राजा का वरण : मेघ और गड़रिये, गाड़ी' लोगो की दुश्मनी का अंत-
जम्मू प्रदेश में, जहाँ वर्तमान में भो (bhow) का किला अवस्थित है, यहाँ किसी ज़माने में घना निर्जन जंगल हुआ करता था। पुराने समय में गिनती के कुछ मेघ और टक्कर (टका) परिवार यहाँ आ बसे थे ( ये यहाँ कब आकर रहने लगे, इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं मिलती है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि ये ही यहाँ के प्राचीन मूल आदि-निवासी है)। उन्होंने इस प्रदेश को आबाद किया, परन्तु उनकी आबादी कोई ज्यादा नहीं थी। यहाँ का पूरा पर्वतीय इलाका बीहड़ वन-प्रदेश था। मेघों ने सबसे पहले वहां बसकर उन पर्वतीय वन-प्रदेश में उपजाऊ भूमि पर खेती-बाड़ी करना शुरू किया और अपना जीवन-यापन करने लगे। दूर-दूर तक कोई मानव-बस्ती नहीं थी। उन प्रदेशों में अपने पशुओं के चारे-पानी की खोज में अपने परिवार के साथ इधर-उधर घुमने वाले और घुमक्कड़ी -जीवन बिताने वाले गडरिये मेघों के खेतों में आ जाते थे और समय-समय पर उनका बहुत नुकसान करते थे। ये गडरिये इन मेघों की बस्ती से पूर्वी उत्तरी भागों में दूर डेरा डाल कर रहते थे, जो चंबा और किश्तवाड़ के उत्तर में पड़ता था। ये बर्बर और जालिम अवस्थापन्न पशुपालक अपनी भेड़-बकरियों और परिवारों के साथ आकर मेघों की खेती को बर्बाद कर देते थे। मेघों और गडरिया ‘गाड़ी’ लोगों के बीच खेती-बाड़ी के समय पर प्रतिवर्ष संघर्ष होता रहता था और कई बार खून-खराबा हो जाया करता था। खेती-बाड़ी के नुकसान के साथ ही ये रात को चोरी-धाडी और डाका भी डाल जाते थे। मेघ लोग उनका माकूल मुकाबला करने में असमर्थ थे। कई अवसरों पर नित-प्रति दिन उन में लडाई-झगड़ा होता रहता था। वह वन-प्रदेश उस समय किसी राजा के अधीन नहीं था, इसलिए जो बलशाली होता वो अपनी मन-मर्जी करता और गाड़ी यहाँ आकार बर्बरतापूर्वक मनमानी कर और लूट-पाट कर भाग जाते। मेघ उनका पीछा करते, उनका मुकाबला करते; परन्तु बर्बरता का कभी अंत नहीं होता।
मेघ बदला लेने के लिए उनकी औरतों और बच्चों को पंजाब में ले जाकर बेच देते। दोनों कबीलों में इसी प्रकार का लम्बा संघर्ष और दुश्मनी ठनी हुई थी। ऐसे में कहीं बसने के उद्देश्य से घूमते हुए दो परिवार वहां आये, जिन में कुल मिलाकर 20 लोग थे। मेघों ने उनको मदद की और वहां उनको बसने दिया। उन्होंने अपने को राजपूत घोषित किया और जम्मू के कटोच राज-परिवार से सम्बंधित बताया (इस क्षेत्र में किसी राजपुत के बसने का यह पहला उदहारण है)। उन दोनों भाईयों ने मेघों और गडरिया गाड़ीयों के बीच जो दुश्मनी थी, उसको मिटाने और भूल जाने का इकरार करा दिया। पहले-पहल तो गाड़ी उद्दंड ही बने रहे, परन्तु इन परिवारों का ज्यों-ज्यों प्रभाव बढ़ता गया तो वे भी उनकी सुरक्षा के इच्छुक हो गए। इस प्रकार इन बाद में आकर बसने वाले राजपूतों ने मेघों के बीच में अपनी एक पैठ और उच्चता कायम कर दी और साथ ही गाड़ी और मेघों के बीच चली आ रही दुश्मनी भी ख़त्म हो गयी।
ऐसा माना जाता है कि उन्हें वहां बसने के नौ वर्ष बाद हिजरी सन 602 (यानि कि ईसा की 12वीं शताब्दी के अंत में) में ये दोनों भाई किन्हीं कारणों से अलग अलग हो गए। बडे भाई किरपालदे ने वर्तमान भो किले के पास वही पर अपनी झौपडी बनायीं और स्थायी रूप से बस गया। छोटे भाई ने पहाड़ की दूसरी तरफ पश्चिम में नदी के ‘थोवी’ कहे जाने वाले किनारे पर वैसी ही झौपड़ी बनायीं और वहां जा बसा। धीरे-धीरे इन दोनों भाईयों के वंशज ही पहाड़ों के मालिक बन गए यानि की वहां के राजा बन गए। ऐसा माना जाता है कि हिजरी संवत 749 (विक्रमी संवत 1389) अर्थात ईसा की 14वीं शताब्दी में इसी परिवार का वंशज जयदेव पहला आदमी था, जिसने राजा की पदवी ग्रहण की। उसने अपने सभी सम्बन्धियों और वहां के सभी मेघों को थोवी पर इकठ्ठा कर यह पदवी ग्रहण करने के लिए वह एक बड़ी शिला पर बैठा और उसकी घोषणा की। उस समय उनकी कुल संख्या कोई 500 थी। वह इलाका उस समय तक अल्प जनसंख्या वाला ही था। इस घटना के बाद वहां निवासित मेघ और बाद में आने वाले दूसरे लोगों भी उसे राजा के रूप में मानने लगे।
