मेघवंश इतिहास - नज़रिया
मेघ: विश्व इतिहास को कैसे समझे
मेघ लोग विश्व की कोई अलग जाति या समुदाय नहीं है बल्कि विश्व-इतिहास में घटित विभिन्न परिवर्तनों और प्रभावों से ही जुडा एक मानव समुदाय है। अतः उसका प्राचीन इतिहास भी इसी विश्व-इतिहास की परतों के अनुरूप और अनुशरण में ही ज्ञेय किया जाना चाहिए। जो लोग इसे अलौकिकता का जामा पहनाते है, वे सिर्फ और सिर्फ अंधकार को बने रहने देने का कार्य भर कर रहे है। अंधकार की परतों को हटाकर जब विश्व-इतिहास रचा जा सकता है तो आप लोग उस प्रकाश में अपना भी इतिहास खोज सकते हो, बस एक दृष्टि की जरुरत है। प्रकाश की वह किरण अगर आप प् लेते है तो उसके उजाले में बहुत कुछ साफ-साफ देख सकते हो। अतः इस संक्षिप आलेख में मनुष्य के प्राचीन इतिहास की जानकारी को अति संक्षेप में रखने का एक प्रयास किया है। इस आलेख की अपनी सीमाएं है फिर भी आप इससे एक दृष्टि पा सकते है। अतः तीन या चार कड़ियों में इसे यहाँ दिया जायेगा। आप इस पर अवश्य मंथन करेंगे- ऐसी मेरी अभिलाषा है।
मेघ लोग विश्व की कोई अलग जाति या समुदाय नहीं है बल्कि विश्व-इतिहास में घटित विभिन्न परिवर्तनों और प्रभावों से ही जुडा एक मानव समुदाय है। अतः उसका प्राचीन इतिहास भी इसी विश्व-इतिहास की परतों के अनुरूप और अनुशरण में ही ज्ञेय किया जाना चाहिए। जो लोग इसे अलौकिकता का जामा पहनाते है, वे सिर्फ और सिर्फ अंधकार को बने रहने देने का कार्य भर कर रहे है। अंधकार की परतों को हटाकर जब विश्व-इतिहास रचा जा सकता है तो आप लोग उस प्रकाश में अपना भी इतिहास खोज सकते हो, बस एक दृष्टि की जरुरत है। प्रकाश की वह किरण अगर आप प् लेते है तो उसके उजाले में बहुत कुछ साफ-साफ देख सकते हो। अतः इस संक्षिप आलेख में मनुष्य के प्राचीन इतिहास की जानकारी को अति संक्षेप में रखने का एक प्रयास किया है। इस आलेख की अपनी सीमाएं है फिर भी आप इससे एक दृष्टि पा सकते है। अतः तीन या चार कड़ियों में इसे यहाँ दिया जायेगा। आप इस पर अवश्य मंथन करेंगे- ऐसी मेरी अभिलाषा है।
मनुष्य
 जाति काआदि-इतिहास अंधकार में दबा पड़ा है, उसका एक सबसे बड़ा कारण यही रहा 
है कि उस समय लिखने की कला का विकास नहीं हुआ था। और जब मनुष्य ने कुछ 
महारथ हासिल करके अपने को कुछ शक्ति-सम्पन्न बना दिया, तब भी उसके दिमाग 
में वह काबिलियत या उर्जा नहीं थी कि वह सत्य और झूठ को अलग-अलग कर सके। इस
 लिए सभी देशों के इतिहास दन्त-कथाओ के वर्णनों से परिपूर्ण मिलते है। इन 
में अपवाद को ढूंढ़ने का अवसर ही नहीं है। इन मिथकीय वर्णनों को आज साफगोई 
के साथ परखा जा सकता है, कारण यह है कि उन में समाहित या संलग्न कल्पनाओं 
और तथ्यों को अलग करने के आधार मनुष्य बुद्धि ने खोज निकाले है। उनसे यह 
अभीष्ट निकलता है कि सभी देशों या राष्ट्रों के प्राचीन इतिहास अपने देश या
 राष्ट्र की सुझावग्राह्यता से ग्रसित रहे है और यहाँ तक कि वे उससे 
आबद्ध, अतिरंजित और अनुप्रेरित होते रहे है.ये मानवीय बुद्धि की संभाव्यता 
के निदर्शन या प्रतिरूप कहे जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
बिना
 किसी लिखित दस्तावेजों के भी मनुष्य ने अपने प्राचीन इतिहास को जानने के 
लिए कईं उपागमों और तरीकों को अपनाया है। इन साधनों को अख्तियार करने में 
सबसे महत्वपूर्ण भूमिका भु-गर्भ विज्ञान के विकास की रही है, उसे किसी भी 
स्तर पर नकारा नहीं जा सकता है. जिस इतिहास का अन्वेषण पहले धार्मिक 
ग्रंथों के आधार पर खोजा जाता था और माना जाता था कि सबसे पहले मनुष्य की 
उत्पति हुई , उसे भू-गर्भ विज्ञान ने स्पष्ट कर दिया कि पृथ्वी पर मनुष्य 
की उपस्थिति कई घटनाओं और जीवों के उत्पन्न होने के बहुत बाद में हुई है। 
यह उसके इतिहास को जानने के प्रयासों में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था। यह 
