पंजाब के मेघ 3
"पंजाब" दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिम में एक भू-राजनीतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक क्षेत्र है, जिसका वर्तमान में पाकिस्तान का पंजाब प्रांत और भारत में पंजाब राज्य शामिल हैं। प्राकैतिहासिक और ऐतिहासिक प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक यहां मेघों की बस्तियां आबाद रही है। पंजाब क्षेत्र सभ्यताओं के शुरुआती उद्गम स्थलों में से एक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि पंजाब में मानव निवास का सबसे पहला साक्ष्य सिंधु और झेलम नदियों के बीच पोथोहर की सोन घाटी में मिलता है। आर्यों के इस क्षेत्र में प्रवेश से पहले यहां सिंधु हड़प्पा सभ्यता फल फूल रही थी। महाकाव्य युग में यहां के निवासियों को मद्र नाम से संबोधित किया जाता था। मद्रों का अपना जनपद था।
मद्र : मद्र जनपद का निर्णय पूर्णतया हो चुका है । मद्र लोग रावी-झेलम दोआब में रहते थे। उक्त दोआब को मद्र जनपद कहते थे। यह जनपद बाहीक का उत्तरी भाग था। इस जनपद की राजधानी शाकल (स्यालकोट) थी, जो कि आपगा (अय्यक) नदी के तट पर स्थित थी। यह छोटी नदी जम्मू की पहाड़ियों से निकलकर स्यालकोट होती हुई चेनाब से मिलती है। पतंजलि ने शाकल की गणना वाहीक ग्रामों में की है। यहां के निवासियों को बाहिक/बाल्हिक/वाह्लीक आदि नामों से पुकारा जाता था। संस्कृत और पालि भाषा में बाहिक या वाल्हिक को मेघ का पर्यायवाची बताया गया है। अर्थात उस समय वैदिक साहित्य में मेघों का वर्णन बाहीक या वाल्हिक लोगों के रूप में हुआ है। महाभारत काल में इस देश का राजा शल्य था। इस आधार पर महाभारतकालीन शल्य मेघों का पूर्वज कहा जा सकता है।
मत्स्यपुराण के अनुसार सत्यवान् के पिता अश्वपति ने भी इस जनपद पर शासन किया था। विद्वानों की धारणा है कि मद्रदेश भी बाहीक नाम से पुकारा जाता था। सम्भव है कि मद्र जनपद बाहीक का भाग होने के कारण उस नाम से भी सम्बोधित होता रहा हो। हेमचन्द्र के अभिधानचिन्तामणि के अनुसार इस जनपद का एक नाम टक भी था। बाहीकाष्टक्का नामानो बाह्लीका बाहिकाहवयां ।अर्थप्रकाशिकां चक्रवाळ--पा०सू०४।२।८० में इसकां नांम आया है बाहिकाहवयां: |”
जनरल कनिंघम ने लिखा है कि सम्भवतः यह जिला झेलम का वर्तमान चकवाल है। मेग और टक्क नाम के जन अब भी रावी के समीपवर्ती पर्वतों पर मिलते हैं। उनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। जनरल कनिंघम ने मेग और टक्कों को एक ही जाति का माना है।
पा. सू. 4/2/108 से विदित होता है कि पाणिनि (जर्नल एशियाटिक सोसायटी 1915 पृष्ठ 73) काल में यह जनपद दो भागों में विभक्त था--पूर्वमद्र तथा अपरमद्र। रावी तथा झेलम नदियों के मध्य में चेनाव नदी बहती हैं। चेनाव तथा रावी के मध्य का भाग (स्यालकोट तथा गुजरांवाला) पूर्वमद्र एवं चेनाब तथा झेलम के मध्य का भाग अपरमद्र कहलाता था । कथासरित्सागर में लिखा है-_“'शाकलं नाम मद्रेषु वभूव नगर पुरा चंद्रप्रभास्तत्रासीद्राजाङ्गारप्रभात्मजः। (44/17) उसी के आगे लिखा है “संगमं चन्द्रभागाया इरावत्याश्च यात्रा ते। स्थिताः सूर्यप्रभस्यार्थ राजानो मित्रबान्धवाः। (46/2) अर्थात शाकल (स्यालकोट) चन्द्रभागा (चेनाब) तथा इरावती (रावी) के संगम के समीप स्थित था।