( Reference: Smyth, G. C. – ‘A History Of Reigning Family Of Lahore’, W. Thacker & co, Calcutta, 1847, pages; 232 to 235)
A history of the reigning family of Lahore, with some account of the Jummoo rajahs, the Seik soldiers and their sirdars; with notes on Malcolm, Prinsep, Lawrence, Steinbach, McGregor, and the Calcutta Review
बुधवार, 7 नवंबर 2018
मेघों के अग्रणीय : सम्राट पुरु (पोरस) Our Great Ancestors :The Legend of History
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सियालकोट के प्राचीन मेघ
(महाराजा पुरु और मेघों के सम्बन्ध का संकेत और स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है, उसे यहाँ दोहराना आवश्यक नहीं है। यहाँ इतना संकेत करना ही काफी है कि प्राच्य-विद्या के अनुसन्धान इतिहासवेत्ताओं ने वर्तमान मेघ जाति का निकास मद्र / मेद जाति से होना लक्षित किया है और महाराजा पुरु संज्ञात “मद्र नरेश” थे। अस्तु; वे साकल (सागल) की मेघ जाति के अग्र-पुरुष माने जाते है। महाराजा पुरु मद्र-देश के राजा थे, साकल नगर जिसकी राजधानी थी, जिसे आजकल सियालकोट से समीकृत किया जाता है। तक्षशिला उसका पड़ोसी देश था, जो मद्र की अधीनता में ही था। साकल के मद्र और तक्षशिला के टका एक ही कौम के लोग थे। प्रसिद्द इतिहास-अध्येता कर्नल अलेग्जेंडर कन्निंघम महोदय और अन्य ने वर्तमान मेग जाति को इन्हीं का वंशधर माना है। अगर आज की व्यवस्था में कहें तो वे मेघ जाति के अग्रणीय थे। महाराजा पुरु न केवल मेघ जाति के वन्दनीय है, बल्कि सम्पूर्ण भारत के लिए आदरणीय और आदर्श है। महाप्रतापी महाराजा पुरु के तेज, बल, पराक्रम और आदर्श का आज तक कोई सानी नहीं हुआ है। उनके चरित्र में जो सबसे अधिक प्रभावित करने वाला गुण था, वह था उनका अपना स्वाभिमान। उन में स्वाभिमान का गुण इतना कूट-कूट कर भरा था कि सिकंदर से बुरी तरह से हार जाने के बाद भी उनका हर रोम-रोम उस से अनुरंजित था। सिकंदर और पुरु के बीच के वे लम्हे आज भी मानवीय विजयों के इतिहास में अप्रतिम और अविघटित है। संसार में जितने भी राजा-महाराजा या श्रेष्ठ पुरुष हुए है, उन में निश्चित रूप से साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कोई न कोई विलक्षण गुण होता ही है, परन्तु जिन में स्वाभिमान या आत्म-गौरव हो, वह सर्वोपरि है। वह दूसरों के स्वाभिमान का भी इतना ही ख्याल रखते थे, जितना कि वे अपने स्वाभिमान का ख्याल रखते थे। सम्राट पुरु के जीवन-चरित्र से स्पष्ट होता है कि उन में यह गुण एक पारमिता थी)।
पुरु का जीवन काल- महाराजा पुरु के जन्म और जीवन काल की घटनाओं का संदेह रहित विवरण कहीं पर भी सिलसिलेवार उपलब्ध नहीं होता है, परन्तु यूनान(ग्रीस) के एक अति-उत्साही और पराक्रमी विश्व-विजेता बादशाह सिकंदर(एलेग्जेंडर) से उनके युद्ध होने की घटना निश्चित है। उसी ऐतिहासिक घटना का संधान कर हम महाराजा पुरु के जन्म और जीवन काल का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकते है। इसके अलावा पुरु के जन्म और जीवन को जानने के स्रोत नगण्य-प्रायः है। सिकंदर का जन्म यूनान की रियासत मकदुनिया में हुआ था और उस के पिता का नाम फिलिप था। इतिहासकारों ने सिकंदर के जन्म-काल को ईस्वी सन से 356 वर्ष पूर्व निश्चित किया है। वह विश्व-विजेता बनने का स्वप्न लेकर विजय पताका फहराता हुआ सिन्धु के मुहाने पर पहुंचा था, जहाँ युद्ध में उसकी मुलाकात हमारे मद्र-नरेश महान सम्राट पुरु से हुई थी।
