मेघों में से क्या कोई सेना में उच्चतम पद तक पहुंचा है?

Sunday, May 21, 2023

 मेघों में से क्या कोई सेना में उच्चतम पद तक पहुंचा है?

                        सौर्स तारा राम गौतम भारत और पाकिस्तान में मेघ सघन रूप में निवास करते है। विभाजन से पहले इन क्षेत्रों में आपसी शादी-ब्याह और सामाजिक-धार्मिक रिश्ते रहे है। अभी भी है, परंतु अब वे आपसी संबंध नहीं है। दोनों की राष्ट्रीयता अलग-अलग हो चुकी है, फिर भी सदियों से उनकी परंपराएं कमोबेश एकसी ही है। उन्होंने राष्ट्र निर्माण में, चाहे वह भारत हो या पाकिस्तान, उसमें बहुत बड़ा योगदान दिया है। हकीकत यह है कि मेघ सिंध की एक आद-कदीमी कौम है। कनिंघम आदि पुरातत्व इतिहासवेत्ताओं ने इनका मूल उद्गम सतलज नदी और चेनाब व रावी नदी के मुहानों को माना है। मेघों के कारण ही सतलज नदी को प्राचीन काल में मेगारसस रिवर कहा जाता था, जहां पोरस और सिकंदर की भिड़ंत हुई। मेघ (मेग) हड़प्पा की सभ्यता का भी सृजक माने जाते है। प्राचीन काल में मेघों के स्वतंत्र गण रहे है और तब से ही मेघ देशी रियासतों की सेना में भी रहे है और अब भी है। 

                       विभिन्न स्रोतों को टटोलने से यह ज्ञात होता है कि सेना में मेघों की भागीदारी तो रही है, परंतु वह बहुत कम ही रही है। हकीकत यह है कि जब भी सेना में सेवा के माध्यम से इनको देश सेवा का मौका मिला है, उन्होंने अदम्य साहस और धैर्य का परिचय दिया है। 

                     अखंड भारत में कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह के समय अफ़ग़ानों के विरुद्ध लड़े गए युद्ध में मेघों ने अपने शौर्य और पराक्रम का बेमिसाल परिचय दिया था। जिसकी चहुं ओर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई। उस समय ब्रिटिश सेना नायकों ने सेना का जो इतिहास लिखा है, उसमें इनका जिक्र मिलता है। उससे भी पहले महाराजा प्रवरसेन के समय में भी मेघों ने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया था। इन सबका मिलिट्री इतिहास में यत्रतत्र उल्लेख हुआ है।

                       मारवाड़ में राजपूतों के आगमन से पहले मेघों की यहां सघन बस्तियां थी और स्वतंत्र गण के रूप में ये यहां आबाद थे। जोधपुर की स्थापना के समय जिस राजाराम मेघवाल की बात की जाती है, उसके पूर्वज भी सिंध से जैसलमेर होते हुए जोधपुर आये थे और मंडोर के पास अपना स्वतंत्र गण स्थापित किया था।  जोधपुर की मंडोर तहसील का एक भाग अभी भी 'मेगारावटी' कहलाता है। जोधपुर रियासत में मेघवाल लोग महाराजा के अंगरक्षकों और संदेशवाहकों के रूप में सेवाएं देते रहे है। ऐसा उल्लेख रियासत के कई दस्तावेजों में मिलता है।

                      प्रथम विश्वयुद्ध व द्वितीय विश्वयुद्ध में भी मेघों की भागीदारी रही है। द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में पंजाब और मारवाड़ से मेघों की सेना में विशेष भर्ती की गई थी। जिसका उल्लेख भी ब्रिटिश इंडियन आर्मी पर लिखी गयी कुछ पुस्तकों में हुआ है।

