru Dutt Bhawan, Lahore, established on 11 May, 1930.

(3) Amritsar Achhutoddhar Sabha.

(4) Arya Dalitsabha. Dinanagar.

(5) Lahore Megh Sabha. काशीराम इसके प्रधान और मोहनलाल मंत्री थे। 5 मार्च 1933 को इसका एक बड़ा सम्मेलन लाहौर में वैद्य काशीराम जी की अध्यक्षता में संपन्न हुआ।

(6) Achhutoddhar Sabha, Lakhimpur.

(7) Ashprishyata Nivarak Samiti, Allahabad.

(8) Achhutoddhar Samiti, Meerut.

(9) Ashprishyata Nivaran Sangh, Behar.

(10) Achhut Sewak Mandal.

 (11) The Depressed Classes Mission Society of India. 

(12) All India Shraddhanand Dalitoddnar Sabha Delhi.

(RADHEY SHYAM PAREEK, Contribution of Arya Samaj in the Making of Modern India,  1875-1947, THESIS APPROVED FOR THE DEGREE OF Ph. D. BY THE UNIVERSITY OF RAJASTHAN,  JAIPUR, 1965


]


Reference:

- The Modern Review, Vol-8 (July-December), 1910, p 228

- Man In India Vol.3, March-June, 1923, P 71

-Pt. Gangaprasad Upadhyay,  THE ORIGIN, SCOPE AND MISSION OF THE ARYA SAMAJ, 1940, p 125-126 & C)

LAJPAT RAI, THE ARYA SAMAJ, 1915,  p 230)


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पंजाब के मेघ 3

 पंजाब के मेघ 3

                             "पंजाब" दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिम में एक भू-राजनीतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक क्षेत्र है, जिसका वर्तमान में पाकिस्तान का पंजाब प्रांत और भारत में पंजाब राज्य शामिल हैं। प्राकैतिहासिक और ऐतिहासिक प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक यहां मेघों की बस्तियां आबाद रही है। पंजाब क्षेत्र सभ्यताओं के शुरुआती उद्गम स्थलों में से एक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि पंजाब में मानव निवास का सबसे पहला साक्ष्य सिंधु और झेलम नदियों के बीच पोथोहर की सोन घाटी में मिलता है। आर्यों के इस क्षेत्र में प्रवेश से पहले यहां सिंधु हड़प्पा सभ्यता फल फूल रही थी। महाकाव्य युग में यहां के निवासियों को मद्र नाम से संबोधित किया जाता था। मद्रों का अपना जनपद था।

                             मद्र : मद्र जनपद का निर्णय पूर्णतया हो चुका है । मद्र लोग रावी-झेलम दोआब में रहते थे। उक्त दोआब को मद्र जनपद कहते थे। यह जनपद बाहीक का उत्तरी भाग था। इस जनपद की राजधानी शाकल (स्यालकोट) थी, जो कि आपगा (अय्यक) नदी के तट पर स्थित थी। यह छोटी नदी जम्मू की पहाड़ियों से निकलकर स्यालकोट होती हुई चेनाब से मिलती है।  पतंजलि ने शाकल की गणना वाहीक ग्रामों में की है। यहां के निवासियों को बाहिक/बाल्हिक/वाह्लीक आदि नामों से पुकारा जाता था। संस्कृत और पालि भाषा में बाहिक या वाल्हिक को मेघ का पर्यायवाची बताया गया है। अर्थात उस समय वैदिक साहित्य में मेघों का वर्णन बाहीक या वाल्हिक लोगों के रूप में हुआ है। महाभारत काल में इस देश का राजा शल्य था। इस आधार पर महाभारतकालीन शल्य मेघों का पूर्वज कहा जा सकता है।    

                               मत्स्यपुराण के अनुसार सत्यवान्‌ के पिता अश्वपति ने भी इस जनपद पर शासन किया था। विद्वानों की धारणा है कि मद्रदेश भी बाहीक नाम से पुकारा जाता था। सम्भव है कि मद्र जनपद बाहीक का भाग होने के कारण उस नाम से भी सम्बोधित होता रहा हो। हेमचन्द्र के अभिधानचिन्तामणि के अनुसार इस जनपद का एक नाम टक भी था। बाहीकाष्टक्का नामानो बाह्लीका बाहिकाहवयां ।अर्थप्रकाशिकां चक्रवाळ--पा०सू०४।२।८० में इसकां नांम आया है  बाहिकाहवयां: |” 

                                जनरल कनिंघम ने लिखा है कि सम्भवतः यह जिला झेलम का वर्तमान चकवाल है। मेग और टक्क नाम के जन अब भी रावी के समीपवर्ती पर्वतों पर मिलते हैं। उनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। जनरल कनिंघम ने मेग और टक्कों को एक ही जाति का माना है।

                               पा. सू.  4/2/108 से विदित होता है कि पाणिनि (जर्नल एशियाटिक सोसायटी 1915 पृष्ठ 73) काल में यह जनपद दो भागों में विभक्त था--पूर्वमद्र तथा अपरमद्र। रावी तथा झेलम नदियों के मध्य में चेनाव नदी बहती हैं। चेनाव तथा रावी के मध्य का भाग (स्यालकोट तथा गुजरांवाला) पूर्वमद्र एवं चेनाब तथा झेलम के मध्य का भाग अपरमद्र कहलाता था । कथासरित्सागर में लिखा है-_“'शाकलं नाम मद्रेषु वभूव नगर पुरा चंद्रप्रभास्तत्रासीद्राजाङ्गारप्रभात्मजः। (44/17) उसी के आगे लिखा है “संगमं चन्द्रभागाया इरावत्याश्च यात्रा ते। स्थिताः सूर्यप्रभस्यार्थ राजानो मित्रबान्धवाः। (46/2) अर्थात शाकल (स्यालकोट) चन्द्रभागा (चेनाब) तथा इरावती (रावी) के संगम के समीप स्थित था।

                                रावी और सतलुज नदियों के बीच स्थित क्षेत्र को त्रिगर्त या त्रिगर्त-देश भी कहा जाता था, जो तीन नदियों से सिंचित भूमि है, ये तीन नदियां रावी, व्यास और सतलुज हैं। इसी प्रकार रावी और चेनाब के बीच स्थित क्षेत्र को द्विगर्त या दुग्गर-देश कहा जाता है, जो "दो नदियों से सिंचित भूमि है।" त्रिगर्त का नाम महाभारत और पुराणों में, साथ ही राजतरंगिनी या कश्मीर के इतिहास में भी मिलता है। हेमचंद्र ने इसे जालंधर का पर्यायवाची कहा है।

                      इस क्षेत्र में मुक्तेश्वर का मंदिर रहा है, मुक्तेश्वर को मेघों का पूर्वज कहा गया है अर्थात यहां के मेघ प्राचीन काल में अपने को मुक्तेश्वर का पूर्वज मानते थे (ASI four reports, vol 2, p 8-12)। त्रिगर्त और द्विगर्त अर्थात डुग्गर में प्राचीन काल से ही मेघों की सघन बस्तियां रही है। जम्मू कश्मीर के मेघों के इतिहास के प्रसंग में इसका उल्लेख कर दिया था। वर्तमान समय में भी मेघों की सघन आबादी इन्हीं क्षेत्रों में निवास करती है। सतलज का प्राचीन नाम मेगाद्रु था। मेघाद्रु अर्थात मेघों की नदी। 

