मेघों में से क्या कोई सेना में उच्चतम पद तक पहुंचा है?
सौर्स तारा राम गौतम भारत और पाकिस्तान में मेघ सघन रूप में निवास करते है। विभाजन से पहले इन क्षेत्रों में आपसी शादी-ब्याह और सामाजिक-धार्मिक रिश्ते रहे है। अभी भी है, परंतु अब वे आपसी संबंध नहीं है। दोनों की राष्ट्रीयता अलग-अलग हो चुकी है, फिर भी सदियों से उनकी परंपराएं कमोबेश एकसी ही है। उन्होंने राष्ट्र निर्माण में, चाहे वह भारत हो या पाकिस्तान, उसमें बहुत बड़ा योगदान दिया है। हकीकत यह है कि मेघ सिंध की एक आद-कदीमी कौम है। कनिंघम आदि पुरातत्व इतिहासवेत्ताओं ने इनका मूल उद्गम सतलज नदी और चेनाब व रावी नदी के मुहानों को माना है। मेघों के कारण ही सतलज नदी को प्राचीन काल में मेगारसस रिवर कहा जाता था, जहां पोरस और सिकंदर की भिड़ंत हुई। मेघ (मेग) हड़प्पा की सभ्यता का भी सृजक माने जाते है। प्राचीन काल में मेघों के स्वतंत्र गण रहे है और तब से ही मेघ देशी रियासतों की सेना में भी रहे है और अब भी है।
विभिन्न स्रोतों को टटोलने से यह ज्ञात होता है कि सेना में मेघों की भागीदारी तो रही है, परंतु वह बहुत कम ही रही है। हकीकत यह है कि जब भी सेना में सेवा के माध्यम से इनको देश सेवा का मौका मिला है, उन्होंने अदम्य साहस और धैर्य का परिचय दिया है।
अखंड भारत में कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह के समय अफ़ग़ानों के विरुद्ध लड़े गए युद्ध में मेघों ने अपने शौर्य और पराक्रम का बेमिसाल परिचय दिया था। जिसकी चहुं ओर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई। उस समय ब्रिटिश सेना नायकों ने सेना का जो इतिहास लिखा है, उसमें इनका जिक्र मिलता है। उससे भी पहले महाराजा प्रवरसेन के समय में भी मेघों ने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया था। इन सबका मिलिट्री इतिहास में यत्रतत्र उल्लेख हुआ है।
मारवाड़ में राजपूतों के आगमन से पहले मेघों की यहां सघन बस्तियां थी और स्वतंत्र गण के रूप में ये यहां आबाद थे। जोधपुर की स्थापना के समय जिस राजाराम मेघवाल की बात की जाती है, उसके पूर्वज भी सिंध से जैसलमेर होते हुए जोधपुर आये थे और मंडोर के पास अपना स्वतंत्र गण स्थापित किया था। जोधपुर की मंडोर तहसील का एक भाग अभी भी 'मेगारावटी' कहलाता है। जोधपुर रियासत में मेघवाल लोग महाराजा के अंगरक्षकों और संदेशवाहकों के रूप में सेवाएं देते रहे है। ऐसा उल्लेख रियासत के कई दस्तावेजों में मिलता है।
प्रथम विश्वयुद्ध व द्वितीय विश्वयुद्ध में भी मेघों की भागीदारी रही है। द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में पंजाब और मारवाड़ से मेघों की सेना में विशेष भर्ती की गई थी। जिसका उल्लेख भी ब्रिटिश इंडियन आर्मी पर लिखी गयी कुछ पुस्तकों में हुआ है।
पाकिस्तान की सेना में मेघों की स्थिति क्या है, इसका ठीक-ठीक पता नहीं है, परंतु स्वतंत्र भारत में मेघ/मेघवालों की सेना में सदैव न्यूनाधिक भागीदारी रही है और कई जवान सेना की उच्चतम रैंक तक पहुंचे है। भारत की सेना में ब्रिगेडियर रैंक तक मेघ लोग पहुंचे है। इन में मेघ ब्रिगेडियर आत्माराम एक प्रमुख दिग्गज है।