                       पाकिस्तान की सेना में मेघों की स्थिति क्या है, इसका ठीक-ठीक पता नहीं है, परंतु स्वतंत्र भारत में मेघ/मेघवालों की सेना में सदैव न्यूनाधिक भागीदारी रही है और कई जवान सेना की उच्चतम रैंक तक पहुंचे है।  भारत की सेना में ब्रिगेडियर रैंक तक मेघ लोग पहुंचे है। इन में  मेघ ब्रिगेडियर आत्माराम एक प्रमुख दिग्गज है।

                        ब्रिगेडियर आत्मारामजी जी का परिवार मूलतः जम्मूकश्मीर का रहने वाला था, वहां से वर्तमान पाकिस्तान के स्यालकोट के पास के किसी गांव में रहने लगा था और देश का विभाजन होने पर वे भारत के पंजाब में आ बसे थे।  पंजाब में उनका परिवार जालंधर में आ बसा था और  जैसा मुझे कर्नल तिलकराज ने बताया आत्मारामजी का परिवार उनका पड़ौसी था। श्री आर एल गोत्रा जी भी उसी कॉलोनी में रहते थे। उन्होंने बताया कि आत्मारामजी छोटी उम्र में ही सेना में सिपाही क्लर्क के पद पर भर्ती हो गए थे और आंतरिक परीक्षा देकर वे कमीशण्ड अफसर बन गए थे और अपने साहस व शौर्य के बल पर ब्रिगेडियर पद तक पहुंचे।

                       सन 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय वे युद्ध के इलाके में तैनात थे। युद्ध में हुए ब्लास्ट में उनका कंधा और एक आंख जख्मी हो गयी थी। उनके एक नकली आंख लगाई गई। यह बात युद्ध-समाप्ति के बाद स्वयं आत्मारामजी ने आर एल गोत्रा जी को बताई थी, जब युद्ध समाप्ति के बाद वे मिले और एक-दूसरे का हालचाल जाना। युद्ध के समय गोत्राजी की ड्यूटी भी जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र में ही थी।

                    आत्मारामजी को वीर चक्र प्राप्त हुआ था। ऐसा उनके मिलनसार मित्र कर्नल तिलकराज जी ने मुझे बताया। सन 1971 की लड़ाई के बाद कर्नल तिलकराज और आत्मारामजी की मुलाकात हुई थी। उन्होंने यह भी बताया कि आत्माराम जी ने अंतरजातीय विवाह किया था। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि वे खुद 1971 के वार के समय कश्मीर बॉर्डर पर तैनात थे। आत्माराम जी ने जम्मू-कश्मीर के सेना में कार्यरत एक जाट अफसर की पुत्री से अंतरजातीय विवाह किया था। चूंकि उन्होंने एक जाट युवती से शादी की थी, अस्तु कई लोग उन्हें एक जाट के रूप में ही जानते थे, जबकि मूलतः वे डोगरा 'मेघ' थे। कर्नल तिलक राज जी ने बताया कि उनकी अंतिम मुलाकात हुई तब आत्मारामजी ब्रिगेडियर बन चुके थे। पिछले 50 वर्ष से उनकी कोई मुलाकात नही हुई है।