महाराजा पुरु और सिकंदर महान के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। सिकंदर ने ईस्वी पूर्व 326 के जनवरी के महीने में भारत में आक्रमण किया था। युद्ध के समय सिकंदर की आयु 29-30 साल की थी। ऐसा वर्णन है कि महाराजा पुरु ने सिकंदर से युद्ध करने हेतु पहले अपने सेनापति पुत्र को भेजा था, जो युद्ध में मारा गया। महाराजा पुरु का यह पुत्र उस समय 20-22 वर्ष का अवश्य रहा होगा। इन सब तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि महाराजा पुरु का जन्म सिकंदर से पूर्व हुआ था और युद्ध के समय उसकी आयु 45 वर्ष से अधिक रही होगी और सिकंदर से 15-20 वर्ष अधिक ही रही होगी। इस प्रकार की गणना से उनका जन्म ईसा पूर्व 370-380 निश्चित होना अनुमान कर सकते है।
महाराजा पुरु के पिता का नाम राजा चन्द्रसेन था, जो मद्र देश का सम्राट था। सम्राट चन्द्रसेन का राज्य झेलम और चेनाव नदियों के मध्यवर्ती प्रान्त में अवस्थित था और पंजाब के कई बड़े-बड़े राजा इनके आधीन थे। सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक एक बड़ा पड़ौसी राज्य था, जिस का राजा आम्भी था। यह आम्भी राजा भी सम्राट चन्द्रसेन के आधीन ही था। मद्र-देश के उतर-पूर्व के छोटे-मोटे राजाओं के साथ ही दक्षिण कश्मीर का राजा अभिसार भी महाराजा चन्द्रसेन का सामंत था। इस से स्पष्ट है कि महाराजा चन्द्रसेन बहुत ही शक्तिशाली सम्राट था। उसने अपने शौर्य और पराक्रम से पंजाब के बहुत से राजाओं को अपने आधीन कर लिया था। महाराजा चन्द्र सेन बड़ा उदार, न्याय-प्रिय और साधु स्वाभाव का एक सर्व-गुण संपन्न सम्राट था। उनके इकलौते पुत्र पुरु में भी ये सभी गुण थे। पुरु यानि पोरस का लालन-पालन बड़े राजसी ठाठ-बाट से हुआ था। राजसी-वैभव और लाड़-प्यार के साथ ही पोरस की शिक्षा का उचित प्रबंध उस समय के प्रसिद्ध शिक्षा-संस्थान यानि कि उस समय के प्रसिद्द विश्व-विद्यालय ‘तक्षशिला’ में किया गया था। जैसा कि बताया जा चुका है तक्षशिला उस समय एक रियासत थी, जो सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक मानी गयी है। इसी रियासत में तक्षशिला का विश्व-विद्यालय अवस्थित था। उस समय तक्षशिला शिक्षा का एक बहुत बड़ा विद्यापीठ या केंद्र था, यह बात पुरातात्विक साक्ष्यों से प्रमाणित होती है। भारत के इतिहास के उज्जवल युग को प्रारंभ करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी यहीं विद्यार्जन किया था।
पोरस बचपन से ही होनहार और तिक्ष्ण-बुद्धि का था। उसने तक्षशिला में नियमानुसार सारे शास्त्रों का अध्ययन बड़ी तत्परता से किया। उसकी बुद्धि इतनी विलक्षण थी कि उसे एक बार जिस बात को बता दिया जाता वह उसके स्मृति-पटल पर सदैव के लिए अंकित हो जाती थी। कुशाग्र बुद्धि पुरु शीघ्र ही सभी विद्याओं में पारंगत हो गए। विद्याध्ययन के बाद, जैसा आजकल उपाधि-वितरण का कार्यक्रम होता है, वैसा ही तक्षशिला में भी पुरु की विद्यार्जन-अवधि समाप्त होने पर एक बहुत बड़ा आयोजन रखा गया। उस आयोजन में आस-पास के सभी राजा-महाराजा, गुरु-आचार्य आदि सब सरीक हुए। सम्राट चंद्रसेन, स्थानीय राजा आम्भी, अभिसार नरेश, आचार्य-गण और प्रमुख नागरिक उस में उपस्थित थे। इस आयोजन के बाद तक्षशिला के प्रमुख आचार्य ने पुरु को आशीर्वाद के साथ घर जाने की आज्ञा दी।
सम्राट चंद्रसेन इस अवसर पर तक्षशिला के राजा आम्भी के अतिथि थे। आम्भी नरेश उनकी पूरी आव-भगत में था। वह उनका और राजकुमार पुरु का हर-प्रकार से ध्यान रख रहा था। कई वर्ष पूर्व सम्राट चन्द्रसेन ने अपने दिग्विजय-प्रयाण में आम्भी नरेश को जीत लिया था। तब से तक्षशिला सम्राट चंद्रसेन के आधीन ही था। आम्भी नरेश अपनी बुरी तरह से हुई हार को भूला नहीं था। उसने हृदय से अधीनता स्वीकार नहीं की थी। अतः वह हमेशा सम्राट चंद्रसेन की अधीनता से छुटकारा पाने की उधेड़-बुन में लगा रहता था। वह अवसर की ताक में था कि कोई बहाना मिले; जिस से वह अधीनता से छुटकारा पा सके, परन्तु उसे कभी कोई ऐसा अवसर मिला ही नहीं। आम्भी नरेश आस-पास के राजाओं से भी समर्थन चाहता था। वह किसी ऐसे राजा को अपने साथ मिलाना चाहता था, जो उसी की तरह मन से सम्राट चंद्रसेन के विरुद्ध हो, परन्तु सम्राट चंद्रसेन के पराक्रम का ध्यान आते ही कोई भी राजा आम्भी के साथ आने का साहस नहीं करता था।
