मेघ/मेघवाल के धर्म ओर इतिहास पर
राजस्थान मे मेघवाल पर लगे ढेड और भाम्बी शब्द क्या है इसके पिछे क्या कारण है। कुछ इतिहासिक तथ्य
राजस्थान मे मेघवाल पर लगे ढेड और भाम्बी शब्द क्या है और यह नाम किसने दिए और क्यु दिए इसके पिछे क्या कारण है।
प्रत्क्रियाओ से स्पस्ट होता है कि इसमें कुछ न कुछ दफन है। एक प्राचीन पुस्तक है उसका नाम है- "The
Dheds"
मारवाड़ मर्दुमशुमारी में भी इसको अर्थाया गया है। गोकुल दस जी ने भी इनका अर्थ किया या लिखा।
Tararam Gautam आज यह शब्द अपमानजनक माना जाता है,परन्तु सद्य प्राचीन काल में कई जातियों
का सूचक शब्द था। जिन्हें sc/st में शुमार किया। राजस्थान की sc की लिस्ट में 17 नंबर पर यह शब्द। ढेढ़
1971 के बाद withdraw।
Sharvan Meghwal Lakhani भाम्बी शब्द बहुत समानजनक है पर मनुवादियो को इस शब्द घृणित बना
डाला
महात्मा बुद्ध के समय पालि भाषा बोली जाती थी ।
पालि भाषा की लिपि बम्भी थी । सम्राट अशोक ने धम्मलिपी का समान दिया था ।
ब्रह्मण लोग इस बम्भी लिपि वाली पालि भाषा से बहुत नफरत करते थे ।
ओर इस भाषा को बोलने वाले लोगो को हेय दृष्टी से देखा जाता था और घृणा वश उनको बम्भी कहा जाता था
जो आज तक चला आ रहा है
भाम्बी शब्द मेघवँश के राजकाल इसवी सन् 150 से लेकर करीब 300 इशवी तक जो भाषा प्रचलित
थी
- जिनके कई शिला लेख भारतीय पुरातन विभाग ने खोज निकाले है - उस भाषा को " बाम्भी " कहते थे
| यह मेघो की मूल प्राचीन भाषाथी जिससे भाम्बी कहलाये | ओर ढेड नाम का प्रचलन करीब 12 वी
शताबदी ते आसपास सामन्ति ठाकुरो ने प्रचलित किया था ढेड का अर्थ मुर्ख होता है - उस समय मेघो
ने सामन्ति ठाकुरो की बैठ बेगारी हाली प्रथा से पिछडे होने के कारण उनको जातीय अपशब्द के रूप मे
यह घ्रणिय नाम ( ढेड ) शब्द प्रयोग किया था परन्तु ध्यान रहै .......... आधुनिक भारतीय सविधान
निमार्ण के बाद आजाद भारत मे इस घ्रणित जातीय शब्द का प्रयोग करना - सवैधानिक दण्डनिय
अपराध है अत: कोई भी निबुदि जन मुर्खता से मखोलता पूर्वक यह शब्द का प्रयोग करता है तो उनके
खिलाफ कानूनी कार्यवाही हो सकती है मध्यकालीन सामन्तकाल मे जब धार्मिक खेचातान थी - तब
मेघो ने अपनी अध्यात्मधारा को मेघ महाधर्म सिध्दो की परमपरा से सजोये रखा - उन्होनो ब्राहमणी
वैदिक पदति को नही माना - वे अलख उपासी थे | तब सर्वण जाती के लोगो ने एक ओखाणा प्रचलित
किया कि | डरता ढेड बैगार सु ,लियो भेख रो आलो | अलख नाम सत है , झुठो नाम है मोलो || कबीर ने
उनको कडा जवाब देते हुए कहा था यह तन ढुँडी रूप है ,इणमे रहे सो ढेड | आसक्ति तन मे रहे , ढुँडे सो
ही ढेड || कह कबीर सुनो भाई साधो - एक शब्द रो भेद | ढेड शब्द रो अर्थ ना , जाणै वे भादु है लेड ||
Tararam Gautam ऊपर एक अत्यंत पिछड़ी जाति के एक प्रतिभावान ने क्या खूब कही-"सतजुग
में
रिखिया---रोफल मांडी।" क्या यह इनके प्रतिकार आन्दोलन को बयाँ नहीं करता। मारवाड़ी में रोफल
का अर्थ"विद्रोह या प्रतिकार" भी होता है। दूसरा यह स्पस्ट है की इंद्रा के सत्तासीन होने तक उनका यह
आन्दोलन जीवंत था। thanks mr suthar for the valuable information . चलते - चलते इस
पर भी विचार कर ले-
"छौळणििया सेल़ा फिरे, मत बांध भरम री पाळ।