रावी और सतलुज नदियों के बीच स्थित क्षेत्र को त्रिगर्त या त्रिगर्त-देश भी कहा जाता था, जो तीन नदियों से सिंचित भूमि है, ये तीन नदियां रावी, व्यास और सतलुज हैं। इसी प्रकार रावी और चेनाब के बीच स्थित क्षेत्र को द्विगर्त या दुग्गर-देश कहा जाता है, जो "दो नदियों से सिंचित भूमि है।" त्रिगर्त का नाम महाभारत और पुराणों में, साथ ही राजतरंगिनी या कश्मीर के इतिहास में भी मिलता है। हेमचंद्र ने इसे जालंधर का पर्यायवाची कहा है।
इस क्षेत्र में मुक्तेश्वर का मंदिर रहा है, मुक्तेश्वर को मेघों का पूर्वज कहा गया है अर्थात यहां के मेघ प्राचीन काल में अपने को मुक्तेश्वर का पूर्वज मानते थे (ASI four reports, vol 2, p 8-12)। त्रिगर्त और द्विगर्त अर्थात डुग्गर में प्राचीन काल से ही मेघों की सघन बस्तियां रही है। जम्मू कश्मीर के मेघों के इतिहास के प्रसंग में इसका उल्लेख कर दिया था। वर्तमान समय में भी मेघों की सघन आबादी इन्हीं क्षेत्रों में निवास करती है। सतलज का प्राचीन नाम मेगाद्रु था। मेघाद्रु अर्थात मेघों की नदी।
जिसे आज व्यास नदी कहते है, उस व्यास नदी का नाम भी महाभारत के वर्णन के अनुसार यहां निवास करने वाले बाही और हिका नाम के असुर के कारण बाहिका था। बाहिका नाम ही आगे जाकर ब्यास/व्यास नाम में बदल गया। महाभारत के समय सियालकोट का राजा बाहिक था। यहां के मेघ उस समय बाल्हिका या बाह्लीक कहे जाते थे और त्रिगर्त क्षेत्र के नाम से वे त्रिगर्ता भी कहे जाते थे। कश्मीर के राजा शंकरवर्मन के समय तक यहां मेघों का ही शासन था और उनका स्वतंत्र गण हुआ करता था।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में इस प्रदेश पर डेरियस का शासन था तो ईसा पूर्व 326 ई में सिकंदर का आक्रमण इस प्रदेश पर हुआ। उस समय इस भूभाग पर कई छोटे छोटे जनपद थे। मेगालए नामक जाति का भी जनपद था। जिसे अलेक्जेंडर कनिंघम ने आज की मेघ जाति से समीकृत किया है। पोरस तथा उसका भतीज छोटा पोरस, जिनका मुकाबला सिकंदर से हुआ था। वे इसी जाति के थे।
ह्वेनसांग के समय (सातवीं शताब्दी) शाकल के अवशेष पाये जाते थे। पा. सू. 4/3/228 पर वामन की व्याख्या से विदित होता है कि शाकल नाम का एक महान् गणितज्ञ वहाँ रहता था। पा. सू. 4/2/117 की व्याख्या में वामन ने शाकल के बाद मन्थू नाम के एक अन्य नगर का उल्लेख किया है जो कि सम्भवतः आधुनिक मुंड हो सकता है।
मद्र जनपद में जतिक नाम के जन भी रहते थे । सम्भवतः ये लोग जाटों के पूर्वपुरुष हो सकते हैं, क्योंकि वर्तमान काल में पंजाब के अधिकतर भागों में जाट पाये जाते हैं, लेकिन बहुत से इतिहासकार जटिक लोगों को जाटों से भिन्न मानते है। जतिक जन मद्र शासकों की प्रजा थे। कुछ विद्वानों ने जतिक तथा आरट को मद्र का पर्याय माना है, परन्तु इसका समर्थक कोई पुष्ट प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। आरट देश, घोड़ों के लिए प्रसिद्ध था। पञ्जाब के पूर्वोत्तर प्रदेश में आज भी उत्तम जाति के घोड़े पाये जाते है। रावलपिंडी में गुजरात के जन आज भी अपने जिले को हैरट अथवा ऐरट कहते हैं। यह आरट का विकृत रूप मालूम पड़ता है। राजतरङ्गिणी 5/150 में उल्लेख है कि टक्क देश गुर्जरराज (गुजरात का राजा) के अधीन था । पुराणों में टक्क का उल्लेख मिलता है।