अभिधेय हुआ कि मनुष्य की उत्पति बहुत प्राचीन है फिर भी छोटे-मोटे 
जीव-जन्तुओ की उत्पति मनुष्य की उत्पति से बहुत प्राचीनतर है और यह कि 
पृथ्वी के धरातल पर मनुष्य का अवतरण या विचरण तब तक नहीं हुआ था, जब तक कि 
पृथ्वी का धरातल विभिन्न परिवर्तनों के बाद उसके रहने योग्य नहीं हो गया। 
अगर देखा जाय तो मनुष्य का प्राचीन इतिहास जानने में इस साधन या उपागम ने 
बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दूसरा, जो मानव-जाति विज्ञानी 
या Enthnologist है, उनकी खोजों ने भी मानव इतिहास की कई परतों को खोलने और
 उसे सुस्पष्ट करने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मानव-जाति विज्ञानी 
प्राचीन राष्ट्रों का इतिहास उनकी भौतिक या शारीरिक विशेषताओं, उनकी 
भाषाओं, शिष्टाचारों आदि के माध्यम से करते है। उनके द्वारा की गयी नित नयी
 खोजों और जानकारियों से इस महत्वपूर्ण संभावना की स्थापना हुयी कि मानव 
जाति एक ही जोड़े से पैदा हुई है और वह भी एक ऐसे प्राचीन सुदूर केंद्र 
में, जहाँ पहली मानव-बस्ती बसी । ऐसे विभिन्न साक्ष्यों व शास्त्रों के 
स्वतंत्र निवाकरणों से भी कोई भी मनुष्य की प्रथम उत्पति या उपस्थिति की 
ठीक-ठीक गणना करने में अभी तक सफल नहीं हुआ है। फिर भी यह एक सामान्य चलन 
बन गया है कि मनुष्य की उत्पति ईसा से चार हजार वर्ष पहले हो चुकी थी।
तिथि
 गणना के ऐसे जो आंकड़े है, वे विभिन्न राजाओं के काल को जोड़ते हुए आंकलित 
किये जाते है। भारतीय सन्दर्भ में भी कई धार्मिक ग्रंथों में वर्णित राजाओं
 के काल को जोड़ते हुए मानव की उत्पति के कयास लगाये गए है। ऐसे सभी प्रयत्न
 निःसंदेह मानव-इतिहास को समझने में सहायक रहे है- उन्हें एक सिरे से नकारा
 भी नहीं जा सकता है। परन्तु जब उन्हें समग्र रूप से देखा जाता है तो ऐसा 
ज्ञात होता है कि विभिन्न देशों या राष्ट्रों के वर्णनों में उनकी गणना 
एक-दूसरे देश या राष्ट्र से बहुधा मेल ही नहीं खाती है । इतना ही नहीं एक 
ही देश या राष्ट्र के अलग-अलग साक्ष्यों में भी वह अलग-अलग मिलती है। इस 
प्रकार से ये जो साहित्यिक या शास्त्र-साक्ष्य है वे एकरूपता लिए हुए नहीं 
है। अतः उनको आधार मानना खतरे से खाली नहीं है।
प्राचीन
 इतिहास को जानने के साधनों में ज्ञान की एक नयी शाखा पुरातत्व ने सबसे 
अहम् भूमिका निभाई। हम पुरातत्व को, जो प्राचीन स्मारक या अवशेष आदि 
है, उनके वैज्ञानिक अध्ययन से जुडी शाखा के रूप में जानते है। उसकी नित-नयी
 खोजों से भी प्राचीन इतिहास को उघाड़ने या उसका संधान करने में हमें बहुत 
बड़ी सहायता मिली है। इन खोजों से यह साबित हुआ कि प्राचीन काल में सभी 
राष्ट्रों का तकरीबन एकसा ही निश्चित इतिहास रहा है। सभी आदि काल में 
जंगली, अनपढ़ और धातुओं के प्रयोग आदि से अनभिज्ञ थे। धीरे-धीरे उसने औजार 
बनाये- पत्थर के, हड्डियों के, सींगों के और अन्य चीजों के- जो उसे उपलब्ध 
थे। उसका भोजन भेड़-बकरी या मच्छली आदि था। समय के साथ उसने धीरे-धीरे 
धातुओं का प्रयोग भी सीखा और ताम्बा, टिन, सोना,चाँदी का प्रथमतः उपयोग 
शुरू किया। उसके बाद लोहे का उपयोग भी शुरू हुआ। ऐसा माना जाता है कि यह 
आदि पाषण-युग हमारे लिखित इतिहास के शुरू होने से बहुत पहले ही ख़त्म हो 
गया। लेकिन दक्षिणीय समुन्द्र के किनारे बसी बस्तियों में यह आज भी 
वर्त्तमान है। कुछ देशों में ताम्र-युग का भी लिखित इतिहास नहीं है और 
लौह-युग में भी घटनाओं का लेखबद्ध किया जाना नहीं मिलता लेकिन रोमन आदि 
साहित्य में यथा होमर की कृतियों में ताम्र-युग को पार करने के प्रचुर 
साक्ष्य मिलते है।
इस प्रकार से 
अगर विहंगम दृष्टिपात करे तो मनुष्य के प्रारंभिक इतिहास का खाका खींचने 