जादम सूं हेत मिलियो, छबिसों कर दिया कंगाळ।"
प्रश्न यह है कि यह तथाकथित मध्य वर्ग आपके साथ होने के बजाय अधिकार संपन्न वर्ग के साथ
क्यों खड़ा होता हुआ दिखता है। इसकी पड़ताल करने पर कई रहस्योद्घाटन होते है। उन सब पर चर्चा
अपेक्षित नहीं। एक उदहारण देकर में इसके समाज मनोविज्ञान पर डॉ बाबा साहेब के मतानुसार
विचार रखूँगा।
मारवाड़ में एक पीछड़ी जाति है जिसे सुथार या खाती भी कहते है। रियासत काल में खातियों की
औरतों को नाक बिन्दाने का अधिकार नहीं था। वे नाक नहीं बिन्दाती थी। पांव में चांदी की सांटे और
हाथ में बाजूबंद नहीं पहन सकती थी। वे कलियों का घाघरा भी नहीं पहन सकती थी, जबकि मारवाड़
में
मेघवाल औरत के पहनावे में ये आम प्रचलित था। सांटे या कड़ियाँ तथा बाजूबंद या चूड़े के बिना उनके
विवाह की रस्म "समेला-पडला" भी नहीं होता था। कलीदार घाघरा मारवाड़ में मेघवालों के अलावा
राजपूत और कुछ गिनी-चुनी जातियों का पहरावा था।
ओढ़ने-पहनने में इतना भेद् क्यो रहा? इस पर उनका विचार या मंथन नहीं जायेगा, बल्कि किसी
मेघवाल की उन्नति देखेगा तो उसमे यह भावना जागृत होगी कि विगत में ये लोग निम्न जाती में थे
अब पढ़ लिखकर हमारी जाति-स्तर से ऊपर नहीं उठ जाय और हिन्दू समाज उनको हमारी जाति से
ऊँचा नहीं मान ले। इस तरह के विविध विचार ऐसी मध्य जातियों के मानस शास्त्र को घेरे रहते है।
उनका ध्यान अन्याय परक व्यवस्था की ओर नहीं जाकर निराशा की ओर हो जाता है और वे आपके
साथी बनने के बजाय आपके आन्दोलन में रोड़ा बनते है।
डॉ आंबेडकर इसे इन वर्गों की नासमझी या अज्ञानता कहते है। और यह बात मैं सत्य या तथ्यपरक
इसलिए मनाता हूँ कि सुथार और सुथारों जैसी कई जातियां दूसरे प्रदेशों में sc में है, जहाँ उन्हें sc का
फायदा मिलता है। तो उन्हें उस हेतु sc के साथ होकर काम करना चाहिए, परन्तु विरोध में करते है।
इसका मनोविज्ञान यह है कि ये ब्राह्मणेत्तर समाजों के लोग अंधी परंपरा के वजह से छुआ-छूत बुरा है
या अच्छा, अछुत्प्पन भोगी लोगों के मुद्दे ठीक है या गलत यह नहीं सोचते हूए, उनके साथ हमदर्दी न
रखते हुए वे अपने झूठे बड्डपन के फरेब में आपके विपरीत खड़े हो जाते है। अनाचारी लोग अछूतपन
को बुरा मानते है। लेकिन सूने बड्डपन के कारण स्वार्थ में फंसकर अपने ही विचारों के अनुकूल
आचरण नहीं करते। उन्हें मालूम होते हुए भी अंधी परंपरा और स्वार्थ की वजह से आपकी बातों का उन
पर असर नहीं होता। वे इसी मिथ्या के कारण आपकी पोस्टों पर भी उट-पटांग लिखते है।
आपको इससे विचलित नहीं होना चाहिए। जो वे कहते या लिखते है, उसे ही अपनी ताकत बनाये और
साथ ही उनको राह पर लाऩे के लिए उपाय भी सोचने चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण उपाय यह हो सकता है
कि ऐसे अज्ञानी लोगों को सोच-विचार के लिए मजबूर करे। यह एकदम नहीं हो सकता है। हमेशा
जिस रास्ते पर चले है, उसे बाधाजन्य बनाये वगेर आप यह नहीं कर सकते। जिस प्रकार से वे आपके
मार्ग में बाधा बनते है वैसे ही आपको भी बाधक बनना पड़ेगा। दूसरा कोई चारा नहीं।
इस मनोविज्ञान का कारण आप ऐसे समझे- अछूतपन की परंपरा या जाति-पांति का भेदभाव वह