                                जिसे आज व्यास नदी कहते है, उस व्यास नदी का नाम भी महाभारत के वर्णन के अनुसार यहां निवास करने वाले बाही और हिका नाम के असुर के कारण बाहिका था। बाहिका नाम ही आगे जाकर ब्यास/व्यास नाम में बदल गया। महाभारत के समय सियालकोट का राजा बाहिक था। यहां के मेघ उस समय बाल्हिका या बाह्लीक कहे जाते थे और त्रिगर्त क्षेत्र के नाम से वे त्रिगर्ता भी कहे जाते थे। कश्मीर के राजा शंकरवर्मन के समय तक यहां मेघों का ही शासन था और उनका स्वतंत्र गण हुआ करता था।

                               ईसा पूर्व छठी शताब्दी में इस प्रदेश पर डेरियस का शासन था तो ईसा पूर्व 326 ई में सिकंदर का आक्रमण इस प्रदेश पर हुआ। उस समय इस भूभाग पर कई छोटे छोटे जनपद थे। मेगालए नामक जाति का भी जनपद था। जिसे अलेक्जेंडर कनिंघम ने आज की मेघ जाति से समीकृत किया है। पोरस तथा उसका भतीज छोटा पोरस,  जिनका मुकाबला सिकंदर से हुआ था। वे इसी जाति के थे। 

                                ह्वेनसांग के समय (सातवीं शताब्दी) शाकल के अवशेष पाये जाते थे। पा. सू. 4/3/228 पर वामन की व्याख्या से विदित होता है कि शाकल नाम का एक महान्‌ गणितज्ञ वहाँ रहता था। पा. सू. 4/2/117 की व्याख्या में वामन ने शाकल के बाद मन्थू नाम के एक अन्य नगर का उल्लेख किया है जो कि सम्भवतः आधुनिक मुंड हो सकता है।

                                 मद्र जनपद में जतिक नाम के जन भी रहते थे । सम्भवतः ये लोग जाटों के पूर्वपुरुष हो सकते हैं, क्योंकि वर्तमान काल में पंजाब के अधिकतर भागों में जाट पाये जाते हैं, लेकिन बहुत से इतिहासकार जटिक लोगों को जाटों से भिन्न मानते है। जतिक जन मद्र शासकों की प्रजा थे। कुछ विद्वानों ने जतिक तथा आरट को मद्र का पर्याय माना है, परन्तु इसका समर्थक कोई पुष्ट प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। आरट देश, घोड़ों के लिए प्रसिद्ध था। पञ्जाब के पूर्वोत्तर प्रदेश में आज भी उत्तम जाति के घोड़े पाये जाते है। रावलपिंडी में गुजरात के जन आज भी अपने जिले को हैरट अथवा ऐरट कहते हैं। यह आरट का विकृत रूप मालूम पड़ता है। राजतरङ्गिणी 5/150 में उल्लेख है कि टक्क देश गुर्जरराज (गुजरात का राजा) के अधीन था । पुराणों में टक्क का उल्लेख मिलता है।

                                जब इस भूभाग में अरबों का आक्रमण होने लगा और मुस्लिम धर्म का प्रचार हुआ तो उसका प्रबल प्रतिरोध इन्हीं मेघों ने किया। अरबों ने इन मेघों का जिक्र मेद नाम से किया है। स्मृतियों में मेघों का उल्लेख मेद नाम से मिलता है। अत्रि स्मृति, यम स्मृति और अंगिरा स्मृति आदि ग्रंथों में उन्हें अन्त्यज घोषित किया हुआ मिलता है। अर्थात चारों वर्णों से बाहर के लोग। [देखें: प. माध्वाचार्य, क्यों?(उतरार्द्ध), पृष्ठ 217, जिसमें स्मृतियों में उल्लेखित "मेद" जाति का अर्थ "मेघ" ही किया है। साथ ही देखें: मेघवंश, इतिहास और संस्कृति, भाग 3) सिंधु सौवीर में लिखा है कि मेघ पुराने समय से अरब में भी रहते थे और ईरान की सेना में भी थे।

                                18 वीं शताब्दी में मुगलों के अवसान के बाद अराजकता की एक लंबी अवधि के बाद, 1799 में सिख साम्राज्य ने पंजाब क्षेत्र के अधिकांश हिस्से को एकीकृत किया। द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के बाद 1849 में ब्रिटिश इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त की और 1857 में पंजाब प्रांत बनाया गया। 1947 में, बड़े पैमाने पर हिंसा के बीच पंजाब का विभाजन हुआ।

                                मेघों की स्थिति :  इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि प्राचीन सिंधु हड़प्पा संस्कृति के जनक भी मेघ लोग रहे है।  वैदिककालीन भारत में मद्रजनों का उच्च स्थान था। प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि उत्तर भारत के ऋषि वेदाध्ययन के लिए मद्र जनपद जाया करते थे। वृहदारण्यक 3/1/7 में उद्दालक आरुणि ने याज्ञवल्क्य से कहा है कि मैं यज्ञाध्ययन के लिए मद्र जनपद में पतञ्जल  कापेय्य के घर रहता था। ऐतरेय ब्राह्मण 8/14/3 में मद्र के एक भागविशेष का नाम उत्तरमद्र भी मिलता है । वह हिमालय के आगे उत्तर कुरु के समीप था। (आचार्य राधा रमण पाण्डेय, सिद्धान्तकौमुदी- अर्थप्रकाशिका, वाराणसी, 1966, पृष्ठ 19-20)। महाकाव्यों के युग में मद्र/मेघों की हीन होती स्थिति का वर्णन हमें कर्ण शाल्य संवाद में मिलती है।

                                जब इस भूभाग में अरबों का आक्रमण होने लगा और मुस्लिम धर्म का प्रचार हुआ तो उसका प्रबल प्रतिरोध इन्हीं मेघों ने किया। अरबों ने इन मेघों का जिक्र मेद नाम से किया है। स्मृतियों में इनका उल्लेख मेद नाम से मिलता है। अत्रि स्मृति, यम स्मृति और अंगिरा स्मृति आदि ग्रंथों में उन्हें अन्त्यज घोषित किया हुआ मिलता है। अर्थात चारों वर्णों से बाहर के लोग। [देखें: प. माध्वाचार्य, क्यों?(उतरार्द्ध), पृष्ठ 217, जिसमें स्मृतियों में उल्लेखित "मेद" जाति का अर्थ "मेघ" ही किया है। साथ ही देखें: मेघवंश, इतिहास और संस्कृति, भाग 3)