ब्रिगेडियर आत्मारामजी जी का परिवार मूलतः जम्मूकश्मीर का रहने वाला था, वहां से वर्तमान पाकिस्तान के स्यालकोट के पास के किसी गांव में रहने लगा था और देश का विभाजन होने पर वे भारत के पंजाब में आ बसे थे। पंजाब में उनका परिवार जालंधर में आ बसा था और जैसा मुझे कर्नल तिलकराज ने बताया आत्मारामजी का परिवार उनका पड़ौसी था। श्री आर एल गोत्रा जी भी उसी कॉलोनी में रहते थे। उन्होंने बताया कि आत्मारामजी छोटी उम्र में ही सेना में सिपाही क्लर्क के पद पर भर्ती हो गए थे और आंतरिक परीक्षा देकर वे कमीशण्ड अफसर बन गए थे और अपने साहस व शौर्य के बल पर ब्रिगेडियर पद तक पहुंचे।
सन 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय वे युद्ध के इलाके में तैनात थे। युद्ध में हुए ब्लास्ट में उनका कंधा और एक आंख जख्मी हो गयी थी। उनके एक नकली आंख लगाई गई। यह बात युद्ध-समाप्ति के बाद स्वयं आत्मारामजी ने आर एल गोत्रा जी को बताई थी, जब युद्ध समाप्ति के बाद वे मिले और एक-दूसरे का हालचाल जाना। युद्ध के समय गोत्राजी की ड्यूटी भी जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र में ही थी।
आत्मारामजी को वीर चक्र प्राप्त हुआ था। ऐसा उनके मिलनसार मित्र कर्नल तिलकराज जी ने मुझे बताया। सन 1971 की लड़ाई के बाद कर्नल तिलकराज और आत्मारामजी की मुलाकात हुई थी। उन्होंने यह भी बताया कि आत्माराम जी ने अंतरजातीय विवाह किया था। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि वे खुद 1971 के वार के समय कश्मीर बॉर्डर पर तैनात थे। आत्माराम जी ने जम्मू-कश्मीर के सेना में कार्यरत एक जाट अफसर की पुत्री से अंतरजातीय विवाह किया था। चूंकि उन्होंने एक जाट युवती से शादी की थी, अस्तु कई लोग उन्हें एक जाट के रूप में ही जानते थे, जबकि मूलतः वे डोगरा 'मेघ' थे। कर्नल तिलक राज जी ने बताया कि उनकी अंतिम मुलाकात हुई तब आत्मारामजी ब्रिगेडियर बन चुके थे। पिछले 50 वर्ष से उनकी कोई मुलाकात नही हुई है।
आत्माराम जी के एक अन्य परिचित श्री आर एल गोत्रा जी (हाल ऑस्ट्रेलिया निवासी), जो अभी अप्रैल-मई 2023) अपने इलाज के लिए जालंधर (भारत ) आये हुए है, उन्होंने मुझे बताया कि बचपन में वे जालंधर में साथ में खेलते-कूदते थे। आत्माराम उनसे दो-चार साल छोटे थे। आत्मारामजी से बड़े दो भाई थे। वे भी पंजाब सरकार की सेवा में आ गए थे। उन्होंने यह भी बताया कि उनका परिवार स्यालकोट से 1947 में भारत आया और मेघ आत्माराम का परिवार, जो स्यालकोट के पास के किसी गांव के रहने वाले थे, वह भी उसी समय भारत आया। शरणार्थी केम्पों में भी आसपास ही रहते थे। श्री गोत्राजी ने यह भी बताया कि उनकी नौकरी लग जाने के बाद जब आत्मारामजी से मुलाकात हुई तब आत्माराम से ही मालूम हुआ था कि उसकी भी नियुक्ति आर्मी में सैनिक-क्लर्क के पद पर हो गयी है। आर्मी के सेवा नियमों के अनुसार विभागीय परीक्षा पास