                      आत्माराम जी के एक अन्य परिचित श्री आर एल गोत्रा जी (हाल ऑस्ट्रेलिया निवासी), जो अभी अप्रैल-मई 2023) अपने इलाज के लिए जालंधर (भारत ) आये हुए है, उन्होंने मुझे बताया कि बचपन में वे जालंधर में साथ में खेलते-कूदते थे। आत्माराम उनसे दो-चार साल छोटे थे। आत्मारामजी से बड़े दो भाई थे। वे भी पंजाब सरकार की सेवा में आ गए थे। उन्होंने यह भी बताया कि उनका परिवार स्यालकोट से 1947 में भारत आया और मेघ आत्माराम का परिवार, जो स्यालकोट के पास के किसी गांव के रहने वाले थे, वह भी उसी समय भारत आया। शरणार्थी केम्पों में भी आसपास ही रहते थे। श्री गोत्राजी ने यह भी बताया कि उनकी नौकरी लग जाने के बाद जब आत्मारामजी से मुलाकात हुई तब आत्माराम से ही मालूम हुआ था कि उसकी भी नियुक्ति आर्मी में सैनिक-क्लर्क के पद पर हो गयी है। आर्मी के सेवा नियमों के अनुसार विभागीय परीक्षा पास करने पर वह शीघ्र ही कमीशंड अफसर बन गया था।  सन 1971 की लड़ाई के बाद भी उनकी मुलाकात आत्मारामजी से हुई थी। तब उससे मालूम हुआ कि युद्ध में हुए ब्लास्ट से उसकी एक आंख चली गयी थी। यह बात आत्मारामजी ने स्वयं गोत्राजी को बताई थी, ऐसा उन्होंने मुझे 12/13 मई 2023 को उनसे दूरभाष पर हुई वार्ता में बताया। उस समय वह आर्मी में मेजर बन चुके थे। गोत्राजी ने यह भी जानकारी दी कि एज दशक पूर्व (2011) आत्मारामजी के निकट संबंधी से उन्हें मालूम हुआ था कि रिटायरमेंट के बाद आत्मारामजी महाराष्ट्र में बस गए है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि पिछले 50 साल से आत्मारामजी से उनका कोई संपर्क नहीं हुआ है। अब पंजाब में रहने वाला उनके परिवार का कोई सदस्य उनकी जानकारी में नहीं है। यही बात कर्नल तिलक राज ने मुझे बताई है। 

                      ब्रिगेडियर आत्माराम, कर्नल तिलकराज और आर एल गोत्रा जी मेघ समाज से ही है और बचपन से एक-दूसरे को जानते थे और जलन्धर में एक ही मोहल्ले में रहते थे।

                       मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई है कि कर्नल राजकुमार मेघ भी आत्मारामजी को जानते थे। मेरा उनसे संपर्क नहीं हो पाया है।

                      मैंने यह सब यहां क्यों लिखा? मेरे लिखने का उद्देश्य यह है कि इस जाति के बारे में जो भ्रम फैलाया जाता है, उसको दूर करना हमारा दायित्व है। वर्तमान में भी कई मेघ/मेघवाल भारत की सेना में कमीसन्ड अफसर है, कई मेघ कप्तान और कर्नल रैंक में भी है। जोधपुर की शेरगढ़ तहसील से अभी दो जवान लेफ्टिनेंट पद पर कार्यरत है। कई लोग कैप्टन रैंक से सेवानिवृत्त हुए है। सियांधा (शेरगढ़) के पूंजाराम जी पहले आदमी थे, जो कप्तान रैंक तक पहुंचे थे।  वे पिछली शताब्दी के आठवें दशक में सेवानिवृत्त हुए थे, शायद सन 1980 से पहले और मेरे पिताजी से परिचित होने के कारण मैं भी उनको व्यक्तिगत रूप से जानता था। मेरे पिताजी द्वितीय विश्वयुद्ध में बतौर सैनिक अंग्रेजों की सेना में थे। मेरे ननिहाल से भी एक दर्जन मेघवाल लोग द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिक रहे है और कईयों ने उस युद्ध में शहादत दी। द्वितीय  विश्वयुद्ध के मेघ वीर सैनिक हरबंश जी और बलिराम जी भी कैप्टेन रैंक तक पहुंचे थे। लेकिन मेघों में ब्रिगेडियर रैंक तक पहुंचने वाले आत्मारामजी पहले व्यक्ति है। 

किसी की जानकारी में अन्य कोई हो तो उसे साझा करें।

 कुछ लोगों ने मुझे बताया कि वे लेफ्टिनेंट जनरल तक पहुंचे थे, परंतु उसकी पुष्टि नहीं हुई है, जबकि ब्रिगेडियर रैंक तक की पुष्टि कई स्रोतों से हुई है।