रास्ता है, जिस पर शदियों से हिन्दू समाज की विभीन्न जातियां चलती रही है। आप इस बात को
भलीभांति अपने अनुभव से जान सकते है कि किसी भी प्रचलित रास्ते के परंपरागत होने के कारण
उस रास्ते पर चलने वाला यात्री आँख मूंद कर उस रस्ते पर चल देगा। वह सीधा और सरल लगता है,
उसे दूसरों से भी पूछने की जरुरत नहीं होती है परन्तु जब उसी रस्ते में कोई बाधा आ जाए यथा उसी
रस्ते से कई रास्ते निकलते हुए दिखते हो तो वह रुक जायेगा, हड़बड़ा जायेगा और वह यह सोचने के
लिए मजबूर होगा कि इनमें से कौनसा रास्ता उसे सही गन्तव्य स्थान पर पहुंचाएगा। इससे साफ है
कि तब तक कोई भी आदमी अपने परंपरागत रास्ते के भले बुरे के सोचने के लिए तैयार नहीं होगा ,
जब तक उसमे बाधा न हो?
Megs. Connected with the Takkas by a similar inferiority of social position is the
tribe of Megs, who form a large part of the population of Riyasi, Jammu, and
Aknur. According to the annals of the Jammu Rajas, the ancestors of Gulab
Singh were two Rajput brothers, who, after the defeat of Prithi Raj, settled on the
bank of the Tohi or Tohvi River amongst the poor race of cultivators called Megs.
Mr. Gardner calls them " a poor race of low caste," but more numerous than the
Takkas.t In another place he ranges them amongst the lowest class of outcasts ;
but this is quite contrary to my information, and is besides inconsis tent with his
own description of them as " cultivators." They are but little inferior, if not equal,
to Takkas. I have failed in tracing their name in the middle ages, but I believe that
we safely identify them with the Mekei of Aryan, who inhabited the banks of the
River Saranges near its confluence with the Hydraotes.J This river has not yet
been identified with certainty, but as it is mentioned immediately after the
Hyphasis or Bias, it should be the same as the Satlaj. In Sauskrit the Satlaj is
called Satadru, or the " hundred channeled," a name which is fairly represented
by Ptolemy's Zaradrus, and also by Pliny's Hesidrus, as the Sanskrit Sata
becomes Hata in many of the W. Dialects. In its upper course the commonest
name is Satrudr or Satudr, a spoken form of Satudra, which is only a corrup tion
of the Sanskrit Satadru. By many Brahmans, how ever, Satudra is considered to
be the proper name, although from the meaning which they give to it of "
hundred- bellied," the correct form would be Satodra. Now Arrian's Saranges is
evidently connected with these various readings, as Satdnga means the '*
hundred divisions," or " hundred parts," in allusion to the numerous channels
which the Satlaj takes just as it leaves the hills. According to this identification
the Mekei, or ancient Megs, must have in habited the banks of the Satlaj at the
time of Alexander's invasion. In confirmation of this position, I can cite the name