                             उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में  मेघ (या मेघवाल) समुदाय मुख्य रूप से उत्तर-पश्चिमी भारत, विशेषकर पंजाब, राजस्थान, गुजरात, जम्मू कश्मीर और हरियाणा में आबाद था और वर्तमान में भी निवास करता है। परंपरागत रूप से, मेघों का मुख्य व्यवसाय बुनाई, कृषि, और पशुपालन रहा है। उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में सामाजिक रूप से, उन्हें निम्न या दलित जाति माना जाता था, और वे हिंदू समाज में अछूतपन और सामाजिक भेदभाव का सामना करते थे। फ़लतः उन्नीसवीं बीसवीं शताब्दी में मेघ समाज में बड़ी हलचल हुई। इसकी शुरुआत पंजाब से मानी जाती है। 

                              पंजाब के मेघों का हमेशा सेना में भी प्रतिनिधित्व रहा है। रणजीतसिंह की सेना हो या गुलाबसिंह की सेना हो। इनमें मेघों को अलग रेजिमेंट होने का जिक्र सेना के इतिहास में मिलता है। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) में अंग्रेजों की सेना में मेघों ने अदम्य साहस का परिचय दिया था। इसलिए द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में अंग्रेजों की फौज में मेघों की विशेष भर्ती किए जाने का विशेष आदेश इंपीरियल सरकार ने 1941 में निकाला और पंजाब के बहुत से मेघ द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिक के रूप में भर्ती हुए और सेना में उच्च पदों तक भी पहुंचे।

                               देश की आजादी से पहले पंजाब में छोटी बड़ी 40-45 रियासतें थी उस में सेपंजाब की कुछ प्रमुख रियासतें यह थी :  1. जम्मू कश्मीर : रणवीरसिंहपुरा, मीरपुर, नौशहरा, श्रीनगर, जम्मू, रामपुरजौरी, रणवीर गंज, व्यास, अनंतनाग, उधमपुर, बरहाल, बाजार खाता, रहमतगंज, बजोही।

2. पटियाला रियासत : राजपुरा, बानोड़, बाना, भटिण्डा, रामामण्डी, बरनाला, राजपुरा, गढ़नवा, भदोड़, बस्सी, सरहिन्द, निरवाना, पटियाला, नारनोल, भावा, पायल, सनाम, शुद्धकाइन, माहिलकलां, चांगली, मण्डीरामां, पटियाला सरहद, कलो हाकला और मानसा।

3. जीन्द रियासत : जिंद, बागड़, हरीगढ, सफेदौ, जीन्दस्टेशन, वैरी, छाड़ा जीन्द, संगतपुर, खेड़ी जाजवा, सिरसीकलां, इलाका दादरी।

4. मलेरकोटला रियासत : मलेरकोटला, धुनेर जिंद

5. नाभा, 6. फरीदकोट, 7. कांगड़ा, 8. चंबा, 9. सिरमौर, बहावलपुर, खैरपुर आदि।

                                19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में, मेघ समुदाय पर आर्य समाज का गहरा प्रभाव पड़ा। 1910 तक, पंजाब के स्यालकोट में लगभग 36,000 मेघ आर्य समाजी बन गए थे। आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन के माध्यम से मेघों को हिंदू धर्म के वैदिक सिद्धांतों से जोड़ा और उनकी सामाजिक स्थिति को ऊंचा करने का प्रयास किया। इस प्रक्रिया में, मेघों को शिक्षा, सामाजिक समानता, और धार्मिक सुधारों के अवसर प्रदान किए गए।मेघ समुदाय ने आर्य समाज के अलावा कबीरपंथ और संतमत जैसे समतावादी धार्मिक आंदोलनों को भी अपनाया, जो जाति व्यवस्था और धार्मिक भेदभाव के खिलाफ थे। पंजाब में, मेघों ने आर्थिक रूप से भी प्रगति की। विशेषकर अमृतसर, जालंधर, और लुधियाना जैसे शहरों में, वे खेल उपकरण, होजरी, और शल्य-चिकित्सा उपकरणों के उत्पादन में शामिल हुए। कुछ मेघों ने छोटे व्यवसाय और लघु उद्योग भी स्थापित किए। भूमि सुधारों के बाद, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में कई मेघ छोटे किसान बन गए।

                                दलितोद्धार के क्षेत्र में आर्य समाज क्रांति लाया है। अब छूत-छात पंजाब प्रान्त में कहीं-कहीं है तो सही, पर आखिरी साँसों पर। आर्य समाज के दलितोद्धार की विशेषता यह हैं कि इसका आधार धार्मिक है। अस्पृश्यता चली ही धामिक भ्रान्तियों के कारण है। इसका वास्तविक प्रतिकार धर्म ही के रास्ते हो सकता है। आर्थिक संकट केवल अछूतों पर नहीं, और समुदायों पर भी हैं।

                                इस शताब्दी के पहले देशक में जब आर्य समाज' स्यालकोट अस्पृश्य समझी जानेवाली मेघ जाति के उद्धार का प्रयास कर रहा था और आर्य मेघोद्धार सभा” की स्थापना हो रही थी, उसी समय प्रेमचन्द जी ने अपने उर्दू उपन्यास 'जलवा-ए-ईसार' (वरदान) में इस समस्या को उठाया था। अतः यह स्पष्ट है कि प्रेमचन्द जी इस समस्या के विवेचन में भारतीय राजनीति में गांधी जी के आगमन से पहले ही लगे हुए थे। इस विषय में उन पर प्रथम और प्रबल प्रभाव आर्यसमाज का ही था।

                                                                फिरोजपुर, जगाधरी, 

                               गुजरांवाला में 1902 में गुरुकुल खोला गया।


                                मीरपुर रियासत : यहां पर श्रावण 13, विक्रम संवत 1969 को शुद्धि का भगतमल और रामदिता मल ने कार्यक्रम करके 117 (वशिष्ठ) आदमियों को  आर्य बनाया। थोड़े समय बाद एक नामधारी ब्राह्मण ने शुद्ध हुए एक आर्य की जबरदस्त पिटाई की। यज्ञोपवीत तोड़ दिया। लोहे का गर्म पतरा करके शरीर पर फेंका गया। अदालत में केस चला पीटने वालों को छः छः महीने की सजा हुई।

 होशियारपुर : 8 जुलाई 1915 को आर्यसमाज की स्थापना हुई और 13 जुलाई 1915 को 2000 क़बीरपंथियो ने आर्य समाज में प्रवेश लिया और बाद में इसके आसपास के क्षेत्रों में भी मेघ क़बीरपंथी आर्य बने। उनकी शिक्षा के लिए प्राइमरी स्कूल लड़ौली में प्रबंध किया। और मौजे गुडेत में 1913 में स्कूल खोला। मौजे भेड़ा, मौजे बजवाड़ा, मौजे हार, मौजे डांडिया आदि में भी स्कूलों का प्रबंध किया। जिसमें क़बीरपंथी मेघ बच्चे पढ़ने गए।

दीनापुर और गुरदास पुर में डोम जाति के लोगों की शुद्धि हुई। फिर मेघ भी आर्य बने। लाहौर के पंडित रामभज दत्त और बंशीलाल ने महाशयों की शुद्धि की। वहां स्कूल भी खोला। 