आम्भी नरेश ने भ्रमण के दौरान अभिसार नरेश से गुप्त बात-चीत की कि सम्राट चंद्रसेन अब वृद्ध हो गए है। अब उसे उनके बहुत लम्बे समय तक जीने की आशा नहीं है..... उनके जीवनकाल में वह उनका सामंत बना रहा, परन्तु अब वह उसके उतराधिकारी पुरु का सामंत बने हुए नहीं रहना चाहता है.... और यह उचित समय है कि विद्रोह करके आजाद हो जाये।... उसने अभिसार नरेश को अपने साथ मिलाने की बहुत कोशिश की और सम्राट चंद्रसेन के विरुद्ध हर प्रकार का जहर उगला, परन्तु अभिसार नरेश उसकी योजना से सहमत नहीं हुआ। आम्भी नरेश ने फिर कहा कि जो भी हो सम्राट चंद्रसेन की मृत्यु के बाद तो वह पुरु को सम्राट नहीं मानेगा और चंद्रसेन के मरने पर वह पुरु से युद्ध करेगा और मद्र देश का वह सम्राट बनेगा। अभिसार नरेश ने इस योजना में भी अपनी असमर्थता जाहिर की। अम्भी नरेश वीर था और राजनीती के सभी दांव-पेच जानता था। उसने कूटनीति अपनाते हुए अभिसार नरेश से अपनी पुत्री उर्वशी का विवाह कर देने का वचन दिया तो अभिसार नरेश भी चंद्रसेन के विरुद्ध युद्ध करने हेतु कटिबद्ध हो गया। इस प्रकार से उसे एक सहायक राजा का साथ मिल चुका था। अब वह किसी उचित अवसर की तलाश में था।
उधर युवराज पुरु सम-व्यस्क दोस्तों के साथ तक्षशिला के घने जंगल में राज-कर्मचारियों के साथ शिकार खेलने के लिए निकल पड़े। बहुत वर्षों से उन्होंने धनुर्विद्या का उपयोग नहीं किया था। विद्यार्जन के समय कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया था कि वह इस में निरंतरता रख सके। आज वह उन्मुक्त हो अपनी उसी विद्या को परखना भी चाह रहा था।.... जंगल में इधर से उधर भटकते हुए अचानक उसे एक शेर की दहाड़ सुनाई दी। यह एक खूंखार शेर था। राजा आम्भी ने इस शेर को मारने के लिए कई जतन किये थे, परन्तु उसे कभी सफलता नहीं मिली थी। यह शेर कभी भी पकड़ में नहीं आया था। राजकुमार पुरु सचेत हो गया। जंगल में हरिन दौड़े जा रहे थे, शेर उनके पीछे था। अचानक वह दुर्दांत शेर राजकुमार पुरु के सामने आ झपटा। क्रुद्ध हुए उस आक्रमणकारी शेर पर राजकुमार पुरु ने तीर चलाया। निशाना ठीक से नहीं लगा, शेर और क्रुद्ध हो गया और राजकुमार पर टूट पड़ा। राजकुमार ने म्यान से अपनी तलवार को निकाला और बड़ी कुशलता से शेर पर वार किया। शेर घायल होकर वहीँ गिर गया। सभी साथियों ने पुरु को घेर लिया। उसकी बहादुरी की प्रशंसा होने लगी। राजकुमार भी अपनी विजय पर पुलकित था। घने जंगल में राजकुमार पुरु की अकेले की यह पहली विजय थी। सभी मित्र-गण विजय-भाव के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर की ओर लौट पड़े।
जब वे रास्ते में लौट रहे थे तो उन्हें एक स्त्री के क्रंदन के स्वर सुनाई दिए। जिधर से आवाज आ रही थी, घोड़े को उधर मोड़ दिया। एक रथ पर एक दुराचारी रियासत की किसी स्त्री को जबरदस्ती ले जा रहा था। राजकुमार पुरु ने उसे पहचान लिया। वह राजा आम्भी का भाई कर्ण था। कर्ण बड़ा दुराचारी और निर्दयी था। रियासत में जिस किसी की सुन्दर बहू-बेटियों को देखता उसको वह अपने भोग की वस्तु बना कर छोड़ देता। कई बालायें उसके बलात्कार की शिकार हो चुकी थी। राजा आम्भी भी उससे परेशां था परन्तु कर्ण की दुर्दांतता के आगे वह भी निस्सहाय था। राजकुमार पुरु ने अपने घोड़े को रथ के आगे ले जाकर कर्ण को रोका और कर्ण को कहा- ‘कर्ण! तुम राजकुमार हो, तुम्हे ऐसा कर्म करते हुए शर्म नहीं आती?’