जब इस भूभाग में अरबों का आक्रमण होने लगा और मुस्लिम धर्म का प्रचार हुआ तो उसका प्रबल प्रतिरोध इन्हीं मेघों ने किया। अरबों ने इन मेघों का जिक्र मेद नाम से किया है। स्मृतियों में मेघों का उल्लेख मेद नाम से मिलता है। अत्रि स्मृति, यम स्मृति और अंगिरा स्मृति आदि ग्रंथों में उन्हें अन्त्यज घोषित किया हुआ मिलता है। अर्थात चारों वर्णों से बाहर के लोग। [देखें: प. माध्वाचार्य, क्यों?(उतरार्द्ध), पृष्ठ 217, जिसमें स्मृतियों में उल्लेखित "मेद" जाति का अर्थ "मेघ" ही किया है। साथ ही देखें: मेघवंश, इतिहास और संस्कृति, भाग 3) सिंधु सौवीर में लिखा है कि मेघ पुराने समय से अरब में भी रहते थे और ईरान की सेना में भी थे।
18 वीं शताब्दी में मुगलों के अवसान के बाद अराजकता की एक लंबी अवधि के बाद, 1799 में सिख साम्राज्य ने पंजाब क्षेत्र के अधिकांश हिस्से को एकीकृत किया। द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के बाद 1849 में ब्रिटिश इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त की और 1857 में पंजाब प्रांत बनाया गया। 1947 में, बड़े पैमाने पर हिंसा के बीच पंजाब का विभाजन हुआ।
मेघों की स्थिति : इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि प्राचीन सिंधु हड़प्पा संस्कृति के जनक भी मेघ लोग रहे है। वैदिककालीन भारत में मद्रजनों का उच्च स्थान था। प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि उत्तर भारत के ऋषि वेदाध्ययन के लिए मद्र जनपद जाया करते थे। वृहदारण्यक 3/1/7 में उद्दालक आरुणि ने याज्ञवल्क्य से कहा है कि मैं यज्ञाध्ययन के लिए मद्र जनपद में पतञ्जल कापेय्य के घर रहता था। ऐतरेय ब्राह्मण 8/14/3 में मद्र के एक भागविशेष का नाम उत्तरमद्र भी मिलता है । वह हिमालय के आगे उत्तर कुरु के समीप था। (आचार्य राधा रमण पाण्डेय, सिद्धान्तकौमुदी- अर्थप्रकाशिका, वाराणसी, 1966, पृष्ठ 19-20)। महाकाव्यों के युग में मद्र/मेघों की हीन होती स्थिति का वर्णन हमें कर्ण शाल्य संवाद में मिलती है।
जब इस भूभाग में अरबों का आक्रमण होने लगा और मुस्लिम धर्म का प्रचार हुआ तो उसका प्रबल प्रतिरोध इन्हीं मेघों ने किया। अरबों ने इन मेघों का जिक्र मेद नाम से किया है। स्मृतियों में इनका उल्लेख मेद नाम से मिलता है। अत्रि स्मृति, यम स्मृति और अंगिरा स्मृति आदि ग्रंथों में उन्हें अन्त्यज घोषित किया हुआ मिलता है। अर्थात चारों वर्णों से बाहर के लोग। [देखें: प. माध्वाचार्य, क्यों?(उतरार्द्ध), पृष्ठ 217, जिसमें स्मृतियों में उल्लेखित "मेद" जाति का अर्थ "मेघ" ही किया है। साथ ही देखें: मेघवंश, इतिहास और संस्कृति, भाग 3)
उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में मेघ (या मेघवाल) समुदाय मुख्य रूप से उत्तर-पश्चिमी भारत, विशेषकर पंजाब, राजस्थान, गुजरात, जम्मू कश्मीर और हरियाणा में आबाद था और वर्तमान में भी निवास करता है। परंपरागत रूप से, मेघों का मुख्य व्यवसाय बुनाई, कृषि, और पशुपालन रहा है। उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में सामाजिक रूप से, उन्हें निम्न या दलित जाति माना जाता था, और वे हिंदू समाज में अछूतपन और सामाजिक भेदभाव का सामना करते थे। फ़लतः उन्नीसवीं बीसवीं शताब्दी में मेघ समाज में बड़ी हलचल हुई। इसकी शुरुआत पंजाब से मानी जाती है।
पंजाब के मेघों का हमेशा सेना में भी प्रतिनिधित्व रहा है। रणजीतसिंह की सेना हो या गुलाबसिंह की सेना हो। इनमें मेघों को अलग रेजिमेंट होने का जिक्र सेना के इतिहास में मिलता है। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) में अंग्रेजों की सेना में मेघों ने अदम्य साहस का परिचय दिया था। इसलिए द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में अंग्रेजों की फौज में मेघों की विशेष भर्ती किए जाने का विशेष आदेश इंपीरियल सरकार ने 1941 में निकाला और पंजाब के बहुत से मेघ द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिक के रूप में भर्ती हुए और सेना में उच्च पदों तक भी पहुंचे।
देश की आजादी से पहले पंजाब में छोटी बड़ी 40-45 रियासतें थी उस में सेपंजाब की कुछ प्रमुख रियासतें यह थी : 1. जम्मू कश्मीर : रणवीरसिंहपुरा, मीरपुर, नौशहरा, श्रीनगर, जम्मू, रामपुरजौरी, रणवीर गंज, व्यास, अनंतनाग, उधमपुर, बरहाल, बाजार खाता, रहमतगंज, बजोही।
2. पटियाला रियासत : राजपुरा, बानोड़, बाना, भटिण्डा, रामामण्डी, बरनाला, राजपुरा, गढ़नवा, भदोड़, बस्सी, सरहिन्द, निरवाना, पटियाला, नारनोल, भावा, पायल, सनाम, शुद्धकाइन, माहिलकलां, चांगली, मण्डीरामां, पटियाला सरहद, कलो हाकला और मानसा।
3. जीन्द रियासत : जिंद, बागड़, हरीगढ, सफेदौ, जीन्दस्टेशन, वैरी, छाड़ा जीन्द, संगतपुर, खेड़ी जाजवा, सिरसीकलां, इलाका दादरी।
4. मलेरकोटला रियासत : मलेरकोटला, धुनेर जिंद
5. नाभा, 6. फरीदकोट, 7. कांगड़ा, 8. चंबा, 9. सिरमौर, बहावलपुर, खैरपुर आदि।
19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में, मेघ समुदाय पर आर्य समाज का गहरा प्रभाव पड़ा। 1910 तक, पंजाब के स्यालकोट में लगभग 36,000 मेघ आर्य समाजी बन गए थे। आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन के माध्यम से मेघों को हिंदू धर्म के वैदिक सिद्धांतों से जोड़ा और उनकी सामाजिक स्थिति को ऊंचा करने का प्रयास किया। इस प्रक्रिया में, मेघों को शिक्षा, सामाजिक समानता, और धार्मिक सुधारों के अवसर प्रदान किए गए।मेघ समुदाय ने आर्य समाज के अलावा कबीरपंथ और संतमत जैसे समतावादी धार्मिक आंदोलनों को भी अपनाया, जो जाति व्यवस्था और धार्मिक भेदभाव के खिलाफ थे। पंजाब में, मेघों ने आर्थिक रूप से भी प्रगति की। विशेषकर अमृतसर, जालंधर, और लुधियाना जैसे शहरों में, वे खेल उपकरण, होजरी, और शल्य-चिकित्सा उपकरणों के उत्पादन में शामिल हुए। कुछ मेघों ने छोटे व्यवसाय और लघु उद्योग भी स्थापित किए। भूमि सुधारों के बाद, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में कई मेघ छोटे किसान बन गए।
दलितोद्धार के क्षेत्र में आर्य समाज क्रांति लाया है। अब छूत-छात पंजाब प्रान्त में कहीं-कहीं है तो सही, पर आखिरी साँसों पर। आर्य समाज के दलितोद्धार की विशेषता यह हैं कि इसका आधार धार्मिक है। अस्पृश्यता चली ही धामिक भ्रान्तियों के कारण है। इसका वास्तविक प्रतिकार धर्म ही के रास्ते हो सकता है। आर्थिक संकट केवल अछूतों पर नहीं, और समुदायों पर भी हैं।
इस शताब्दी के पहले देशक में जब आर्य समाज' स्यालकोट अस्पृश्य समझी जानेवाली मेघ जाति के उद्धार का प्रयास कर रहा था और आर्य मेघोद्धार सभा” की स्थापना हो रही थी, उसी समय प्रेमचन्द जी ने अपने उर्दू उपन्यास 'जलवा-ए-ईसार' (वरदान) में इस समस्या को उठाया था। अतः यह स्पष्ट है कि प्रेमचन्द जी इस समस्या के विवेचन में भारतीय राजनीति में गांधी जी के आगमन से पहले ही लगे हुए थे। इस विषय में उन पर प्रथम और प्रबल प्रभाव आर्यसमाज का ही था।