में हमें बहुत कुछ तार्किक संभाव्यता मिल जाती है और यह स्पष्ट हो जाता है 
कि एक बर्बर आदि-मानव का सभ्य-मानव में बदलना अपने आप में अन-थकी और अन-कही
 एक लम्बी यात्रा है। वस्तुतः इन सबसे हम सिर्फ तार्किक रूप से कुछ तार 
पकड़कर ही प्राचीन इतिहास का उद्घाटन कर पाते है। सामान्यतया इतिहासकारों का
 मत है कि ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में 
मानव-बस्तियां इजाद थी, जो आज भी मौजूद है एवं अभी भी अपनी प्राचीन आदतों 
और आकृतियों से साम्यता रखती है। इस कड़ी में अगर देखा जाय तो जो कुछ 
पुस्तकीय साक्ष्य है या विभिन्न राष्ट्रों की जो आम-धारणाएं है, वे सभी इस 
बात की ओर संकेत करती है कि एशिया, और वह भी उसका पश्चिमी भाग मनुष्य की 
प्रारंभिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। वहीँ से मनुष्य का पृथ्वी के अन्य 
भागों में फैलाव हुआ। यूरोप, अफ्रीका और अमेरिका में भी वहां की धरती और 
पर्यावरण के अनुसार आबादी हुई। कदाचित आदि मानव की उत्पति का केंद्र भी 
अफ्रीका माना जाता है पर सभ्यता का विकास वहां नहीं हो पाया, इसका श्रेय 
निश्चित रूप से एशिया महाद्वीप को ही दिया जाता है।
ऐसे
 कतिपय साधनों से जुटायी गयी जानकारियों के साथ ही मानव-इतिहास के 
प्रारंभिक चरण की सामान्य अवधारानाओ या कथनों को पुष्ट करने हेतु इतिहासकार
 आदि-मानव की जनसँख्या को उसके विशेष लक्षणों, जो एक-दूसरे से भिन्न या 
विशेष है, के आधार पर भी उसे कई भागों में विभक्त कर इतिहास को समझने की 
कोशिश करते है। यह भी एक महत्वपूर्ण और अहम् साधन और उपागम है, जिससे दबे 
हुए इतिहास की कई परते खुली और कई तरह के संदेहों से पर्दा उठा। इसमे 
विभिन्न लक्षणों के आधार पर मानव-प्रजाति का कई भागों और उपभागों में 
विभाजन किया जाता है और फिर उनके मानक और विचलन की संभाव्यता और विस्तार को
 आधुनिक उपस्थित मानव से मेल करते हुए इतिहास की रिक्तता को भरा जाता है। 
जो मानव-प्रजाति का अध्ययन करने वाले एथ्नोलोजिस्ट है, वे मोटे रूप से तीन 
तरह की विभिन्नताओं के आधार पर मानव-जाति को मानव-समूहों या राष्ट्रों में 
बाँटते है, वे है- 1.शारीरिक बनावट की भिन्नता, 2.भाषा की भिन्नता 
और 3.बुद्धि या नैतिक-मानदंडों की भिन्नता।
इन
 तीनों आधारों पर मानव जाति का परीक्षण या बंटन करते हुए मानव-जाति 
विज्ञानी(एथ्नोलोजिस्ट) और इतिहासकार सामान्यतया समस्त मानव-जाति को तीन 
मुख्य भागों या प्रकारों में बांटते हुए सहमत होते है। इतिहास के सुगम 
ज्ञान हेतु उसे साधारणतया निम्नवत समझा जा सकता है- 1.नीग्रो (Nigros)या 
एथोपियन प्रकार- इसका मूल क्षेत्र अफ्रीका माना जाता है। जो एटलॉस का 
दक्षिण है(Continent of Africa, south of mount Atlas). इस प्रजाति के मानव
 का वर्गीकरण उसके काले रंग, घने घुंघराले ऊनि किस्म के बाल, लम्बी और 
संकीर्ण खोपड़ी, उन्नत ललाट और जबड़ों आदि की शारीरिक और भौतिक बनावट के आधार
 पर करते है। उनकी भाषा संयुक्ताक्षारी (agglutinated language) व एक पदीय 
आदि ज्ञात की जाती है। इस मानव-प्रजाति ने अभी तक विश्व-इतिहास पर कोई 
विशेष प्रभाव नहीं बनाया, हालाँकि नीग्रो प्रजाति साहसी, उद्यमशील और खेती 
के प्रति अति संवेदशील और प्यारे लोग है फिर भी बौद्धिक क्षमता के विकास के
 कम ही अवसर है। 2.मंगोलियन (Mangolian) प्रकार- इसका प्रसार पूर्वी और 
उत्तरी एशिया महाद्वीप में है, साथ ही पोलिनेसिया और अमेरिका में भी है। 
इनकी चमड़ी का रंग पीला, जो गौर वर्ण से लेकर श्याम वर्ण के बीच विस्तीर्ण 
माना जाता है। इनकी शारीरिक बनावट में ऋजु और दुबले प्रकार के, काले बाल और
 सपाट चेहरा, व्यापक खोपड़ी, गालों की हड्डी उभरी हुई और संकीर्ण आँखें आदि 
बताये जाते है। इस मानव-प्रजाति ने मानव-सभ्यता पर बहुत व्यापक और सार्थक 