कर्ण भला किसकी सुन ने वाला था। उस ने आज तक किसी की नहीं सुनी थी। वह आपे से बाहर हो गया और राजकुमार पुरु पर बिफर पड़ा। वह वाकयुद्ध करने लगा। पुरु उसे शांति से समझा रहा था, लेकिन कर्ण को वह सब अंगारों की तरह लग रहा था। किसी ने पहली बार उस के काम में इस तरह से दखल देने की कोशिश की थी। वह और कुछ नहीं सुनना चाहता था। उसने झट से तलवार निकाली और पुरु पर वार कर दिया। पुरु यह नहीं समझा था कि यह घटना इतनी सीमा तक पहुँच जाएगी, उसने संभल कर वार को टाला। कर्ण ताबड़-तोड़ वार करने लगा। दोनों में तलवारें चलने लगी। आमोद-प्रमोद और व्यसन में डूबा मदहोश कर्ण निष्णात पुरु के आगे कब तक टिकता। राजकुमार पुरु की तलवार से एक घाव उसकी छाती पर हो गया, वह घाव ऐसा गहरा था कि कर्ण की छाती से रुधिर के फव्वारे फूट पड़े। तड़फते हुए कर्ण के पंख-पंखेरू वहीँ उड़ गए। पुरु यह सब कुछ नहीं चाहता था, परन्तु हालात की नजाकत ने उसे इस परिस्थिति में झोंक दिया था। वह इस अप्रिय घटना से बड़ा दुखी हुआ। वह नहीं चाहता था कि आम्भी नरेश का कुछ बिगाड़ हो, परन्तु जो होना था वह हो चुका था।
सभी सहचर व अनुचर स्तब्ध और विक्षुब्ध थे। भयभीत हुई वह स्त्री वहीँ दुबकी हुई थी। पुरु ने उस स्त्री की ओर मुखातिब होकर उसे अपने विश्वस्त अनुचर के साथ घर छोड़ने का आग्रह किया।.... उस स्त्री ने विपत्ति से बचाए जाने पर शुक्रिया अदा किया और स्वयं ही घर चले जाने का बोला।..... इस अप्रत्याशित घटना पर सभी पश्चाताप कर ही रहे थे कि आम्भी नरेश का सेनापति वहां आ पहुंचा।.... सेनापति बोला- ‘राज-दंड के नियमानुसार नर-हत्या के अपराध में आपको मैं बंदी बनाता हूँ।’ पुरु ने सहर्ष इस बात को स्वीकार करते हुए बोला- ‘न्याय के सम्मुख राजा और रंक सभी एक सामान है’.... ‘वह सहर्ष अपने को सौंपता है।’...... राजकुमार पुरु के दोस्तों को यह सब-कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, परन्तु वे इस में कुछ नहीं कर पाए। सेनापति ने पुरु को बंदी बना दिया और अपने साथ ले गया। पुरु के साथी भी पीछे-पीछे चल पड़े।
जिस स्त्री के कारण राजकुमार विपत्ति में पड़ा था, वह स्त्री भी घर न जा सकी और बंदी पुरु के पीछे-पीछे चल पड़ी। उस स्त्री का नाम चंद्रभागा था .......।
तक्षशिला के राज-भवन में आम्भी और अभिसार के साथ सम्राट चंद्रसेन बात-चीत कर रहे थे।.......सम्राट को समाचार मिला कि राजकुमार पुरु ने शिकार में एक भयंकर शेर को मारा है। सम्राट चंद्रसेन अपने पुत्र की वीरता से महत्तिभूत गौरवान्वित हो रहे थे। एक पिता के लिए पुत्र की वीरता और कामयाबी से बढ़कर कोई सुख नहीं होता है। सम्राट चंद्रसेन आनंद-सागर में गोते खा रहे थे तो उधर आम्भी के सीने पर सांप लौट रहे थे। वह इर्ष्या और द्वेष में जला जा रहा था। बातों-बातों में काफी समय निकल चुका था।.... अब सम्राट चंद्रसेन को चिंता होने लगी कि राजकुमार को आखेट में गए हुए काफी समय हो चुका था, उसे अब तक आ जाना चाहिए था।.... वे अपनी चिंता को नहीं रोक सके और चिंतातुर स्वर में आम्भी से बोले- ‘पुरु को शिकार के लिए गए हुए काफी समय हो गया है, उसे अभी तक वापस आ जाना चाहिए... वह अभी तक लौटा नहीं है।’