फिरोजपुर, जगाधरी,
गुजरांवाला में 1902 में गुरुकुल खोला गया।
मीरपुर रियासत : यहां पर श्रावण 13, विक्रम संवत 1969 को शुद्धि का भगतमल और रामदिता मल ने कार्यक्रम करके 117 (वशिष्ठ) आदमियों को आर्य बनाया। थोड़े समय बाद एक नामधारी ब्राह्मण ने शुद्ध हुए एक आर्य की जबरदस्त पिटाई की। यज्ञोपवीत तोड़ दिया। लोहे का गर्म पतरा करके शरीर पर फेंका गया। अदालत में केस चला पीटने वालों को छः छः महीने की सजा हुई।
होशियारपुर : 8 जुलाई 1915 को आर्यसमाज की स्थापना हुई और 13 जुलाई 1915 को 2000 क़बीरपंथियो ने आर्य समाज में प्रवेश लिया और बाद में इसके आसपास के क्षेत्रों में भी मेघ क़बीरपंथी आर्य बने। उनकी शिक्षा के लिए प्राइमरी स्कूल लड़ौली में प्रबंध किया। और मौजे गुडेत में 1913 में स्कूल खोला। मौजे भेड़ा, मौजे बजवाड़ा, मौजे हार, मौजे डांडिया आदि में भी स्कूलों का प्रबंध किया। जिसमें क़बीरपंथी मेघ बच्चे पढ़ने गए।
दीनापुर और गुरदास पुर में डोम जाति के लोगों की शुद्धि हुई। फिर मेघ भी आर्य बने। लाहौर के पंडित रामभज दत्त और बंशीलाल ने महाशयों की शुद्धि की। वहां स्कूल भी खोला।
भटिंडा में उस समय शुद्धि नहीं हुई, परंतु शुद्ध हुए महाशयों को भटिंडा भेजा गया। ऐसा वर्णन मिलता है।
इंद्रप्रस्थ में अछूत सुधार सभा बनी।
अमृतसर : 1900-1920 के दशक में अमृतसर, पंजाब का एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र होने के कारण, आर्य समाज की गतिविधियों का प्रमुख स्थल था। यहाँ मेघ समुदाय के बीच शुद्धिकरण कार्य हुआ, हालांकि विशिष्ट संख्या के बारे में स्पष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अनुमान है कि कई हज़ार मेघों को शुद्धि के माध्यम से हिंदू धर्म में पुनः एकीकृत किया गया। प्रभाव: अमृतसर में मेघों ने न केवल धार्मिक सुधार अपनाए, बल्कि आर्थिक गतिविधियों जैसे होजरी और खेल उपकरण निर्माण में भी भाग लिया।
पंजाब डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: जालंधर (1981, p 73) के अनुसार पंजाब की 37 अनुसूचित जातियों की जनसंख्या में जालंधर जिले में आदि धर्मी, वाल्मीकि और रामदासी के बाद सर्वाधिक जनसंख्या मेघों की है। सन 2011 की जनगणना में जालंधर जिले में मेघों की कुल जनसंख्या 32561 दर्ज की गई थी। अठारहवीं शताब्दी तक त्रिगर्त प्रदेश के जालंधर क्षेत्र में मेघों का अधिपत्य था और यह क्षेत्र मेघवाड़ परगना कहा जाता था। ( Proceedings of Indian History Congress, Third Session, Calcutta, 1939, p 1180) सिख सत्ता के उत्थान के समय सन 1758-59 में जब जस्सासिंह आहलूवालिया ने कपूरथला के राय इब्राहिम को परास्त किया। उस समय मेघवाल परगना का भी अस्तित्व खत्म हो गया।
जालंधर : 1910-1930 के दशक में जालंधर में भी आर्य समाज ने मेघ समुदाय को लक्षित किया। यहाँ शुद्धिकरण की प्रक्रिया में सामूहिक संस्कार और सामाजिक समानता पर जोर दिया गया। विशिष्ट संख्या के बारे में जानकारी सीमित है, लेकिन यह अनुमानित है कि हज़ारों मेघों ने शुद्धि प्रक्रिया में भाग लिया। जालंधर में मेघ समुदाय ने आर्य समाज के स्कूलों और सामाजिक सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा और सामाजिक गतिशीलता प्राप्त की।