प्रभाव डाला है- मुख्यतः नैतिक विकास के आयाम में, विभिन्न आविष्कारों के 
द्वारा, युद्धों द्वारा प्रव्रजन के द्वारा विभिन्न भू-भागों को आबाद करने 
आदि में। ये एशिया के उन लोगों के नेतृत्व कारी लोग थे जो नोमेडिक जीवन जी 
रहे थे, उन्हें मध्य एशिया तक सिमित कर दिया। इस प्रजाति का सर्वोच्च विकास
 हम चीन और जापान में पाते है, जो इस प्रजाति से सम्बंधित 
है। 3.काकेसियन (Caucasian)प्रकार- इस प्रजाति का मूल प्रदेश पश्चिम 
एशिया, यूरोप और अफ्रीका (एटलॉस के उत्तर का अफ्रीका) माना जाता है, परन्तु
 यह प्रजाति भी विश्व के विभिन्न भागों में फ़ैल गयी। भारत में आने वाले 
अंग्रेज (Britishers) इसी प्रजाति से निकले हुए लोग थे। रंग-रूप में ये गौर
 वर्णीय या हलके काले रंग के मने गए है। अच्छे और काले बाल परन्तु ऊनी 
किस्म के नहीं। गोल या अन्डाकर खोपड़ी, उन्नत ललाट आदि शारीरिक विशेषताएं 
पाई जाती है। इसके भी दो प्रकार पाए जाते है- अ: सेमेटिक या सीरो 
प्रकार, जिसमे अरेबियन समूह के लोग परिगणित किये जाते है और 
ब: इंडो-युरोपियन या जफेटिक समूह। समेटिक लोग सीरिया और अरब देशों में 
फैले, जिनका मूल प्रदेश या निवास एशिया का पश्चिमी भाग (इसमे अफ्रीका भी 
शामिल) माना जाता है। जो एक ओर टिगरिस और नील नदी के मध्य तक तथा दूसरी ओर 
भू मध्यसागर के क्षेत्र और हिन्द महासागर तक के विस्तृत क्षेत्र में माना 
जाता है। भारोपीय या इंडो-यूरोपियन का भारतीय प्रायः द्वीप से पश्चिमी की 
ओर पर्शिया तथा पूरे यूरोप को पार करते हुए कैप्सियन सागर और ब्लैक-सी से 
एटलान्टिक और जर्मन सागर तक का क्षेत्र माना जाता है। काकेशिया समूह ने 
विश्व-इतिहास में विशिष्ट भाग अदा किया है।
मानव-प्रजाति
 का मोटे रूप में किया गया यह प्रकार भेद और कई आधारों पर उपविभाजित किया 
जाता है, ज्ञान के क्षेत्र में वह सब महत्वपूर्ण है परन्तु सबसे महत्वपूर्ण
 प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि मानव की इन प्रजातियों में और उनके चरित्र 
में ये विभिन्नताएं कैसे पैदा हुई? मनुष्य की खोज-बुद्धि ने इस पर भी बहुत 
जाँच-पड़ताल की है। इस पर भी काफी कुछ लिखा जा चुका है और अनुसन्धान हो चुका
 है। क्या ये वातावरण के प्रभाव से धीरे-धीरे परिवर्तित हुए? क्या इनके 
शारीरिक गुण उनकी बनावट के कारण विकसित हुए? आदि कई तरह के प्रश्न है, जो 
अभी भी अंतिम रूप से निर्णीत नहीं हुए है। जहाँ तक उपलब्ध इतिहास की बात है
 और प्राचीन ज्ञात इतिहास की पैठ है, ये भेद जैसे आज है वैसे ही पूर्व में 
भी दिखते थे। अफ्रीका जैसा अभी है, पूर्व में भी था- जो इथोपियन या नीग्रो 
लोगों का आवास है। पूर्वी और मध्य एशिया मंगोल लोगों का आवास या घर है तो 
पश्चिम एशिया और यूरोप काकेशियन प्रकार के लोगों का आवास या घर है।
इतिहास
 की दबी परतों में हम जितना पीछे जाते है, यह पाते है कि मनुष्य का चाहे 
जैसा भी प्रकार रहा हो, उसका विभिन्न जातीय- समुदायों में या परिवारों में 
बंटाना उसके बर्बर या आदिवासी जीवन में ही शुरू हो गया था परन्तु इसकी कोई 
ठोस इतिहास-सामग्री नहीं मिलती है। ऐसे सभी आंकलन तार्किक रूप से इतिहास की
 रिक्तता को भर देते है और इतिहास एक गति या लय से चल पड़ता है। वस्तुतः 
इतिहासकार का काम वहां से शुरू होता है, जब मनुष्य ने अपने विशेष सामाजिक 
समूह की जनसँख्या को एक कौम या राष्ट्र कहना शुरू किया, एक निश्चित भू-भाग 
पर रहना शुरू किया और धीरे-धीरे उसका प्रकटीकरण होने लगा और पहचान बनने 
लगी। कुछ निश्चित कानून-कायदों के या सरकार के अधीन रहने लगे। यह पहली बार 
किस तरह से घटित हुआ या ये समागम या संयोजन कैसे हुए- हम अभी भी अनभिज्ञ 
है। इस पर भी बहुत सारी संभावनाएं व्यक्त की जाती है, जो हमारे ज्ञान 
क्षेत्र में इजाफा करती है।
कुछ इस