इतने में ही सेनापति ने बंदी राजकुमार पुरु के साथ प्रवेश करते हुए बोला- ‘राजकुमार पुरु कर्ण का हत्यारा है।......’ सम्राट चंद्रसेन अवाक् हो रह गए...... घटनाक्रम एकदम बदल गया।....... सम्राट चंद्रसेन और राजा आम्भी के बीच तकरार हुई।....... हालाँकि आम्भी कर्ण के अत्याचारों से तंग आ चुका था और उसका भी अंत चाहता था, परन्तु अब जब राजकुमार पुरु के हाथों उसका वध हो गया तो वह सब भूलकर अपने भ्रातृत्व की ममता को लेकर सम्राट चंद्रसेन और राजकुमार पुरु पर हावी हो गया। उसे सम्राट चंद्रसेन को कैद करने का एक मौका मिल गया। वह तो कभी से ही ऐसे मौके की तलाश में ही था, अब वह इस स्वर्णिम मौके को किसी भी प्रकार की अनुनय-विनती से या नीति-अनीति से कैसे भी गंवाना नहीं चाहता था। सम्राट चंद्रसेन को भी नजर-बंद कर लिया गया। राजा आम्भी ने उसी समय न्याय का फरमान जारी किया कि कर्ण के वध के बदले कल सवेरे पुरु को फांसी दे दी जाय।
सम्राट चंद्रसेन अवाक् थे। वे चारों ओर से घिरे थे। उन्होंने आम्भी को समझाया, धमकाया, डराया पर आम्भी सब कुछ परिस्थितियों को अपने अनुकूल समझ कर उन्हें जलील करता रहा। सम्राट ने अभिसार को इस अवसर पर हस्तक्षेप करने का कहा, परन्तु राजा अभिसार हृदय से राजा आम्भी के साथ मिला हुआ था, इसलिए उसने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। आम्भी ने सम्राट चंद्रसेन को नजर-बंद और पुरु को कारागार में बंद करवा दिया। पिता और पुत्र दोनों कैदी हो गए। जीवन और मरण के बीच एक रात थी और वह भी त्वरित गति से बीतती जा रही थी। राजा आम्भी और अभिसार दोनों को अब किसी बात का डर नहीं था.....।
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उधर राजा आम्भी की पुत्री राजकुमारी उर्वशी यह सब जानकर बड़ी उद्विग्न थी। वह राजकुमार पुरु को हृदय से चाहती थी। उसकी पीड़ा का आज कोई पैमाना नहीं था। बीता हुआ कल उसकी आँखों के सामने घूम रहा था। यह कल ही की तो बात थी, जब वह अपने पिता महाराजा आम्भी के साथ तक्षशिला विश्व-विद्यालय के दीक्षांत समारोह में गयी थी और राजकुमार पुरु को पहली बार जी-भर के देखा था। वह उसके शरीर-सौष्ठव, रूप-सौन्दर्य, प्रत्युत्पन्न-मति, कान्ति और ओज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी थी और जिस क्षण उसने राजकुमार को देखा उसी दिन क्षण मन ही मन वह अपने आपको उसे समर्पित कर चुकी थी। वह उस से विवाह करने का ठान चुकी थी। परन्तु दुर्योग से उसके इस सुंदर सपने को ग्रास लग चुका था। कर्ण की हत्या से पुरु को फांसी का दंड होने के कारण उर्वशी की आशाओं पर पानी फिर गया था।
वह विचारों में खो गयी। प्रेम प्राणी को पागल बना देता है, वह किस किनारे डूब जाये और किस किनारे बह जाये, कोई कुछ नहीं जता सकता है। विचार सागर में डूबी हुई उर्वशी अपने आप को भूल चुकी थी। उसका मन और मष्तिष्क शांत नहीं था। एक से बढ़कर एक आवेश उसे लपेटे जा रहे थे। वह किसी भी हद तक जाकर पुरु को फांसी से बचाना चाहती थी और सदा-सदा के लिए उसकी होना चाहती थी। भयानक सपनों के जंजाल में खोयी हुई वह अपने पर्यंक पर निढाल हो गयी। इतने में उसे महाराजा आम्भी के मधुर शब्दों ने सचेत कर दिया। आम्भी बोले- ‘पुत्री, उर्वशी! अभिसार नरेश के साथ मैंने तुम्हारा विवाह करना निश्चित कर लिया है......।’ उर्वशी को ऐसे लगा जैसे कोई उसके कलेजे पर करोत चला रहा हो। वह कुछ नहीं बोली। राजा बोलता जा रहा था। वह बोला- ‘.......मुझे हर-प्रकार से वह तुम्हारे योग्य प्रतीत होते है।’..... वह क्या बोलती। उसका पुरु से एक तरफ़ा प्यार था और वह भी कैद हो चुका था। उसके जीवन के बचे रहने की कोई मद्धिम सी भी आशा की किरण शेष नहीं थी। वह यह सब अपने पिता को बता भी नहीं सकती थी। उसने अपने को सँभालते हुए बोला- ‘..... पिताजी, आप मेरे विवाह की चिंता नहीं करें, मैं विवाह नहीं करना चाहती हूँ।’ पिता ने उसको बातों ही बातों में समझाने की कोशिश की, परन्तु वह हाँ नहीं कह सकी। काफी देर तक पिता-पुत्री के बीच बातें होती रही। आखिर आम्भी क्रोधित होते हुए उर्वशी के कमरे से बाहर चले गए।