अन्य स्थान (फिरोजपुर, लुधियाना, और आसपास के क्षेत्र) फिरोजपुर और लुधियाना जैसे छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी मेघ समुदाय के बीच शुद्धिकरण कार्य हुआ। इन क्षेत्रों में शुद्धि सभाओं और सामाजिक सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से मेघों को हिंदू धर्म में पुनः एकीकृत किया गया। संख्या के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है, लेकिन अनुमान है कि कुछ सौ से हज़ारों मेघ इन क्षेत्रों में प्रभावित हुए।प्रभाव: इन क्षेत्रों में मेघ समुदाय ने शिक्षा और आर्थिक गतिविधियों में प्रगति की।
वर्तमान कपूरथला जिला भी त्रिगर्त प्रदेश में आता था। कपूरथला में आदधर्मी सर्वाधिक है, उसके बाद वाल्मीकि और चमार जनसंख्या है। मेघों की जनसंख्या सैकड़ों में सिमटी हुई है।
गुरुकुल गुजरांवाला: गुजरांवाला में 1902 में गुरुकुल खोला गया।गुरुकुल गुजरांवाला में दो मेघ बालक निःशुल्क दाखिल किये गये, और वहाँ उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। सन् 1906 में लाला ज्ञानचन्द्र पुरी ने मेघ बालकों को वेदशास्त्रों की शिक्षा दिलाने के सम्बन्ध में कुछ लेख "प्रकाश" पत्र में प्रकाशित किये, जिन्हें पढ़कर डेरा इस्माईल खाँ के पुस्तक विक्रेता श्री सायरूसिंह ने गुरुकुल काँगड़ी में एक मेघ बालक को शिक्षा दिलाने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान कर दी। इससे "आर्य भक्त" महाशय केसरचन्द के पुत्र ईश्वरदत्त को गुरुकुल में प्रविष्ट कराया गया, और वह वहाँ चौदह वर्ष नियमपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर सन् 1924 में स्नातक हुए। इस प्रकार आर्यसमाज के प्रयत्न से जो मेघ बालक उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकने में समर्थ हो गये थे, उनमें अछूतपना नाम की भी नहीं रही। उनके विवाह उच्च जातियों में हुए और अध्यापक सदृश प्रतिष्ठित पदों पर उनकी नियुक्ति हुई। (आर्य समाज का इतिहास, भाग दो, पृष्ठ 120)
गुरदासपुर में पंडित रामभज दत्त ने शुद्धि कर मेघों का आर्य समाज में प्रवेश कराया।
होशियारपुर में भी शुद्धि का अभियान चला और मेघ आर्य समाजी बने।
आर्य समाज के कार्यों से जम्मू गुरुदासपुर, मुलतान, फीरोजपुर, सियालकोट, शिमला, लाहौर, लुधियाना, किस्टवार, मीरपुर, बटाला और रामसू के मेघों में जागृति आई। महात्मा गांधी तथा काँग्रेस द्वारा संचालित हरिजन आन्दोलन के कारण बाद में इनके कार्ये में कुछ शिथिलता आने लग गयी थी । लोग गांधीजी के हरिंजन आन्दोलन की ओर अधिक आकर्षित होने लगे।
सियालकोट के डेस्का और जफरवाल में मेघ सभाएं स्थापित हुई। पंडित लेखराम और आलाराम का योगदान रहा।
कोट नैना, शक्कर गढ़,
लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान, तत्कालीन पंजाब)समय: 1900-1920 के दशक में लाहौर आर्य समाज का एक प्रमुख केंद्र था, और यहाँ मेघों सहित अन्य निम्न जातियों के बीच शुद्धि कार्य हुआ। लाहौर में शुद्धि सभाएँ आयोजित की गईं, जिनमें मेघ समुदाय के सैकड़ों लोग शामिल हुए। विशिष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन कई सौ से हज़ारों मेघों के शुद्धिकरण की संभावना है। प्रभाव: लाहौर में मेघ समुदाय ने आर्य समाज के प्रभाव से धार्मिक और सामाजिक सुधारों को अपनाया। लाहौर में भी आर्य शुद्धि का अभियान चला और वहां पर मेघ सभा का गठन हुआ। लाहौर में रावी नदी के किनारे डिप्रेस्ड क्लासेज मिशन की ओर से एक बहुत बड़ा प्लॉट खरीदा गया और सेंट्रल स्कूल शुरू की गई।