करने पर वह शीघ्र ही कमीशंड अफसर बन गया था। सन 1971 की लड़ाई के बाद भी उनकी मुलाकात आत्मारामजी से हुई थी। तब उससे मालूम हुआ कि युद्ध में हुए ब्लास्ट से उसकी एक आंख चली गयी थी। यह बात आत्मारामजी ने स्वयं गोत्राजी को बताई थी, ऐसा उन्होंने मुझे 12/13 मई 2023 को उनसे दूरभाष पर हुई वार्ता में बताया। उस समय वह आर्मी में मेजर बन चुके थे। गोत्राजी ने यह भी जानकारी दी कि एज दशक पूर्व (2011) आत्मारामजी के निकट संबंधी से उन्हें मालूम हुआ था कि रिटायरमेंट के बाद आत्मारामजी महाराष्ट्र में बस गए है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि पिछले 50 साल से आत्मारामजी से उनका कोई संपर्क नहीं हुआ है। अब पंजाब में रहने वाला उनके परिवार का कोई सदस्य उनकी जानकारी में नहीं है। यही बात कर्नल तिलक राज ने मुझे बताई है।
ब्रिगेडियर आत्माराम, कर्नल तिलकराज और आर एल गोत्रा जी मेघ समाज से ही है और बचपन से एक-दूसरे को जानते थे और जलन्धर में एक ही मोहल्ले में रहते थे।
मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई है कि कर्नल राजकुमार मेघ भी आत्मारामजी को जानते थे। मेरा उनसे संपर्क नहीं हो पाया है।
मैंने यह सब यहां क्यों लिखा? मेरे लिखने का उद्देश्य यह है कि इस जाति के बारे में जो भ्रम फैलाया जाता है, उसको दूर करना हमारा दायित्व है। वर्तमान में भी कई मेघ/मेघवाल भारत की सेना में कमीसन्ड अफसर है, कई मेघ कप्तान और कर्नल रैंक में भी है। जोधपुर की शेरगढ़ तहसील से अभी दो जवान लेफ्टिनेंट पद पर कार्यरत है। कई लोग कैप्टन रैंक से सेवानिवृत्त हुए है। सियांधा (शेरगढ़) के पूंजाराम जी पहले आदमी थे, जो कप्तान रैंक तक पहुंचे थे। वे पिछली शताब्दी के आठवें दशक में सेवानिवृत्त हुए थे, शायद सन 1980 से पहले और मेरे पिताजी से परिचित होने के कारण मैं भी उनको व्यक्तिगत रूप से जानता था। मेरे पिताजी द्वितीय विश्वयुद्ध में बतौर सैनिक अंग्रेजों की सेना में थे। मेरे ननिहाल से भी एक दर्जन मेघवाल लोग द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिक रहे है और कईयों ने उस युद्ध में शहादत दी। द्वितीय विश्वयुद्ध के मेघ वीर सैनिक हरबंश जी और बलिराम जी भी कैप्टेन रैंक तक पहुंचे थे। लेकिन मेघों में ब्रिगेडियर रैंक तक पहुंचने वाले आत्मारामजी पहले व्यक्ति है।
किसी की जानकारी में अन्य कोई हो तो उसे साझा करें।
कुछ लोगों ने मुझे बताया कि वे लेफ्टिनेंट जनरल तक पहुंचे थे, परंतु उसकी पुष्टि नहीं हुई है, जबकि ब्रिगेडियर रैंक तक की पुष्टि कई स्रोतों से हुई है।
इस संबंध में कोई ओर जानकारी हो तो साझा करें।
समय के साथ आत्मारामजी के परिवार ने पंजाब छोड़ दिया और अब उनकी जानकारी का कोई स्रोत नहीं है। इसमें जो फ़ोटो दिया है, उसे श्री आर एल गोत्रा जी ने स्वयं तस्दीक करके मुझे भेजा है। कर्नल तिलकराज ने भी इस फोटो की तस्दीक की है कि यह फोटो ब्रिगेडियर आत्मारामजी का ही है। इस हेतु गोत्राजी का आभार।
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