 तरह के वर्णन मिलते है कि सामाजिकता की प्रवृति मनुष्य की एक मूल-प्रवृति 
है, जिसने पहले एक छोटे से मनुष्य-समूह में आश्रय पाया और धीरे-धीरे उसका 
प्रसार या विस्तार अन्य मनुष्य समूहों में भी हुआ। इस प्रकार से वे 
व्यक्तियों को एक-दूसरे के नजदीक सम्बन्ध करते गए या जोड़ते गए और सामाजिक 
समूह विभिन्न परिवार, गोत्र या जाति आदि के रूप में उभरते गए और एक कौम या 
राष्ट्र का प्रार्दुभाव हुआ। कुछ यह भी कहते है कि यह सब बाहरी या 
पर्यावर्णीय कारणों से हुआ। मनुष्य पहले पहाड़ों में या कंदराओं में रहता था
 फिर वह घाटी-प्रदेशों में आया, वहां से नदियों के उपजाऊ मुहानो पर आया और 
वहां से अन्य प्रदेशों या जगहों पर गया या कि मनुष्य पहले शिकारी के जीवन 
या पेशे में ढला, मत्स्य-जीवनयापन किया फिर उसने उन्नत पशुपालन जीवन में 
प्रवेश किया फिर कृषि के जीवन में ढला- जिसने शहरों, बाजारों और सभ्यता के 
अन्य साजो-सामान को जन्म दिया, आदि-आदि।
इन
 सब में सच्चाई का पुट है- कोई एक या सभी कारण किसी न किसी घटना या विकास 
के उत्तरदायी कारक रहे है लेकिन उन्हे सिर्फं योंही या स्वतः ही विश्वसनीय 
नहीं मान लेना चाहिए। जो कुछ निश्चित रूप से कहा जा सकता है वह यह है कि 
कुछ निश्चित बाहरी परिस्थितियां यथा भूमि, जलवायु और भूगोलीय स्थिति ने जो 
छोटे समुन्द्रों के निकट थी या नदियों के नौकायन से कुछ विशेष सहयोगी 
क्रिया-कलापों, जो मानव जाति के लिए विशेष थी, वे अवसर पाकर उभरी। 
प्रारंम्भिक युग में इन परिस्थितियों ने कुछ कौमों को उनके एकीकरण और 
सहभागिता को बल दिया और वे एक संस्कृति के रूप में संज्ञेय हुए, जबकि बाकी 
मानव समूह बर्बर या असभ्य ही बना रहा। संस्कृति के विकास में आदान-प्रदान 
का महत्वपूर्ण योगदान होता है, उसे किसी भी स्तर पर नाकारा नहीं जा सकता 
है। बिना संचयन और आदान-प्रदान के संस्कृति विकसित ही नहीं हो सकती है।
इस
 प्रकार से मनुष्य जाति के प्रारंभिक सामान्य इतिहास पटल पर जो सबसे पहले 
राष्ट्र आते है- वे आंशिक रूप से सेमेटिक और आंशिक रूप से जेफेटिक कहे गए 
है। जिन्हें विभिन्न नामों से पुकारा जाता है 
यथा, इजिप्टियन, अरब, असीरियन, हेब्रो, फ़ोनेशियन, मेदिज, पर्शियन, लिडियन 
आदि-आदि। ये सभी प्राचीन काल में फले-फुले और आज भी एशिया के दक्षिण-पश्चिम
 भाग में अपने परिवर्तित या विकसित रूप में विद्यमान है और अफ्रीका के 
निकटस्थ भागों में भी। ईसा से बहुत शताब्दियाँ पूर्व हम पाते है कि ये 
राष्ट्र साथ-साथ अस्तित्व में है या एक-दूसरे के उत्तरोतर में। प्रत्येक का
 अपना वजूद है और इन्होने प्रत्येक ने अपनी एक राज्य संस्था या पोलिटी 
विकसित की थी। हमें यह भी ज्ञात होता है कि वे एक-दूसरे के विरोध में और 
काफी हद तक अलग या एकाकी और एक-दूसरे की क्रिया या प्रतिक्रिया में 
क्रियाशील भी उजागर होते है। यह सब उनके लडाई-झगड़ों या वाणिज्य-व्यापार से 
स्पष्ट होता है। ईसा पूर्व लगभग पांचवीं या छठी शताब्दी में इन्हें पर्शिया
 एम्पायर के रूप में हम विश्व-पटल पर इन्हें संज्ञेय करते है। इस साम्राज्य
 का गठन इतिहास की महत्वपूर्ण गूंज या घटना है। तब तक का विभिन्न देशों या 
राष्ट्रों का इतिहास अलग-अलग या विशिष्ट है। इतिहासकार सभ्यता के विकास को 
जानने हेतु एक से दूसरे की टोह लेते रहते है, जिससे उन्हें अच्छे ढंग से 
जानने के अवसर मिलते है।
पर्शियन एम्पायर के गठन की तिथि 
विभिन्न स्रोतों में बिखरी पड़ी इतिहास सामग्री को एक सूत्र में बंधने का 
अवसर देती है और उस समय से इतिहास एक लय और एक गति को प्राप्त कर लेता है। 
तब से लेकर दो शताब्दियों तक पर्शियन प्राच्य-जगत (Oriental World) के 
मालिक होते है। इसलिए उनका जो इतिहास है वह प्राचीन राष्ट्रों के सामान्य 
इतिहास को अपने में समाहित कर लेता है। उसके बाद ग्रीक लोगों का वर्चस्व 