भटिंडा में उस समय शुद्धि नहीं हुई, परंतु शुद्ध हुए महाशयों को भटिंडा भेजा गया। ऐसा वर्णन मिलता है।

इंद्रप्रस्थ में अछूत सुधार सभा बनी।

अमृतसर : 1900-1920 के दशक में अमृतसर, पंजाब का एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र होने के कारण, आर्य समाज की गतिविधियों का प्रमुख स्थल था। यहाँ मेघ समुदाय के बीच शुद्धिकरण कार्य हुआ, हालांकि विशिष्ट संख्या के बारे में स्पष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अनुमान है कि कई हज़ार मेघों को शुद्धि के माध्यम से हिंदू धर्म में पुनः एकीकृत किया गया। प्रभाव: अमृतसर में मेघों ने न केवल धार्मिक सुधार अपनाए, बल्कि आर्थिक गतिविधियों जैसे होजरी और खेल उपकरण निर्माण में भी भाग लिया।

पंजाब डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: जालंधर (1981, p 73) के अनुसार पंजाब की 37 अनुसूचित जातियों की जनसंख्या में जालंधर जिले में आदि धर्मी, वाल्मीकि और रामदासी के बाद सर्वाधिक जनसंख्या मेघों की है। सन 2011 की जनगणना में जालंधर जिले में मेघों की कुल जनसंख्या 32561 दर्ज की गई थी। अठारहवीं शताब्दी तक त्रिगर्त प्रदेश के जालंधर क्षेत्र में मेघों का अधिपत्य था और यह क्षेत्र मेघवाड़ परगना कहा जाता था। ( Proceedings of Indian History Congress, Third Session, Calcutta, 1939, p 1180) सिख सत्ता के उत्थान के समय सन 1758-59 में जब जस्सासिंह आहलूवालिया ने कपूरथला के राय इब्राहिम को परास्त किया। उस समय मेघवाल परगना का भी अस्तित्व खत्म हो गया।

जालंधर : 1910-1930 के दशक में जालंधर में भी आर्य समाज ने मेघ समुदाय को लक्षित किया। यहाँ शुद्धिकरण की प्रक्रिया में सामूहिक संस्कार और सामाजिक समानता पर जोर दिया गया। विशिष्ट संख्या के बारे में जानकारी सीमित है, लेकिन यह अनुमानित है कि हज़ारों मेघों ने शुद्धि प्रक्रिया में भाग लिया। जालंधर में मेघ समुदाय ने आर्य समाज के स्कूलों और सामाजिक सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा और सामाजिक गतिशीलता प्राप्त की।

अन्य स्थान (फिरोजपुर, लुधियाना, और आसपास के क्षेत्र) फिरोजपुर और लुधियाना जैसे छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी मेघ समुदाय के बीच शुद्धिकरण कार्य हुआ। इन क्षेत्रों में शुद्धि सभाओं और सामाजिक सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से मेघों को हिंदू धर्म में पुनः एकीकृत किया गया। संख्या के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है, लेकिन अनुमान है कि कुछ सौ से हज़ारों मेघ इन क्षेत्रों में प्रभावित हुए।प्रभाव: इन क्षेत्रों में मेघ समुदाय ने शिक्षा और आर्थिक गतिविधियों में प्रगति की।

वर्तमान कपूरथला जिला भी त्रिगर्त प्रदेश में आता था। कपूरथला में आदधर्मी सर्वाधिक है, उसके बाद वाल्मीकि और चमार जनसंख्या है। मेघों की जनसंख्या सैकड़ों में सिमटी हुई है।

गुरुकुल गुजरांवाला:  गुजरांवाला में 1902 में गुरुकुल खोला गया।गुरुकुल गुजरांवाला में दो मेघ बालक निःशुल्क दाखिल किये गये, और वहाँ उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। सन्‌ 1906 में लाला ज्ञानचन्द्र पुरी ने मेघ बालकों को वेदशास्त्रों की शिक्षा दिलाने के सम्बन्ध में कुछ लेख "प्रकाश" पत्र में प्रकाशित किये, जिन्हें पढ़कर डेरा इस्माईल खाँ के पुस्तक विक्रेता श्री सायरूसिंह ने गुरुकुल काँगड़ी में एक मेघ बालक को शिक्षा दिलाने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान कर दी। इससे "आर्य भक्त" महाशय केसरचन्द के पुत्र ईश्वरदत्त को गुरुकुल में प्रविष्ट कराया गया, और वह वहाँ चौदह वर्ष नियमपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर सन्‌ 1924 में स्नातक हुए। इस प्रकार आर्यसमाज के प्रयत्न से जो मेघ बालक उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकने में समर्थ हो गये थे, उनमें अछूतपना नाम की भी नहीं रही। उनके विवाह उच्च जातियों में हुए और अध्यापक सदृश प्रतिष्ठित पदों पर उनकी नियुक्ति हुई। (आर्य समाज का इतिहास, भाग दो, पृष्ठ 120)


गुरदासपुर में पंडित रामभज दत्त ने शुद्धि कर मेघों का आर्य समाज में प्रवेश कराया। 

होशियारपुर में भी शुद्धि का अभियान चला और मेघ आर्य समाजी बने। 

                                आर्य समाज के कार्यों से जम्मू गुरुदासपुर, मुलतान, फीरोजपुर, सियालकोट, शिमला, लाहौर, लुधियाना, किस्टवार, मीरपुर, बटाला और रामसू के मेघों में जागृति आई। महात्मा गांधी तथा काँग्रेस द्वारा संचालित हरिजन आन्दोलन के कारण बाद में इनके कार्ये में कुछ शिथिलता आने लग गयी थी । लोग गांधीजी के हरिंजन आन्दोलन की ओर अधिक आकर्षित होने लगे।

सियालकोट के डेस्का और जफरवाल में मेघ सभाएं स्थापित हुई। पंडित लेखराम और आलाराम का योगदान रहा।

कोट नैना, शक्कर गढ़, 

लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान, तत्कालीन पंजाब)समय: 1900-1920 के दशक में लाहौर आर्य समाज का एक प्रमुख केंद्र था, और यहाँ मेघों सहित अन्य निम्न जातियों के बीच शुद्धि कार्य हुआ। लाहौर में शुद्धि सभाएँ आयोजित की गईं, जिनमें मेघ समुदाय के सैकड़ों लोग शामिल हुए। विशिष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन कई सौ से हज़ारों मेघों के शुद्धिकरण की संभावना है। प्रभाव: लाहौर में मेघ समुदाय ने आर्य समाज के प्रभाव से धार्मिक और सामाजिक सुधारों को अपनाया। लाहौर में भी आर्य शुद्धि का अभियान चला और वहां पर मेघ सभा का गठन हुआ। लाहौर में रावी नदी के किनारे डिप्रेस्ड क्लासेज मिशन की ओर से एक बहुत बड़ा प्लॉट खरीदा गया और सेंट्रल स्कूल शुरू की गई।