of Megarsus, which Dionysius Periegetes gives to the Satlaj, along with the
epithets of great and rapid.* This name is changed to Cymander by Aoienus, but
as Priscian preserves it unaltered, it seems probable that we ought to read
Mycander, which would assimilate it with the original name of Dionysius. But
whatever may be the true reading of Avienus, it is most probable that we have
the name of the Meg tribe preserved in the Megarsus River of Dionysius. On
comparing the two names together, I think it possible that the original reading
may have been Megandros, which would be equivalent to the Sanskrit Megadru,
or river of the Megs. Now in this very part of the Satlaj, where the river leaves the
hills, we find the important town of Makhowdl, the town of the Makh or Magh
tribe, an inferior class of cultivators, who claim descent from Raja Mukh- tesar, a
Sarsuti Brahman and King of Mecca ! " From him sprang Sahariya, who with his
son Sal was turned out of Arabia, and migrated to the Island of Pundri; even
tually they reached Mahmudsar, in Barara, to the west of Bhatinda, where they
colonised seventeen villages. Thence they were driven forth, and, after sundry
migrations, are now settled in the districts of Patiala, Shahabad, Thanesar,
Ambala, Mustafabad, Sadhaora, and Muzafarnagar."* From this account we learn
that the earliest location of the Maghs was to the westward of Bhatinda, that is,
on the banks of the Satlaj. At what period they were driven from this locality they
know not ; but if, as seems highly pro bable, the Magiaus whom Timur
encountered on the banks of the Jumna and Ganges were only Maghs, their eject
ment from the banks of the Satlaj must have occurred at a comparatively early
period. The Megs of the Chenab have a tradition that they were driven from the
plains by the early Muhammadans, a statement which we may refer either to the
first inroads of Mahmud, in the beginning of the eleventh century, or to the final
occupation of Lahor by his immediate successors. 3. Other
* Orljis DcsLTi1itio, V. 1145.
• Smith's Rcv1ning Family of Lahor, p. 232, and Appendix p. xxix. In the text he
m.'iti* the " Tukkers" Hindus, but in the Appendix he calls the " Tuk" a " brahman
caste." The two names are, however, most probably not the same. t Ibid, pp. 232,
201, and Appendix p. xxix.
A Cunningham describe Meghs as under in Archaeological Survey Of India.
Volume-2 ( four reports during the years 1862-63-64-65) pp11 to 13. Published in
1871
Megs.
" Connected with the Takkas by a similar inferiority of social position is the tribe
of Megs, who form a large part of the population of Riyasi, Jammu, and Aknur.