बढ़ता है और वे सभ्यता को पर्शिया की सीमाओं से बाहर ले जाते है। यह भी दो 
शताब्दी तक रहता है। ग्रीक लोगों को रोमन लोगों से टक्कर मिलती है और रोमन 
एम्पायर की भूमिका बढ़ती है, जो सभ्यता को पश्चिम में अटलांटिक तक ले जाते 
है। इनका भी पाँच सौ- छः सौ वर्षों तक वर्चस्व रहता है और उसका विघटन 
आधुनिक समाज के निर्माण में होता है।
रोमन
 एम्पायर के विघटन से पूर्व के प्राचीन विश्व इतिहास को इतिहासकारों ने चार
 भागों में बांटा है- 1.प्राचीन काल (Primeval Era)- प्राचीन काल की तब तक 
की अवधि जब तक की प्राचीन राष्ट्रों का अपना इतिहास अस्तित्व में नहीं 
आता- लगभग ईसा से 525 वर्ष से पहले का युग। 2.परेशियन युग (Persian 
Era)- इसमे पर्शियन आधिपत्य का काल समाहित है जो 525 ई.पूर्व 
से 330 ई.पूर्व तक माना गया है। 3. ग्रीस-एम्पायर (Grecian 
Era)- जो 330 ई. पूर्व से तब तक माना जाता है, जब तक रोमन शक्ति की स्थापना
 नहीं होती है और लगभग ई. पूर्व 90 तक माना जाता है। 4. रोमन युग (Roman 
Era)- ई. पूर्व 90 से 476 ईस्वी तक।
इन
 चारों युगों में तिथियों या अवधी को लेकर थोड़ी-बहुत उहा-पोह हो सकती है 
परन्तु विश्व-इतिहास की समझ हेतु यह उपागम तकरीबन सर्व सहमतिकारक मन जाता 
है। इन चारों काल-खण्डों में विश्व-इतिहास में प्रारंभिक युग और पर्शियन 
युग में चीन और भारत का इतिहास कदाचित गायब'सा है, क्योंकि इसके बाद 
उत्पन्न ग्रीक और रोमन साम्राज्यों में ये राष्ट्र स्थायी रूप से समाहित 
नहीं रहे है। अतः इनका इतिहास लुप्त-प्रायः है। जो कुछ भारत के बारे में 
लिखा गया वह उसकी वर्त्तमान हालातों का अवधान करके ही इतिहासकारों ने लिखा 
है। अभी भी भारत का प्राचीन इतिहास खोज का विषय ही बना हुआ है, जबकि ग्रीक 
और रोमन साम्राज्यों में पर्शियन साम्राज्यों की प्रबल संयुजता और काल 
क्रमिकता रही है।
-------क्रमशः --जारी----2
शेष अगले आलेख में--------------क्रमशः --जारी----2
मेघ: एशिया का इतिहास
पिछली
 पोस्ट में विश्व-इतिहास पर एक विहंगम अवलोकन रखा था, जिसमे यह बात कही गयी
 थी कि एशिया महाद्वीप सभ्यताओं की भूमि रही है। इसलिए विश्व में एशिया 
महाद्वीप 'officina genitium' या 'mother of nations' के नाम से जाना जाता 
है। ऐसा कहने का एक सबसे बड़ा कारण यह है कि इसने न केवल विभिन्न सभ्यताओं 
को जन्म दिया बल्कि इसने बहुतायत से यहाँ पर विभिन्न मानव-प्रजातियों को 
आश्रय भी दिया। एशिया में निवासित मलय या दक्षिण की दो मानव प्रजातियों को 
छोड़ दे, जो दुनिया में पनपी पांच या छः प्रजातियों में से है, तो तक़रीबन 
सभी प्रजातियाँ यहाँ पनपी। सामान्यतया मंगोलिया के रहवासी और काकेसिया के 
रहवासी एशिया महाद्वीप की प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करते है। इन दो 
विशिष्ठ भू-भागों के आधार पर ही इन दो विशिष्ट प्रजातियों का नाम पड़ा 
है, हालाँकि इन नामों को लेकर कई प्रकार के आक्षेप भी लगते है और इनके 
दूसरे वैकल्पिक या वैज्ञानिक नाम भी सुझाये जाते है, पर ये नाम इतने 
सुआख्यात और सुदृढ़ हो गए है कि उनके दूसरे सुझाये गए नाम इतनी स्पष्टता से 
प्रकट या प्रस्फुटित नहीं होते है।
काकेसियन
 लोगो के लिए जर्मन लेखकों ने बारम्बार 'मेडिटेरियन' शब्द का प्रयोग किया 
है। समुन्द्रों के किनारे टापुओं में बसे लोग इसी प्रकार में समाहित माने 
गए है। मेडीटेरियन शब्द को एक विकल्प के रूप में तो लिया जा सकता है परन्तु
 यह काकेशियन शब्द के पर्याय या सबस्टिट्यूट के रूप में नहीं लिया जा सकता।
 क्योंकि ऐसा अवधान करने से यह शब्द बहुत सी मानव प्रजातियों को बाहर कर 
देता है, जो बहुत पहले यहाँ निवासित थी और धीरे-धीरे मेदितेरियन क्षेत्र से
 विस्थापित हो गयी। इसकी जगह पीत या पीली प्रजाति के लोग शब्द काम में लिया