                       उपलब्ध जानकारी के आधार पर, 1900 से 1930 के दशक तक पंजाब में मेघ समुदाय के लाखों लोगों ने शुद्धि आंदोलन के तहत प्रभावित होने की संभावना है। विशेष रूप से स्यालकोट में 36,000 मेघों का शुद्धिकरण एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। अन्य क्षेत्रों में भी हज़ारों मेघ इस प्रक्रिया से जुड़े। शुद्धिकरण की प्रक्रिया में सामूहिक संस्कार, यज्ञ, और वैदिक शिक्षा शामिल थी, जिसके माध्यम से मेघों को सामाजिक और धार्मिक रूप से ऊंचा उठाने का प्रयास किया गया।

                                करांची--एक मेघ सुधार सभा स्कूल आर्य समाज के आधीन । काम लाला लाजपतराय व लाला जसवन्तराय को आधीनता में होता था। (आर्य दर्शियित्री, 1918,  पृष्ठ 75)

                                लाहौर--- आर्य सभा की स्थापना 1885 में हुई और पंजीकरण 1895 में हुआ। इसका मुख्यालय गुरुदत्त भवन, रावी रोड, भाटी दरवाजे के पास लाहौर था। इस सभा में कुछ मेघ लोग उपदेशक और भजनीक थे। 1 जून 1886 में एक विद्यालय खोला और 1 जून 1886में कॉलेज खोला गया। यहां दर्जी और बढ़ईगिरी की क्लासेज लगती थी।

                                पंजाब सिंध बलूचिस्तान: प्रमुख महात्मा हंसराज, मंत्री लाला रामानंद। इसमें भी वैतनिक और अवैतनिक उपदेशक और भजनीक थे।

                               मुल्तान में महात्मा मुंशीराम द्वारा गुरुकुल 10 अप्रैल 1909 को खोला गया।

                                आजादी के समय बहावलपुर, खैरपुर आदि रियासतें पाकिस्तान में मिली। कुल मिलाकर, पंजाब की अधिकांश रियासतें, लगभग 40-45 में से 90%, भारत में शामिल हुईं, क्योंकि वे भारतीय पंजाब, हरियाणा, या हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में थीं। भारत में विलय: पटियाला, नाभा, जींद, कपूरथला, फरीदकोट, मालेरकोटला, कांगड़ा, चंबा, सिरमौर, बिलासपुर, मंडी, सुकेत, और अन्य छोटी रियासतें। 

सन 1948 में PEPSU का गठन हुआ, जिसमें पंजाब और पूर्वी पटियाला रियासत। 1956 में पंजाब बना जिसमें 

हिमाचल प्रदेश की रियासतें: कांगड़ा, चंबा, सिरमौर, बिलासपुर, मंडी, और सुकेत जैसी पहाड़ी रियासतें हिमाचल प्रदेश के गठन का हिस्सा बनीं। 1947 में भारत की आजादी के बाद, पंजाब की पहाड़ी रियासतें जैसे चंबा, सिरमौर, बिलासपुर, मंडी, सुकेत, और कांगड़ा आदि को मिलाकर 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल प्रदेश को एक केंद्र-शासित प्रदेश के रूप में गठित किया गया और 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। भाषाई आधार पर पंजाब से अलग होकर 1966 में हरियाणा (जैसे हिसार, रोहतक, गुड़गांव, और करनाल) राज्य बना। 

सन 2011 की जनगणना के अनुसार पंजाब में अनुसूचित जातियों की कुल जनसंख्या 8859179 में मेघों की कुल जनसंख्या 141023 दर्ज की गई थी। जो अनुसूचित जातियों का 1.59% होता है। इसके अलावा 84711 क़बीरपंथी के रूप में दर्ज है। जो 1% से भी कम है। मेघ और क़बीरपंथी की संयुक्त आबादी 225734 होती है, जो पंजाब की समस्त अनुसूचित जातियों की जनसंख्या का 2.54% होता है। 

                     पंजाब के 20 जिलों (2011) में मेघों की सर्वाधिक जनसंख्या 46687 फिरोजपुर में दर्ज की गई है। उसके बाद क्रमशः जालंधर 32561,

                      गुरदासपुर 31829,

                       मुक्तसर 13807,

                      अमृतसर 7188,

                       लुधियाना 5039,

                       होशियारपुर 1281,


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Megh convertion

 Abrogation of impurity : 

"Again, there is abrogation of impurity when a person changes his religion. A Mehtar or Chamar when he becomes a Christian or Musalman loses with his religion the impurity attached to him. An interesting ease in point is that of Meghs, which occurred in the Punjab some time ago when a party of Megh coolies working on a railway line wanted to draw water from a well, for they were very thirsty. A high caste neighbour objected and raised a hue and cry. No other source of drinkable water was accessible in the neighbourhood and the coolies in indignation and despair hit upon a plan which made the water available to them in a couple of hours. Muhammadans could draw water from the well, but not the Meghs. The coolies therefore went to the nearest mosque, embraced Islam and returned with a party of Musalmans to the well and the high caste Hindu at once yielded. Some time ago 30,000 Meghs were reclaimed. They have gained in ‘social status, which they could not do under ordinary circumstances without becoming a Muhanimadan or Christian." (Man In India Vol.3, March-June, 1923, P 71)

 The most beneficial work ever undertaken by the Sialkot Arya Samaj is the uplifting and reclamation of the depressed classes or the "untouchables," such as Meghs. For years the Sialkot Arya Samaj was the centre of attraction for the Meghs of the Punjab. The first "purification" ceremony of 200 Meghs was performed by Swami Satyananda Saraswati at the anniversary meeting of the Arya Samaj in Sialkot on the 28th and 29th March 1903. After purification the Meghs called themselves "Arya Bhagats". Over 40,000 (forty thousand) Meghs have so far, been brought into the fold of the Arya Samaj in various districts. The branch of the Samaj is, to which this work is entrusted, is called "Arya Megh Uddhar Sabha." The objects of this society are to raise the social status of the Meghs, to better their economic condition, to provide facilities for their education — religious, secular and industrial. This society was registered under the Charitable Societies Act, XXI of 1860 on the 13th day of June, 1912. The Government has, granted about 50 rectangles of canal-irrigated land to the society for the betterment of the Arya Meghs."  "There are five Arya Megh schools maintained by the Arya Megh Uddhar Sabha, Sialkot,.." (Punjab District Gazetteers Sialkot District Vol.23 Pt.a, Govt Press, Lahore, 1920, p 55, 202)


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मेघों में से क्या कोई सेना में उच्चतम पद तक पहुंचा है?

Sunday, May 21, 2023

 मेघों में से क्या कोई सेना में उच्चतम पद तक पहुंचा है?