राजा आम्भी के जाने के बाद उर्वशी और ज्यादा उद्विग्न हो गयी। वह किसी भी कीमत पर राजकुमार पुरु को आज़ाद कराना चाहती थी। विचारों के जंजाल में न तो उसे कोई राह सूझ रही थी और न ही नींद आ रही थी। महाराजा आम्भी अपने शयन-कक्ष में जाकर सो चुके थे। उर्वशी अपने कक्ष से बाहर आई और जहाँ सम्राट चंद्रसेन नजरबंद थे, वहां उनके पास गयी। सम्राट चंद्रसेन पुत्र की सजा सुनकर असह्य वेदना में अर्धमूर्च्छित अवस्थापन्न प्रलाप कर रहे थे। उर्वशी ने उन्हें सचेत करने की असफल कोशिश की.....। सम्राट होश में नहीं आ सके अँधेरी निष्ठुर रात में उनके प्राण-पंखेरू उड़ गए। उसकी आँखों के सामने सम्राट चंद्रसेन के जीवन की बुझती लौह ने उसे डर के साथ-साथ साहस की बहुत बड़ी पतवार सौंप दी। उसे अब अपनी मृत्यु से भी भय नहीं रहा और उसने ठान ली कि वह किसी भी तरह से कारागाह की चाबियाँ प्राप्त कर राजकुमार को आज़ाद करा लेगी।
सम्राट चंद्रसेन के पार्थिव शरीर को वहीँ छोड़कर वह वापस महल में आई। चारों तरफ इधर-उधर देखकर वह चतुराई से पिता के कक्ष में प्रविष्ट हुई। राजा आम्भी निसंग हो सो रहे थे। कारागाह की चाबियां उनकी जेब में रखी थी और राजकीय मोहर भी उसे वहीँ मिल गयी। एक कागज पर मोहर लगाकर उसने कारागाह के अध्यक्ष को लिखा, कि पुरु को इसी समय मुक्त कर दिया जाय तथा एक सैनिक को उनकी राजधानी तक छोड़ने का प्रबंध कर दिया जाय। उर्वशी ने स्वयं सैनिक का वेश धारण किया और महल का दरवाजा बंद करके कारागार पहुँच गयी। करागाराध्यक्ष को मुक्त करने वाला पत्र दिया। कारगाराध्यक्ष को संदेह करने का कोई कारण नहीं दिखा।
राजकुमार पुरु के जीवन की यह काली रात उर्वशी के लेख से ही धवल चांदनी में बदलने वाली थी, परन्तु उसे इस बात का तनिक भी आभाष नहीं था। वह तो कल सुबह आने वाले मौत के क्षण के बारे में शोकाकुल था। भयानक कल्पना के भंवर जाल ने उसे जकड़ रखा था। नींद का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। इतने में कारागाराध्यक्ष पहुंचा और उसने उसे राजा द्वारा मुक्त करने का फरमान सुनाते हुए मुक्त कर दिया। राजकुमार पुरु के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था। उसे सैनिक वेश में साथ चल रही उर्वशी के साथ ही मद्र देश की राजधानी जाना था। अस्तबल से दो घोड़े लिए गए और दोनों उस पर बैठकर बाहर निकल गए। थोड़ी दूर जाने के बाद उर्वशी ने पुरु को अपने सैनिक होने का राज बताते हुए बोला कि आप मेरे पहने हुए सैनिक के कपडे पहन ले और यह मेरा घोडा ‘रत्न’ ले ले। इस पर बैठकर जितना जल्दी हो सके अभी राज्य से बाहर अपने राज्य की सीमा में चले जाये। पुरु ने वैसा ही किया। उर्वशी को अपने किये पर संतोष हो रहा था। वह चुपचाप वापस आकार अपने महल के शयनागार में सो गयी।
सुबह का सूर्योदय होते ही राजा आम्भी अपना मनोरथ पूरा करने के लिए मंत्री से मंत्रणा कर रहा था। उसने कई देशों के राजाओं को पत्र लिखाये कि वह मद्र देश का राजा है।.... वह इसी मनोरथ पूर्ति में लगा हुआ था कि सेनापति ने आकर राजा को बताया कि पुरु को तो रात में ही कारागार से मुक्त कर दिया गया। राजा भौचक्का रह गया..... जब कारागार के प्रमुख ने राजाज्ञा का पत्र दिखाया तो राजा अवाक् रह गया। वह उस पत्र की हस्तलिपि को देखते ही पहचान गया। वह हस्तलिपि उर्वशी की ही थी। शिकार हाथ से निकल चुका था। अब राजा आम्भी के गुस्से का कोई आर था न पार, वह तत्क्षण आग अबुला होते हुए हाथ में खड़ग ले उर्वशी को मारने के लिए उर्वशी के महल में गया। उर्वशी अपने कमरे में ही थी। क्रोध के आवेश में राजा उर्वशी की छाती पर कटार मारने को उद्ध्यत हुआ, परन्तु उर्मिला मुंह नीचे किये पत्थर की मूर्ति की तरह मौन खडी थी, मानो वह इसी का इंतजार कर रही थी।