According to the annals of the Jammu Rajas, the ancestors of Gulab Singh were
two Rajput brothers, who, after the defeat of Prithi Raj, settled on the bank of the
Tohi or Tohvi River amongst the poor race of cultivators called Megs. Mr. Gardner
calls them " a poor race of low caste," but more numerous than the Takkas.t In
another place he ranges them amongst the lowest class of outcasts ; but this is
quite contrary to my information, and is besides inconsis tent with his own
description of them as " cultivators." They are but little inferior, if not equal, to
Takkas. I have failed in tracing their name in the middle ages, but I believe that we
safely identify them with the Mekei of Aryan, who inhabited the banks of the
River Saranges near its confluence with the Hydraotes.J This river has not yet
been identified with certainty, but as it is mentioned immediately after the
Hyphasis or Bias, it should be the same as the Satlaj. In Sauskrit the Satlaj is
called Satadru, or the " hundred channeled," a name which is fairly represented
by Ptolemy's Zaradrus, and also by Pliny's Hesidrus, as the Sanskrit Sata
becomes Hata in many of the W. Dialects. In its upper course the commonest
name is Satrudr or Satudr, a spoken form of Satudra, which is only a corrup tion
of the Sanskrit Satadru. By many Brahmans, how ever, Satudra is considered to
be the proper name, although from the meaning which they give to it of "
hundred- bellied," the correct form would be Satodra. Now Arrian's Saranges is
evidently connected with these various readings, as Satdnga means the '*
hundred divisions," or " hundred parts," in allusion to the numerous channels
which the Satlaj takes just as it leaves the hills. According to this identification
the Mekei, or ancient Megs, must have in habited the banks of the Satlaj at the
time of Alexander's invasion. In confirmation of this position, I can cite the name
of Megarsus, which Dionysius Periegetes gives to the Satlaj, along with the
epithets of great and rapid.* This name is changed to Cymander by Aoienus, but
as Priscian preserves it unaltered, it seems probable that we ought to read
Mycander, which would assimilate it with the original name of Dionysius. But
whatever may be the true reading of Avienus, it is most probable that we have
the name of the Meg tribe preserved in the Megarsus River of Dionysius. On
comparing the two names together, I think it possible that the original reading
may have been Megandros, which would be equivalent to the Sanskrit Megadru,
or river of the Megs. Now in this very part of the Satlaj, where the river leaves the
hills, we find the important town of Makhowdl, the town of the Makh or Magh
tribe, an inferior class of cultivators, who claim descent from Raja Mukh- tesar, a
Sarsuti Brahman and King of Mecca ! " From him sprang Sahariya, who with his
son Sal was turned out of Arabia, and migrated to the Island of Pundri; even
tually they reached Mahmudsar, in Barara, to the west of Bhatinda, where they
colonised seventeen villages. Thence they were driven forth, and, after sundry
migrations, are now settled in the districts of Patiala, Shahabad, Thanesar,
Ambala, Mustafabad, Sadhaora, and Muzafarnagar."* From this account we learn
that the earliest location of the Maghs was to the westward of Bhatinda, that is,
on the banks of the Satlaj. At what period they were driven from this locality they
know not ; but if, as seems highly pro bable, the Magiaus whom Timur
encountered on the banks of the Jumna and Ganges were only Maghs, their
eject ment from the banks of the Satlaj must have occurred at a comparatively
early period. The Megs of the Chenab have a tradition that they were driven from
the plains by the early Muhammadans, a statement which we may refer either to
the first inroads of Mahmud, in the beginning of the eleventh century, or to the
final occupation of Lahor by his immediate successors." 3. Other
* Orljis DcsLTi1itio, V. 1145.
• Smith's Rcv1ning Family of Lahor, p. 232, and Appendix p. xxix. In the text he
m.'iti* the " Tukkers" Hindus, but in the Appendix he calls the " Tuk" a " brahman
caste." The two names are, however, most probably not the same. t Ibid, pp. 232,
201, and Appendix p. xxix.
रामसा कडेला मेघवँशी जोधपुर "दैनिक भाष्कर "'अखबार मे - 5 जुलाई 2003 पृष्ठ सॅख्या 13 मे
देखिये -
"लुप्त हो गयी बाम्भी की परम्परा"
इस लेख से स्पष्ट है कि मध्यकालीन सामन्तकाल मे मेघो को "गाव भाँभी" के नाम से नियुक्त किया
जाता था ।
जो गाव मे सूचना देने का सॅचार माध्यम के रुप मे नि:स्वार्थ सेवा प्रदान करते थे ।
चाहै गाव की बात हो , राजस्व सम्बन्धि सूचना हो या हाकिमो द्वारा किये गये एलान अथवा गांव पर
आये सॅकट से अवगत करवाना हो ,
इनकी सूचना ही महत्वपूर्ण मानी जाती थी । दूर बसी ढाणियो को सूचित करने मे तो समय लगता था ।
अतः ये बाँभी हेला विधि से हर घर मे सूचना पहूचाने मे पारन्गत थे ।..........