उपलब्ध जानकारी के आधार पर, 1900 से 1930 के दशक तक पंजाब में मेघ समुदाय के लाखों लोगों ने शुद्धि आंदोलन के तहत प्रभावित होने की संभावना है। विशेष रूप से स्यालकोट में 36,000 मेघों का शुद्धिकरण एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। अन्य क्षेत्रों में भी हज़ारों मेघ इस प्रक्रिया से जुड़े। शुद्धिकरण की प्रक्रिया में सामूहिक संस्कार, यज्ञ, और वैदिक शिक्षा शामिल थी, जिसके माध्यम से मेघों को सामाजिक और धार्मिक रूप से ऊंचा उठाने का प्रयास किया गया।
करांची--एक मेघ सुधार सभा स्कूल आर्य समाज के आधीन । काम लाला लाजपतराय व लाला जसवन्तराय को आधीनता में होता था। (आर्य दर्शियित्री, 1918, पृष्ठ 75)
लाहौर--- आर्य सभा की स्थापना 1885 में हुई और पंजीकरण 1895 में हुआ। इसका मुख्यालय गुरुदत्त भवन, रावी रोड, भाटी दरवाजे के पास लाहौर था। इस सभा में कुछ मेघ लोग उपदेशक और भजनीक थे। 1 जून 1886 में एक विद्यालय खोला और 1 जून 1886में कॉलेज खोला गया। यहां दर्जी और बढ़ईगिरी की क्लासेज लगती थी।
पंजाब सिंध बलूचिस्तान: प्रमुख महात्मा हंसराज, मंत्री लाला रामानंद। इसमें भी वैतनिक और अवैतनिक उपदेशक और भजनीक थे।
मुल्तान में महात्मा मुंशीराम द्वारा गुरुकुल 10 अप्रैल 1909 को खोला गया।
आजादी के समय बहावलपुर, खैरपुर आदि रियासतें पाकिस्तान में मिली। कुल मिलाकर, पंजाब की अधिकांश रियासतें, लगभग 40-45 में से 90%, भारत में शामिल हुईं, क्योंकि वे भारतीय पंजाब, हरियाणा, या हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में थीं। भारत में विलय: पटियाला, नाभा, जींद, कपूरथला, फरीदकोट, मालेरकोटला, कांगड़ा, चंबा, सिरमौर, बिलासपुर, मंडी, सुकेत, और अन्य छोटी रियासतें।
सन 1948 में PEPSU का गठन हुआ, जिसमें पंजाब और पूर्वी पटियाला रियासत। 1956 में पंजाब बना जिसमें
हिमाचल प्रदेश की रियासतें: कांगड़ा, चंबा, सिरमौर, बिलासपुर, मंडी, और सुकेत जैसी पहाड़ी रियासतें हिमाचल प्रदेश के गठन का हिस्सा बनीं। 1947 में भारत की आजादी के बाद, पंजाब की पहाड़ी रियासतें जैसे चंबा, सिरमौर, बिलासपुर, मंडी, सुकेत, और कांगड़ा आदि को मिलाकर 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल प्रदेश को एक केंद्र-शासित प्रदेश के रूप में गठित किया गया और 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। भाषाई आधार पर पंजाब से अलग होकर 1966 में हरियाणा (जैसे हिसार, रोहतक, गुड़गांव, और करनाल) राज्य बना।
सन 2011 की जनगणना के अनुसार पंजाब में अनुसूचित जातियों की कुल जनसंख्या 8859179 में मेघों की कुल जनसंख्या 141023 दर्ज की गई थी। जो अनुसूचित जातियों का 1.59% होता है। इसके अलावा 84711 क़बीरपंथी के रूप में दर्ज है। जो 1% से भी कम है। मेघ और क़बीरपंथी की संयुक्त आबादी 225734 होती है, जो पंजाब की समस्त अनुसूचित जातियों की जनसंख्या का 2.54% होता है।
पंजाब के 20 जिलों (2011) में मेघों की सर्वाधिक जनसंख्या 46687 फिरोजपुर में दर्ज की गई है। उसके बाद क्रमशः जालंधर 32561,
गुरदासपुर 31829,
मुक्तसर 13807,
अमृतसर 7188,
लुधियाना 5039,
होशियारपुर 1281,
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