अचानक आम्भी ने कटार को फेंक दिया।......उर्वशी अचंभित हुई। वह लज्जा में सिर झुकाए क्षमा याचना करने लगी। पिता ने उसे भला-बुरा कहना शुरू किया परन्तु सब व्यर्थ उर्वशी निःशब्द बुत बनी रही। अब क्या हो सकता था। तक्षशिला और साकल का युद्ध अब अवश्यम्भावी था। आम्भी वापस अपने महल में गया... उर्मिला अपने महल में भविष्य को निहार रही थी। उधर राजकुमार पुरु अपने देश पहुँच चुका था।
पुरु ने बिना समय गंवाए उसी समय सेना को एकत्रित किया और पिता को आज़ाद कराने के लिए लश्कर के साथ तक्षशिला की ओर कूच किया। जब वह आधे रास्ते पहुँचा तो उसे समाचार मिला कि उसके पिता सम्राट चंद्रसेन के प्राण-पंखेरू उड़ चुके है और आम्भी राजा युद्ध करना चाहता है। सम्राट चंद्रसेन और राजकुमार पुरु दुर्योग से ही आम्भी के चंगुल में फंसे थे अन्यथा आम्भी की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह उनके सामने जबान भी खोले। यह एक अप्रत्याशित युद्ध की वेला थी।
दोनों देशों की सेनायें आमने सामने थी। उन में भयंकर युद्ध हुआ। आम्भी की सेना पराजित हुई। आम्भी को बंदी बना दिया गया। आम्भी का जीवन अब पुरु की दया पर निर्भर था। इस समय अगर पुरु चाहता तो आम्भी को मार डालता, परन्तु पुरु उदार हृदय था। उसने आम्भी को छोड़ दिया और उसका राज्य भी उसे वापस कर दिया। आम्भी-नरेश का हृदय ग्लानी से भर आया। युद्ध समाप्त हुआ।.... पुरु अपने पिता की मृत-देह ले विजय के साथ साकल आ गया। वह मद्र-देश का राज-काज सँभालने लगा।
चंद्रभागा के कारण ही पुरु विपत्ति में पड़ा था, इसलिए जब पुरु बंदी था तो चंद्रभागा कारागार के सामने ही बैठ गयी थी। बाद की घटनाओं ने उर्वशी और चंद्रभागा को मिला दिया। उर्वशी ने चंद्रभागा का विद्यापीठ में प्रबंध करवा दिया। उर्वशी मन से पुरु को चाहती थी। एक दिन उर्वशी ने पुरु से विवाह करने का प्रस्ताव अपने पिता से छेड़ दिया। आम्भी यद्यपि पुरु के आधीन था, परन्तु वह उसे शत्रु ही समझता था। वह किसी भी कारण से ऐसा नहीं होने देना चाहता था और उर्वशी अभिसार के प्रस्ताव को तो पहले ही मना कर चुकी थी। राजा आम्भी और सम्राट पुरु की दुश्मनी जग-जाहिर हो चुकी थी। तक्षशिला के गण-मान्यों और विद्यापीठ के आचार्यों ने भी पुरु और आम्भी के आपसी विरोध को ख़त्म करने के लिए उर्वशी का विवाह पुरु से करने की सलाह आम्भी को दी; परन्तु आम्भी इसे विचार करने योग्य तक नहीं मानता था। उर्वशी अपने पिता के विरुद्ध भी नहीं जाना चाहती थी। उसने आजन्म कुंवारा रहने का निश्चय कर लिया।
पुरु अब मद्र-देश का समारत था। वह भी अपने पिता की तरह दिद्विजय की इच्छा कर कुछ सेना को लेकर विजय यात्रा पर निकल पड़ा। पहले उसने उतर कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। उस तरफ के सारे देशों को विजय कर वह सिंध की ओर लौटा। जिन दिनों सम्राट पुरु सिंधप्रदेश का दौरा कर रहा था, उन्हीं दिनों फ़ारस का राजा सिकंदर विश्व-विजय की पताका के साथ भारत की सीमा पर आक्रमण करने आ पहुंचा था।
सिकंदर संसार के महान विजेताओं में भी महान माना जाता है। वह बड़ा उत्साही वीर था। उसने बाल्यकाल से ही जीवन का लक्ष्य बना लिया था कि वह समस्त संसार को जीत कर विश्व-विजयी बनेगा। वह बीस वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा और थोड़े ही समय में मिस्र से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक एशिया का सारा प्रदेश जीत लिया। ईस्वी सन से 326 वर्ष पूर्व उसने भारतवर्ष पर आक्रमण किया।
...............निरंतर ... इसके दूसरे खंड में पुरु और सिकंदर का वर्णन है , उसे भी पढ़े .........