.........परिवारो को आपस मे जोङकर समाज बनाने मे इन बाँभियो का महत्वपूर्ण योगदान रहा
Tararam Gautam Archaeological survey of western India की जिल्द में पेज संख्या 196
में इनके बारे में जो लिखा है,उसे नीचे हुबहू दे रहा हूँ-
"The Dheds, the lowest caste among the Hindus found in every town and village.
From their nukhs, or family names, many of them appear to have been Origionaly
Rajput descent, for instance, we find among solankis, chavadas, jhalas, vaghelas,
& c. The Hindus consider themselves polluted by their touch. Their profession is
that of weavers, cobblers, wood-splitters, and tanners. They also take the hides
and entrails from the carcasses of dead animals. THOSE WHO SERVE AS GUIDE
TO GOVERNMENT OFFICERS ARE ALSO CALLED MEGHVALS"
Ref: Archaeological Survey of Westen India: Report on the Antiquities of
Kathiawad and Kuchh,1874-75. Published in 1876, India Museum, London
ऊपर रामसा के फोटो कमेन्ट के साथ इसे समझे। ढेड- हिन्दुओं में सबसे निम्न जाति, जो प्रत्येक
कसबे और गांव में है। उनके नख या पारिवारिक नामों से प्रतीत होता है कि ये मूल राजपूतों के वंशज
है। यथा उनमे सोलकी, चावड़ा, झाला, वाघेला और अन्य पाए जाते है। उनके छू जाने/स्पर्श हो जाने पर
हिन्दू अपने को दूषित/ अपवित्र हुआ मनाता है। उनके व्यवसाय/धंधा में कपड़ा बुनना, जूते बनाना,
लकड़ियो को काटना और चमडा रंगना है। मरे हुए पशुओं के शवों से खाल भी उतारते है। वे जो राज/
सरकार के अधिकारीयों के गाइड के रूप में सेवा करते है, उन्हें मेघवाल भी कहते है।
इससे यह स्पस्ट हो जाना चाहिए कि यह शब्द अंग्रेजों ने नहीं दिया। हिन्दुओं ने ही दिया। आधुनिक
समय में अपनी झेंप मिटाने के लिए वे सचेष्ट ऐसा करते है। अंग्रेजो को इस शब्द की कैसी समझ थी,
वह ऊपर के विवरण से स्पष्ट है।
Glossary of Indian terms में इसके बारे में निम्न विवरण मिलाता है- "Dherh- Name of a
caste in those provinces, chiefly in the saugar territory. The name is applied to
Bhangis and Chamars.* They eat dead animals, clean the skins, and sell them to
chamars. In the Nagpur territory they have acquired some consideration from
their employment as Dherhs."
"In the Deccan they are said to be the same as the Mahrs of Maharattas(journal
of R.A.S p224) - see also the printed glossary under Dheda and Dheyr"
"In the Western Provinces, though they are now not often found in any numbers,
they appear to have left the remembrance of their name, for it is a common term
to call man a 'bara Dherh' or a low caste fellow"
"In Rajputana, Dherhs will not eat hogs, either tame or wild: the latter they hold in
great abomination, not withstanding their Rajput masters look upon them as a
luxury." Pp 80-81.
-------------------
*footnote- "this word is spelled धेड in Molesworth's Marathi Dictionary, and I think
this is more correct then in text. But so much uncertainty exists as to the spelling
of Hindi that, in absence of a conclave of pandits, I can't venture to decide.
Wilson, both in "Glossary....."and "sel. works" i 186, spells it ढेढ़- "
Reference: Memoirs on the History, folk-lore and Distribution of Races of North
Western Provinces of india" supplementary Glossary of Indian Terms. Volume-
6, by H. M. Elliot, ed by J. Beams, London,1869. जय भीम
Posted by Raj Bose
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1 टिप्पणी:
जानकारी के लिए बहुत 2 धन्यवाद
ओम प्रकाश मेहरा, अध्यापक, मेहरा चौक भोपालगढ, जिला जोधपुर
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