      इस संबंध में कोई ओर जानकारी हो तो साझा करें।


                        समय के साथ आत्मारामजी के परिवार ने पंजाब छोड़ दिया और अब उनकी जानकारी का कोई स्रोत नहीं है। इसमें जो फ़ोटो दिया है, उसे श्री आर एल गोत्रा जी ने स्वयं तस्दीक करके मुझे भेजा है। कर्नल तिलकराज ने भी इस फोटो की तस्दीक की है कि यह फोटो ब्रिगेडियर आत्मारामजी का ही है। इस हेतु गोत्राजी का आभार।


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मेघ डुग्गर की प्राचीन शासक कौम:

Wednesday, May 17, 2023

मेघ डुग्गर की प्राचीन शासक कौम:

सौर्स तारा राम गौतम। सांस्कृतिक दृष्टि से डुग्गर प्रदेश, भारत के उत्तर में अवस्थित वह पर्वतीय भूखण्ड है, जिसके अन्तर्गत जम्मू कश्मीर राज्य के जम्मू मंडल, पंजाब के होशियारपुर और गुरदासपुर जनपदों के पर्वतीय क्षेत्र, हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, चम्बा, मंडी, विलासपुर्‌ और हम्मीरपुर क्षेत्र तथा पाकिस्तान स्थित सियालकोट और जफरवाल तहसील के एक सौ सोलह गांव परिगणित होते है, किन्तु भारत विभाजन के बाद और भारत में राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात्‌ अब केवल जम्मू प्रान्त ही डुग्गर का पर्यायवाची माना जा रहा है। जहां पर मेघों की सर्वाधिक आबादी आज भी निवास करती है। यह विदित है कि डुग्गर क्षेत्र में मेघ जाति का प्राचीन काल से ही आधिपत्य रहा है और यहां प्राचीन काल से ही मेघों की सघन आबादी निवास करती रही है। भारत का विभाजन होने पर इस क्षेत्र के बहुत से लोग भारत के पंजाब, राजस्थान और अन्य प्रदेशों में आ बसे है, फिर भी वर्तमान में भी पाकिस्तान में भी इनकी बहुत बड़ी आबादी निवास करती है। विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों से यह ज्ञात होता है कि मेघ एक प्राचीन नागवंशीय जाति है और महाभारत की मद्र जाति की वंशधर कही गयी है। प्राचीन काल में हिमाचल का डुग्गर क्षेत्र 'मद्र देश' का ही भाग था, इसका पता हमें पद्मपुराण के पाताल खण्ड में आये विवरण से भी चलता है। डुग्गर के हिमता क्षेत्र में मिले एक त्रिशूल पर ब्राह्मी लिपि में विभुनाग और गणपति नाग का नाम उत्कीर्ण है। इससे भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यहां नागों/मद्रों का शासन था और यह भूमि इन लोगों से आबाद थी। लगभग 9वीं शताब्दी तक नागों/मद्रों के वंशधर मेघ यहां शासनारुढ़ थे। इसकी पुष्टि विभिन्न वंशावलियों से होती है। डुग्गर के इतिहास में उल्लेखित है कि "डुग्गर की एक और जाति जिस का उल्लेख लोककथाओं ओर दन्तकथाओं में आता है , वह "मेघ" है। डॉ सुखदेव सिंह चाडक का मत है कि मेघ जाति के लोग केवल डुग्गर में ही रहते है। अतः सम्भावना की जा सकती है कि ये खसों के साथ या उनसे भी पहले इस क्षेत्र में आये हों। इन की गणना किरात जातियों के अन्तर्गत नहीं की जा सकती है, क्योंकि इनकी जीवन शैली में शमान संस्कृति के चिह्न नहीं मिलते। मेघ कबीले के लोगों का रंग गेहूंआ और कद किरातों से कुछ बड़ा है। इन्होंने रावी नदी से लेकर मनावर तवी के मध्य कई बस्तियां बसाई और डुग्गर की अधिकांश भूमि पर आधिपत्य स्थापित किया। ये कृषि कर्म में बहुत रूचि लेते थे और पशु-चारण भी इनका व्यतसाय था। किरात कबीले की उपजातियां इन्हें अपने से श्रेष्ठ मानती थी, अतः ये लोग उनके लिए पूज्य रहे है ।" (डुग्गर का इतिहास, पृष्ठ 12) आठवीं-नौंवी शताब्दी में मेघों का आधिपत्य इस क्षेत्र में निर्बाध नहीं रहा। नवोदित राणाओं से उनकी लड़ाईयां होती रही। ऐसे में मेघों के कई कबीलों को प्रव्रजन भी करना पड़ा। परंपरा कहती है कि आज से बारह सौ वर्ष पूर्व मेघों और राणाओं के बीच सत्ता का संघर्ष था और संघर्ष में मेघों ने नवोदित राजपूतों के साथ अपना संगठन बनाया और नवोदित राणाओं को चुनौती दी। धीरे-धीरे मेघ राज सत्ता से दूर हो गए और अपनी सत्ता को राजपूतों को हस्तांतरित कर दिया। मेघों ने स्वतः राजपूतों को अपना शासक स्वीकार किया, न कि यह राजपूतों की मेघों पर विजय थी। इस तथ्य का उल्लेख डुग्गर के इतिहास में निम्नवत मिलता है: "लोक परम्परा के अनुसार आज से बारह सौ वर्षं पूर्व इस क्षेत्र में राणा प्रणाली का ही शासन था। राणा बहुत ही क्रूर थे, अतः स्थानीय लोग उन से बहुत दुःखी थे। इस इलाके मेँ जो लोग रहते थे, उन में मेघ कबीले के लोग अधिक संख्या में थे। उन्होंने भी अपना अलग राज्य स्थापित कर लिया था। जिस का सरदार भी 'मेघ' कबीले का था। किन्तु मेघ कबीले के सरदार को राणा बहुत तंग करते थे। वे उसके इलाके में घुस कर पशुओं को हांक कर ले जाते थे और जनः तथा धन की भी हानि करते थे। अन्ततः तंग आकर मेघ सरदार ने विलासपुर के चन्देल राजा वीर चन्द से सहायता मांगी । राजा वीरचन्द ने मेघ सरदार की सहायता के लिए अपने भाई गम्भीर चन्द को भेजा। गम्भीर चन्द ने मेघ कबीले के लोगों को सहायता से अत्याचारी राणाओं को इस क्षेत्र से भगा दिया। मेघ कबीले के सरदार ने राणाओं से मुवित पाने के बाद गम्भीरचन्द को ही इस क्षेत्र का राजा स्वीकार किया। इस प्रकार नवमीं शताब्दी में राजा गम्भीर राय ने इस राज्य की स्थापना की। उसने तवी नदी के तट पर 'चक्क' गांव को अपनी राजधानी बनाया। बारहवीं शताब्दी के लगभग गम्भीर राय के वंशज चंदेल राजाओं ने अपनी जाति के नाम पर लद्दा पहाड़ के नीचे एक सीढीनुमा मैदान में एक नये नगर की नीव रखी, जिस का नामकरण उन्होने चन्देल नगरी किया। बाद में चन्देल नगरी का ही नाम बदलते- बदलते चनैनी पडा । चनैनी के नामकरण के बाद हिमता या हियुंतां राज्य का नाम भी चनैनी राज्य पड गया। चनैनी राज्य का पुराना नाम हियुंता था। अतः इस राज्य के राजवंश के लोगों को हिंताल कहा जाने लगा।" (डुग्गर का इतिहास, पृष्ठ 155) वर्तमान में मेघ न तो एक शासक कौम है और न ही सवर्ण हिंदुओं में शुमार है। यह जम्मू की एक पिछड़ी जाति मानी जाति है और राज्य की अनुसूचित जातियों की सूची में मेघ और कबीरपंथी के रूप में सूचीबद्ध है।


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Glossary of Tribes : A.S.ROSE