                        सौर्स तारा राम गौतम भारत और पाकिस्तान में मेघ सघन रूप में निवास करते है। विभाजन से पहले इन क्षेत्रों में आपसी शादी-ब्याह और सामाजिक-धार्मिक रिश्ते रहे है। अभी भी है, परंतु अब वे आपसी संबंध नहीं है। दोनों की राष्ट्रीयता अलग-अलग हो चुकी है, फिर भी सदियों से उनकी परंपराएं कमोबेश एकसी ही है। उन्होंने राष्ट्र निर्माण में, चाहे वह भारत हो या पाकिस्तान, उसमें बहुत बड़ा योगदान दिया है। हकीकत यह है कि मेघ सिंध की एक आद-कदीमी कौम है। कनिंघम आदि पुरातत्व इतिहासवेत्ताओं ने इनका मूल उद्गम सतलज नदी और चेनाब व रावी नदी के मुहानों को माना है। मेघों के कारण ही सतलज नदी को प्राचीन काल में मेगारसस रिवर कहा जाता था, जहां पोरस और सिकंदर की भिड़ंत हुई। मेघ (मेग) हड़प्पा की सभ्यता का भी सृजक माने जाते है। प्राचीन काल में मेघों के स्वतंत्र गण रहे है और तब से ही मेघ देशी रियासतों की सेना में भी रहे है और अब भी है। 

                       विभिन्न स्रोतों को टटोलने से यह ज्ञात होता है कि सेना में मेघों की भागीदारी तो रही है, परंतु वह बहुत कम ही रही है। हकीकत यह है कि जब भी सेना में सेवा के माध्यम से इनको देश सेवा का मौका मिला है, उन्होंने अदम्य साहस और धैर्य का परिचय दिया है। 

                     अखंड भारत में कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह के समय अफ़ग़ानों के विरुद्ध लड़े गए युद्ध में मेघों ने अपने शौर्य और पराक्रम का बेमिसाल परिचय दिया था। जिसकी चहुं ओर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई। उस समय ब्रिटिश सेना नायकों ने सेना का जो इतिहास लिखा है, उसमें इनका जिक्र मिलता है। उससे भी पहले महाराजा प्रवरसेन के समय में भी मेघों ने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया था। इन सबका मिलिट्री इतिहास में यत्रतत्र उल्लेख हुआ है।

                       मारवाड़ में राजपूतों के आगमन से पहले मेघों की यहां सघन बस्तियां थी और स्वतंत्र गण के रूप में ये यहां आबाद थे। जोधपुर की स्थापना के समय जिस राजाराम मेघवाल की बात की जाती है, उसके पूर्वज भी सिंध से जैसलमेर होते हुए जोधपुर आये थे और मंडोर के पास अपना स्वतंत्र गण स्थापित किया था।  जोधपुर की मंडोर तहसील का एक भाग अभी भी 'मेगारावटी' कहलाता है। जोधपुर रियासत में मेघवाल लोग महाराजा के अंगरक्षकों और संदेशवाहकों के रूप में सेवाएं देते रहे है। ऐसा उल्लेख रियासत के कई दस्तावेजों में मिलता है।

                      प्रथम विश्वयुद्ध व द्वितीय विश्वयुद्ध में भी मेघों की भागीदारी रही है। द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में पंजाब और मारवाड़ से मेघों की सेना में विशेष भर्ती की गई थी। जिसका उल्लेख भी ब्रिटिश इंडियन आर्मी पर लिखी गयी कुछ पुस्तकों में हुआ है।

                       पाकिस्तान की सेना में मेघों की स्थिति क्या है, इसका ठीक-ठीक पता नहीं है, परंतु स्वतंत्र भारत में मेघ/मेघवालों की सेना में सदैव न्यूनाधिक भागीदारी रही है और कई जवान सेना की उच्चतम रैंक तक पहुंचे है।  भारत की सेना में ब्रिगेडियर रैंक तक मेघ लोग पहुंचे है। इन में  मेघ ब्रिगेडियर आत्माराम एक प्रमुख दिग्गज है।

                        ब्रिगेडियर आत्मारामजी जी का परिवार मूलतः जम्मूकश्मीर का रहने वाला था, वहां से वर्तमान पाकिस्तान के स्यालकोट के पास के किसी गांव में रहने लगा था और देश का विभाजन होने पर वे भारत के पंजाब में आ बसे थे।  पंजाब में उनका परिवार जालंधर में आ बसा था और  जैसा मुझे कर्नल तिलकराज ने बताया आत्मारामजी का परिवार उनका पड़ौसी था। श्री आर एल गोत्रा जी भी उसी कॉलोनी में रहते थे। उन्होंने बताया कि आत्मारामजी छोटी उम्र में ही सेना में सिपाही क्लर्क के पद पर भर्ती हो गए थे और आंतरिक परीक्षा देकर वे कमीशण्ड अफसर बन गए थे और अपने साहस व शौर्य के बल पर ब्रिगेडियर पद तक पहुंचे।

                       सन 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय वे युद्ध के इलाके में तैनात थे। युद्ध में हुए ब्लास्ट में उनका कंधा और एक आंख जख्मी हो गयी थी। उनके एक नकली आंख लगाई गई। यह बात युद्ध-समाप्ति के बाद स्वयं आत्मारामजी ने आर एल गोत्रा जी को बताई थी, जब युद्ध समाप्ति के बाद वे मिले और एक-दूसरे का हालचाल जाना। युद्ध के समय गोत्राजी की ड्यूटी भी जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र में ही थी।

                    आत्मारामजी को वीर चक्र प्राप्त हुआ था। ऐसा उनके मिलनसार मित्र कर्नल तिलकराज जी ने मुझे बताया। सन 1971 की लड़ाई के बाद कर्नल तिलकराज और आत्मारामजी की मुलाकात हुई थी। उन्होंने यह भी बताया कि आत्माराम जी ने अंतरजातीय विवाह किया था। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि वे खुद 1971 के वार के समय कश्मीर बॉर्डर पर तैनात थे। आत्माराम जी ने जम्मू-कश्मीर के सेना में कार्यरत एक जाट अफसर की पुत्री से अंतरजातीय विवाह किया था। चूंकि उन्होंने एक जाट युवती से शादी की थी, अस्तु कई लोग उन्हें एक जाट के रूप में ही जानते थे, जबकि मूलतः वे डोगरा 'मेघ' थे। कर्नल तिलक राज जी ने बताया कि उनकी अंतिम मुलाकात हुई तब आत्मारामजी ब्रिगेडियर बन चुके थे। पिछले 50 वर्ष से उनकी कोई मुलाकात नही हुई है।