 जा सकता है, जो यहाँ के निवासित लोगों की चमड़ी का रंग है। ध्यान देने वाली
 बात यह है कि चमड़ी के ये रंग आदि प्रतिस्थापकस्थायी कारक नहीं है, अतः फिर
 स्थितियां वैसी नहीं बनी रहती। पीत या येल्लो 'मंगोली' प्रायः 
उजले-साफ (फिर) या भूरे रंग में परिवर्तित हुए, जिन्हें युरोपियन रंग से 
अलग करना कठिन है और गौर वर्ण अक्सर काले या श्याम वर्ण में भी देखा गया 
है। कई कारको से शरीर के रंग-रूप का परिवर्तन या उनका अंतर्विष्ट स्वरुप 
घटित होता रहा है। जिन में प्रमुखतः जलवायु, भोजन, सामाजिक-आदतें और उनका 
आपसी अंतर्संबंध है। जो इस महाद्वीप में सुदूर अज्ञात काल से आज तक जारी 
है।
दक्षिण-पश्चिम एशिया- जिस में 
भारत, ईरान का पठारी क्षेत्र, अनातोलिया और अरबिया प्रायः द्वीप में 
काकेशियन प्रजाति की प्रमुखता है और बाकी में मंगोलियन प्रजाति की। यह भी 
स्थापित हुआ कि सुदूर पूर्व और भारत से परे उत्तरी क्षेत्रों में भी 
जापान, कोरिया, मंचूरिया और अल्टाई आदि प्रदेशों में भी इसका विस्तार हुआ। 
अतः जो कुछ निस्चित रूप से कहा जा सकता है, वह यही है कि पूर्व और पश्चिम 
संभवतः मंगोलियन और काकेशियन प्रजाति के मूल घर है। प्रश्न यह खड़ा होता है 
कि अगर ये मूल रूप में एक ही थे तो फिर उनमें भेद कैसे और कहाँ हुआ? और यह 
सब कैसे विस्तारित हुआ? आदि-आदि। इसलिए हमें तथ्यों के साथ बात करनी 
चाहिए, जो यह है कि ये दोनों आदिम प्रजातियाँ सहस्रों वर्षों से एक-दूसरी 
के संपर्क और सानिध्य में रही है। इतिहास केवल ऊपरी आवरण को कुरेदता है और 
तकरीबन पीछे के 7000-8000 वर्षों के इतिहास को जानने के लिए वह 
अक्कादियन, सेमेटिक, आर्य और चीनी आदि के रूप में धुंधली सी प्रतिध्वनि के 
एक रूप में व्यक्त करता है। अद्यतन जानकारी यह सुव्यक्त करती है कि उस समय 
भी एशिया महाद्वीप आर्टिक प्रदेश से भारतीय-महासागर तक और सर्मटिया से 
प्रशांत महासागर तक बसा हुआ था, जैसा कि वह आज है। न केवल इन दो सुस्पष्ट 
प्रजातियों के लोगों से बल्कि इनके विभिन्न अवांतर भेदों की प्रजातीय 
जनसँख्या के साथ आबाद था।
इतिहास 
की इन मद्धिम प्रतिध्वनियों से इतर सब कुछ शांत और अज्ञेय है। विभिन्न 
पुरातत्व अभियानों में एशिया में जगह-जगह कंकालो के टीले मिलते रहे है, जो 
क्रूर पाषण-काल और आदिम-मनाव के नम्र अवाशेषों को सुव्यक्त या उजागर करते 
है। एशिया में जगह-जगह बिखरे ऐसे अवशेष मनुष्य की यहाँ प्राचीन उपस्थिति को
 सुव्यक्त कर देते है। इनसे यह बात सुविदित हुई कि मानव-इतिहास के 
सुप्रकटिकरण से पूर्व कई युगों तक मनुष्य का एक जगह से दूसरी जगह आवर्जन और
 प्रव्रजन होता रहा है। मनुष्य आखेट, चारे और भोजन-पानी के लिए एक जगह से 
दूसरी जगह भटकता रहा है। जिससे उसका पीत वर्ण या गौर वर्ण अनंत प्रकारों 
में बदला और वह पूरे एशिया महाद्वीप में और पडोसी यूरोप, यूरोप के पश्चिमी 
प्रायः द्वीपों और उत्तरी अफ्रीका में विस्तृत हुआ। ऐसा माना जाता है कि 
इतना होने के बावजूद भी मंगोलियन प्रकार मुख्य रूप से एशिया महाद्वीप में 
बना रहा और काकेशियन प्रकार सर्वाधिक रूप से एशिया महाद्वीप के इतर विस्तृत
 हुआ। मंगोलियन तत्व का प्रतिनिधित्व मुख्य रूप से यूरोप के 
फिन्नो-तातार (finno-tatars), पूर्वी अर्चिपेलागो (eastern archipelago) और
 मदगस्कार (Madagascar) के रूप में पहचाना जाता है। जबकि काकेसियन स्टॉक का
 प्रतिनिधित्व यूरोप की आर्य प्रजाति के रूप में किया जाता है, जिनमे 
हमितेस (hamites) और सेमिटेस (Semites) का उत्तर और उत्तर पूर्व 
अफ्रीका, इंडोनेशिया, मलेशिया और प्रशांत महासागर के पोलिनेशिया आदि में 
विस्तार बताया जाता है। लेकिन एशिया महाद्वीप में अपने भीतर ही चीनी 
साम्राज्य, इंडो-चाइना, साईबेरिया और भारत से परे इरानीया, तर्किस्तान आदि 