                      आत्माराम जी के एक अन्य परिचित श्री आर एल गोत्रा जी (हाल ऑस्ट्रेलिया निवासी), जो अभी अप्रैल-मई 2023) अपने इलाज के लिए जालंधर (भारत ) आये हुए है, उन्होंने मुझे बताया कि बचपन में वे जालंधर में साथ में खेलते-कूदते थे। आत्माराम उनसे दो-चार साल छोटे थे। आत्मारामजी से बड़े दो भाई थे। वे भी पंजाब सरकार की सेवा में आ गए थे। उन्होंने यह भी बताया कि उनका परिवार स्यालकोट से 1947 में भारत आया और मेघ आत्माराम का परिवार, जो स्यालकोट के पास के किसी गांव के रहने वाले थे, वह भी उसी समय भारत आया। शरणार्थी केम्पों में भी आसपास ही रहते थे। श्री गोत्राजी ने यह भी बताया कि उनकी नौकरी लग जाने के बाद जब आत्मारामजी से मुलाकात हुई तब आत्माराम से ही मालूम हुआ था कि उसकी भी नियुक्ति आर्मी में सैनिक-क्लर्क के पद पर हो गयी है। आर्मी के सेवा नियमों के अनुसार विभागीय परीक्षा पास करने पर वह शीघ्र ही कमीशंड अफसर बन गया था।  सन 1971 की लड़ाई के बाद भी उनकी मुलाकात आत्मारामजी से हुई थी। तब उससे मालूम हुआ कि युद्ध में हुए ब्लास्ट से उसकी एक आंख चली गयी थी। यह बात आत्मारामजी ने स्वयं गोत्राजी को बताई थी, ऐसा उन्होंने मुझे 12/13 मई 2023 को उनसे दूरभाष पर हुई वार्ता में बताया। उस समय वह आर्मी में मेजर बन चुके थे। गोत्राजी ने यह भी जानकारी दी कि एज दशक पूर्व (2011) आत्मारामजी के निकट संबंधी से उन्हें मालूम हुआ था कि रिटायरमेंट के बाद आत्मारामजी महाराष्ट्र में बस गए है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि पिछले 50 साल से आत्मारामजी से उनका कोई संपर्क नहीं हुआ है। अब पंजाब में रहने वाला उनके परिवार का कोई सदस्य उनकी जानकारी में नहीं है। यही बात कर्नल तिलक राज ने मुझे बताई है। 

                      ब्रिगेडियर आत्माराम, कर्नल तिलकराज और आर एल गोत्रा जी मेघ समाज से ही है और बचपन से एक-दूसरे को जानते थे और जलन्धर में एक ही मोहल्ले में रहते थे।

                       मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई है कि कर्नल राजकुमार मेघ भी आत्मारामजी को जानते थे। मेरा उनसे संपर्क नहीं हो पाया है।

                      मैंने यह सब यहां क्यों लिखा? मेरे लिखने का उद्देश्य यह है कि इस जाति के बारे में जो भ्रम फैलाया जाता है, उसको दूर करना हमारा दायित्व है। वर्तमान में भी कई मेघ/मेघवाल भारत की सेना में कमीसन्ड अफसर है, कई मेघ कप्तान और कर्नल रैंक में भी है। जोधपुर की शेरगढ़ तहसील से अभी दो जवान लेफ्टिनेंट पद पर कार्यरत है। कई लोग कैप्टन रैंक से सेवानिवृत्त हुए है। सियांधा (शेरगढ़) के पूंजाराम जी पहले आदमी थे, जो कप्तान रैंक तक पहुंचे थे।  वे पिछली शताब्दी के आठवें दशक में सेवानिवृत्त हुए थे, शायद सन 1980 से पहले और मेरे पिताजी से परिचित होने के कारण मैं भी उनको व्यक्तिगत रूप से जानता था। मेरे पिताजी द्वितीय विश्वयुद्ध में बतौर सैनिक अंग्रेजों की सेना में थे। मेरे ननिहाल से भी एक दर्जन मेघवाल लोग द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिक रहे है और कईयों ने उस युद्ध में शहादत दी। द्वितीय  विश्वयुद्ध के मेघ वीर सैनिक हरबंश जी और बलिराम जी भी कैप्टेन रैंक तक पहुंचे थे। लेकिन मेघों में ब्रिगेडियर रैंक तक पहुंचने वाले आत्मारामजी पहले व्यक्ति है। 

किसी की जानकारी में अन्य कोई हो तो उसे साझा करें।

 कुछ लोगों ने मुझे बताया कि वे लेफ्टिनेंट जनरल तक पहुंचे थे, परंतु उसकी पुष्टि नहीं हुई है, जबकि ब्रिगेडियर रैंक तक की पुष्टि कई स्रोतों से हुई है।

      इस संबंध में कोई ओर जानकारी हो तो साझा करें।


                        समय के साथ आत्मारामजी के परिवार ने पंजाब छोड़ दिया और अब उनकी जानकारी का कोई स्रोत नहीं है। इसमें जो फ़ोटो दिया है, उसे श्री आर एल गोत्रा जी ने स्वयं तस्दीक करके मुझे भेजा है। कर्नल तिलकराज ने भी इस फोटो की तस्दीक की है कि यह फोटो ब्रिगेडियर आत्मारामजी का ही है। इस हेतु गोत्राजी का आभार।


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मेघ डुग्गर की प्राचीन शासक कौम:

Wednesday, May 17, 2023

मेघ डुग्गर की प्राचीन शासक कौम:

सौर्स तारा राम गौतम। सांस्कृतिक दृष्टि से डुग्गर प्रदेश, भारत के उत्तर में अवस्थित वह पर्वतीय भूखण्ड है, जिसके अन्तर्गत जम्मू कश्मीर राज्य के जम्मू मंडल, पंजाब के होशियारपुर और गुरदासपुर जनपदों के पर्वतीय क्षेत्र, हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, चम्बा, मंडी, विलासपुर्‌ और हम्मीरपुर क्षेत्र तथा पाकिस्तान स्थित सियालकोट और जफरवाल तहसील के एक सौ सोलह गांव परिगणित होते है, किन्तु भारत विभाजन के बाद और भारत में राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात्‌ अब केवल जम्मू प्रान्त ही डुग्गर का पर्यायवाची माना जा रहा है। जहां पर मेघों की सर्वाधिक आबादी आज भी निवास करती है। यह विदित है कि डुग्गर क्षेत्र में मेघ जाति का प्राचीन काल से ही आधिपत्य रहा है और यहां प्राचीन काल से ही मेघों की सघन आबादी निवास करती रही है। भारत का विभाजन होने पर इस क्षेत्र के बहुत से लोग भारत के पंजाब, राजस्थान और अन्य प्रदेशों में आ बसे है, फिर भी वर्तमान में भी पाकिस्तान में भी इनकी बहुत बड़ी आबादी निवास करती है। विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों से यह ज्ञात होता है कि मेघ एक प्राचीन नागवंशीय जाति है और महाभारत की मद्र जाति की वंशधर कही गयी है। प्राचीन काल में हिमाचल का डुग्गर क्षेत्र 'मद्र देश' का ही भाग था, इसका पता हमें पद्मपुराण के पाताल खण्ड में आये विवरण से भी चलता है। डुग्गर के हिमता क्षेत्र में मिले एक त्रिशूल पर ब्राह्मी लिपि में विभुनाग और गणपति नाग का नाम उत्कीर्ण है। इससे भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यहां नागों/मद्रों का शासन था और यह भूमि इन लोगों से आबाद थी। लगभग 9वीं शताब्दी तक नागों/मद्रों के वंशधर मेघ यहां शासनारुढ़ थे। इसकी पुष्टि विभिन्न वंशावलियों से होती है। डुग्गर के इतिहास में उल्लेखित है कि "डुग्गर की एक और जाति जिस का उल्लेख लोककथाओं ओर दन्तकथाओं में आता है , वह "मेघ" है। डॉ सुखदेव सिंह चाडक का मत है कि मेघ जाति के लोग केवल डुग्गर में ही रहते है। अतः सम्भावना की जा सकती है कि ये खसों के साथ या उनसे भी पहले इस क्षेत्र में आये हों। इन की गणना किरात जातियों के अन्तर्गत नहीं की जा सकती है, क्योंकि इनकी जीवन शैली में शमान संस्कृति के चिह्न नहीं मिलते। मेघ कबीले के लोगों का रंग गेहूंआ और कद किरातों से कुछ बड़ा है। इन्होंने रावी नदी से लेकर मनावर तवी के मध्य कई बस्तियां बसाई और डुग्गर की अधिकांश भूमि पर आधिपत्य स्थापित किया। ये कृषि कर्म में बहुत रूचि लेते थे और पशु-चारण भी इनका व्यतसाय था। किरात कबीले की उपजातियां इन्हें अपने से श्रेष्ठ मानती थी, अतः ये लोग उनके लिए पूज्य रहे है ।" (डुग्गर का इतिहास, पृष्ठ 12) आठवीं-नौंवी शताब्दी में मेघों का आधिपत्य इस क्षेत्र में निर्बाध नहीं रहा। नवोदित राणाओं से उनकी लड़ाईयां होती रही। ऐसे में मेघों के कई कबीलों को प्रव्रजन भी करना पड़ा। परंपरा कहती है कि आज से बारह सौ वर्ष पूर्व मेघों और राणाओं के बीच सत्ता का संघर्ष था और संघर्ष में मेघों ने नवोदित राजपूतों के साथ अपना संगठन बनाया और नवोदित राणाओं को चुनौती दी। धीरे-धीरे मेघ राज सत्ता से दूर हो गए और अपनी सत्ता को राजपूतों को हस्तांतरित कर दिया। मेघों ने स्वतः राजपूतों को अपना शासक स्वीकार किया, न कि यह राजपूतों की मेघों पर विजय थी। इस तथ्य का उल्लेख डुग्गर के इतिहास में निम्नवत मिलता है: "लोक परम्परा के अनुसार आज से बारह सौ वर्षं पूर्व इस क्षेत्र में राणा प्रणाली का ही शासन था। राणा बहुत ही क्रूर थे, अतः स्थानीय लोग उन से बहुत दुःखी थे। इस इलाके मेँ जो लोग रहते थे, उन में मेघ कबीले के लोग अधिक संख्या में थे। उन्होंने भी अपना अलग राज्य स्थापित कर लिया था। जिस का सरदार भी 'मेघ' कबीले का था। किन्तु मेघ कबीले के सरदार को राणा बहुत तंग करते थे। वे उसके इलाके में घुस कर पशुओं को हांक कर ले जाते थे और जनः तथा धन की भी हानि करते थे। अन्ततः तंग आकर मेघ सरदार ने विलासपुर के चन्देल राजा वीर चन्द से सहायता मांगी । राजा वीरचन्द ने मेघ सरदार की सहायता के लिए अपने भाई गम्भीर चन्द को भेजा। गम्भीर चन्द ने मेघ कबीले के लोगों को सहायता से अत्याचारी राणाओं को इस क्षेत्र से भगा दिया। मेघ कबीले के सरदार ने राणाओं से मुवित पाने के बाद गम्भीरचन्द को ही इस क्षेत्र का राजा स्वीकार किया। इस प्रकार नवमीं शताब्दी में राजा गम्भीर राय ने इस राज्य की स्थापना की। उसने तवी नदी के तट पर 'चक्क' गांव को अपनी राजधानी बनाया। बारहवीं शताब्दी के लगभग गम्भीर राय के वंशज चंदेल राजाओं ने अपनी जाति के नाम पर लद्दा पहाड़ के नीचे एक सीढीनुमा मैदान में एक नये नगर की नीव रखी, जिस का नामकरण उन्होने चन्देल नगरी किया। बाद में चन्देल नगरी का ही नाम बदलते- बदलते चनैनी पडा । चनैनी के नामकरण के बाद हिमता या हियुंतां राज्य का नाम भी चनैनी राज्य पड गया। चनैनी राज्य का पुराना नाम हियुंता था। अतः इस राज्य के राजवंश के लोगों को हिंताल कहा जाने लगा।" (डुग्गर का इतिहास, पृष्ठ 155) वर्तमान में मेघ न तो एक शासक कौम है और न ही सवर्ण हिंदुओं में शुमार है। यह जम्मू की एक पिछड़ी जाति मानी जाति है और राज्य की अनुसूचित जातियों की सूची में मेघ और कबीरपंथी के रूप में सूचीबद्ध है।


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Meghs in Punjab Castes.

Saturday, September 19, 2020


 Meghs in ‘Punjab Castes’ – ‘पंजाब कास्ट्स’ में मेघ********      पत्रकार श्री देसराज काली ने मेरे ब्लॉग पर एक टिप्पणी के द्वारा बताया कि एक अंग्रेज़ सर डेंज़िल इब्बेटसन ने अपनी पुस्तक ‘पंजाब कास्ट्स‘में मेघों पर काफी लिखा है. बहुत पृष्ठ तो नहीं मिल पाए परंतु एक पैरा नेट से मिला है जिसे आपसे शेयर कर रहा हूँ. आज की पीढ़ी इस जानकारी से चौंक जाएगी. मेरी पीढ़ी भी चौंकेगी. ख़ैर! जो हो सो हो. जानकारी तो जानकारी ही होती है.

मैंने आज तक इतना ही जाना था कि मेघ परंपरागत रूप से केवल कपड़ा बनाने का कार्य रहे हैं. डेंज़िल ने स्पष्ट लिखा है कि मेघ जूते बनाने का कार्य करते रहे हैं यानि चमड़े के काम में ये थे. कई वर्ष पूर्व कहीं पढ़ा था कि मेघ कपड़े के जूते बनाते थे. उसका विवरण मैं नहीं जानता. आप उक्त पुस्तक के एक पृष्ठ की फोटो नीचे देख सकते हैं.


लिंक=http://archive.org/stream/panjabcastesbein00ibbeuoft#page/333/mode/2up

डेंज़िल की जानकारी संभवतः लॉर्ड कन्निंघम की पुस्तक “जियॉलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया” पर आधारित है. इन दोनों महानुभावों ने मेघों के बारे में वही लिखा प्रतीत होता है जो उस समय उनसे संबद्ध पढ़े–लिखे लोगों (जिनमें मेघ शामिल नहीं थे) ने उन्हें बताया था. यह भी ज़ाहिर है कि ये दोनों महानुभाव मार डाले गए लाखें मेघों की हड्डियों, उनके जलाए गए जंगलों, घरों, उन्हें ग़ुलाम बनाने की प्रक्रिया पर शोध करने नहीं निकले थे. तथापि उन्होंने जो भी लिखा है वह इतिहास का एक छोटा सा हिस्सा है और उसका अपना महत्व है. Source Tara Ram Goutam,Jodhpur,Rajasthan.


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Glossary of Tribes : A.S.ROSE