इलाकों में भी मंगोल की विभिन्न प्रजातीयां है, जबकि यह भी माना जाता है की
 काकेशियन प्रजाति भारत के दक्षिण-पश्चिम भागों में और कुछ जापान में भी 
पायी जाती है। साथ ही साथ ये सभी क्षेत्र कुछ संदर्भित अर्थों में या 
संबंधों में परस्पर प्रयुक्त विरोधी शक्तियों के प्रतिनिधि भी कहे गए है।
ऐसे
 कई विवरणों और तथ्यों से यह कहना वाजिब लगता है कि पूर्व में मंगोल तत्व 
की प्रधानता है या अधिकता है तो वहीं पश्चिम में काकेशियन तत्व की, परन्तु 
आजकल दोनों प्रजातियाँ सर्वत्र पायी जाती है। इनका आपस में इतना मेल-जोल या
 घुलना-मिलना हो चुका है कि बहुत कम प्रदेश ऐसे है जहाँ ये अभी भी शुद्ध 
रूप में वर्त्तमान है। ऐसा माना जाता है कि अरबिया प्रायः द्वीप में 
काकेशियन और तिब्बत में मंगोलियन अभी भी बहुत-कुछ उसी रूप में है। लेकिन 
बाकी एशिया में ये इस प्रकार से घुल-मिल गए है कि यह कहना मुश्किल है कि ये
 कहाँ से शुरू हुए थे और कहाँ ख़त्म हुए। इस संदेह के कारण कई लोगों ने 
मंगोलियन प्रजाति का संज्ञान लेना ही छोड़ दिया।
इन
 सब पर जानकारी होना हमारे प्राचीन अलिखित इतिहास को जानने के लिए जरुरी 
है। अतः जो लोग इस क्षेत्र में काम करने के इच्छुक है, उन्हें इस प्रकार के
 ज्ञान से अपने को संपन्न करना चाहिए। यहाँ जो कुछ किंचित उल्लेख किया गया 
है, वह नाम मात्र का है। सिर्फ एक संकेतभर है।
प्रजातिगत
 लक्षणों के अलावा मानव-प्रजातियों के निर्धारण में विभिन्न लोगों द्वारा 
बोली जाने वाली भाषा को भी एक आधार-रूप में देखा जाता है। हालाँकि उसकी 
अपनी सीमाएं है और कई बार यह संदेह का स्रोत भी बन जाती है फिर भी यह एक 
बहुत बड़ा आधार माना जाता है। इन पर अध्ययन करने वालों ने भाषाओँ के आधार पर
 मानव-समूहों का कई भागों में विभाजन किया है। मोटे रूप से उन्हें 30 या 
उससे भी अधिक भागों में बांटा गया है। भाषा के आधार पर काकेशियन समूह मोटे 
रूप से 6 या 8 प्रकारों में यथा, आर्य, सेमेटिक, जोर्जियन, आदि रूप में 
बंटे मिलते है। वहीं मंगोलियन उरल-अल्टैक, अन्नामितिको-चइनीज, टिबेटो-बर्मन
 आदि समूहों में विभक्त किये जाते है। इन जानकारियों से कई प्रच्छाओ का भी 
जन्म हुआ। यह पूछा जा सकता है कि शारीरिक गठन के प्रकारों से ज्यादा भेद 
भाषा के आधार पर कैसे और कब हुए? अगर सभी काकेशियान का जैविक रूप एकस ही 
है, जैसा कि माना जाता है, तो उनका प्रारंभिक बिंदु भी एक ही होना चाहिए। 
यह कैसे हुआ कि आर्य, सेमेटिक और अन्य भाषायी प्रकार उत्पति रूप 
से (genetically) एक नहीं है। भाषाविद इस पर काफी माथा-पच्ची करते हुए 
दिखते है। उनकी खोजों ने भी हमारे अंधकार में दबे इतिहास को उजागर करने में
 बड़ी मदद की है। इसके जो संभावित समाधान सुझाये जाते है, उनमे यह ध्यान 
देने योग्य है कि या तो ये काकेशियन या मंगोलियन लोगों द्वारा दूसरी 
जातियों पर थोंपे गए या उन्होंने (काकेशियन या मंगोलियन) ने इन्हें समय के 
साथ स्वतंत्र रूप से विकसित किया हो। खैर, जो भी हो, भाषा का तत्व मानव के 
प्राचीन इतिहास को जानने का एक महत्वपूर्ण कारक तो ठहरता ही है।
विजय
 के द्वारा, आवर्जन या प्रव्रजन के द्वारा या विस्थापन और कई अन्य कारणों 
से भी लोग अपनी भाषा को बदलने के लिए बाध्य हुए होंगे और फिर उसे अंतर्मिलन
 के फलस्वरूप परिवर्तित और परिवर्धित भी किया होगा- इस बात को नकार नहीं जा
 सकता है। इसमे तुर्की लोगों की भाषा देखी जा सकती है, जो भाषायी रूप से 
मंगोल लोगों से अलग हुए। भाषागत रूप से वे काकेशियन है जबकि बोलते तुर्की 
है। इसके उलटा हजारा और अयमक (उत्तर-अफ़ग़ान) में वे प्रजातिगत रूप से मंगोल 
है पर उन्होंने अपनी भाषा पर्शियन अपना ली।
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