सिंधु घाटी ( मेघवंशीय ) सभ्यता मेघवंश का उद्भव मेघऋषि से माना जाता हैं. मेघ शासक सिंधु सभ्यता के पराकर्मी शासक रहे हैं . मेघऋषि के वंशजों को ही मेघ, मेघवाल कहा गया हैं .मेघवाल का असली शब्द मेघवार हैं .मेघवार की जगह प्राय: मेघवाल शब्द का प्रयोग किया जाता हैं . मेघवार शब्द संस्कृत के मेघ तथा वार शब्द के मेल से बना हैं . मेघ शब्द का अर्थ बादल अथवा वर्षा तथा वार का अर्थ प्रार्थना हैं . मेघवार का अर्थ उन लोगों से हैं , जो वर्षा के लिए प्रार्थना करते हैं .कलिंग के मेघवंशीय खारवेल राजाओं ने अपने नाम के साथ मेघवाहन शब्द लगाया हैं .मेघवाहन का शाब्दिक अर्थ मेघों ( बादलों ) का वाहन करने वालों से हैं . मेघ भारत के मूल किसान हैं . प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता हैं के विभिन प्राचीन सभ्यताओं में राजऋषि परम्परा प्रचलित थी . वह राजऋषि अपने देश का शासक होता था और धर्मगुरु भी . सुरसती , सतलुज ,व्यास ,रवि , चिनाब ,जेहलम और सिंधु आदि सात नदियों के दोआबों और उत्तर दक्षिण किनारों पर पनपी सिंधु घाटी सभ्यता में रजऋषियों की परम्पराएं थी. अंततः राजऋषि वृत्र ही सप्तसिंधु प्रदेश के दास (भक्त या भगत ) कहलाने वाली प्रजा के धर्मगुरु व राजा अर्थात राजऋषि थे . राबर्ट एडम का कथन है कि वहां प्राचीन राजपुरोहित शासकीय प्रणाली थी. .ऐसे राजऋषि राजाओं की आज्ञा मेघेश्वर की आज्ञा के समान मानी जाती थी . डॉ मैके और डॉ व्हीलर ने शोधों के आधार पर कहा हैं के मोहनजोदड़ों में भी सुमेरिया की तरह धार्मिक शासन पाया गया हैं . सम्पूर्ण सप्तसिंधु प्रदेश राजऋषि वृत्र के अधिकार में था . राजऋषि वृत्र के पास असंख्य फौज थी . वे जब चलती थी तो मेघों की तरह छा जाती थी , इसीलिए राजऋषि वृत्र ही महामेघ मेघऋषि थे . श्री नवल वियोगी की पुस्तक 'सिंधु घाटी के सृजनकर्ता -शुद्र और वणिक ' में जिस सिंधु घाटी क्षेत्र का वर्णन हैं , उसमे समूचा पश्चिमोत्तर अविभाजित भारत , जिसमे सम्पूर्ण पाकिस्तान , पंजाब, हरयाणा, हिमाचल प्रदेश , राजस्थान, गुजरात, और पश्चमी उत्तर प्रदेश का भूभाग आता हैं . यह क्षेत्र मिश्र के क्षेत्र से चार गुना , इराक और मिश्र दोनों के क्षेत्र से लगभग दोगुना था . यही क्षेत्र मेघऋषि का क्षेत्र था . इसी क्षेत्र में मेघ, मेघवाल, मेघवंशी , कोरी, कोली, कोष्टी, बलाई, साल्वी , सूत्रकार बुनकर , कबीर पंथी, जाटव, बैरवा, चंदौर, चमार, इत्यादि विभिन नामों से जाने वाली मेघऋषि की की जातियों का बाहुल्य रहा हैं . ऋग्वेदनुसार सप्त नदियों द्वारा संचित प्रदेश राजऋषि वृत्र के अधीन था . राजऋषि वृत्र को नाग कुल का संस्थापक भी माना गया हैं . नाग ( असुर ) मूलतया शिव उपासक बताये गए हैं . नागवंशियों को उनकी योग्यताएं , गुणवत्ता , व्यवहार व कार्यशैली के कारण देवों का दर्ज़ा दिया गया हैं . वे वास्तुकला आदि में निपुण थे . नागवंशियों का सम्पूर्ण भारत पर राज्य था . सिंधु सभ्यता में मिली मोहरों पर पशु व सांप के निशान पाए गए हैं . नागवंश के लिए सर्प की पूजा का प्रचलन था . ऋग्वेद से पूर्व जो भी लिखा गया था , वे सातों नदियों के मुहानों पर बने बांधों को तोड़ने से जलप्लावन में बह गया और सिंधु लिपि की सीलें पढ़ी नहीं जा रही हैं . अतः मेघवंश का इतिहास जानने के लिए ऋग्वेद पर ही आश्रित होना पड़ेगा . ऋग्वेदनुसार आर्यों ने जब भारत में प्रवेश किया तो सम्पूर्ण भारत पर वृत्रासुर मेघ का एक मात्र राज्य था . सिंधु सभ्यता कृषि प्रधान थी तथा उन्होंने नदियों पर पांच बांध बना कर वर्षा के पनि को रोक हुआ था ताकि केवल वर्षा पर निर्भर न रह कर समय पर फसलों की सिचाई कर सके . आर्यों के प्रधान सेनापति इंद्र की जब वृत्रासुर मेघ से भिड़ंत हुई , तो इंद्र उन्हें परास्त नहीं कर सका. उसने कूटनीति अपनाकर मेघों के शस्त्र विशेषज्ञ मूल भारतीय त्वष्टा को आपने साथ मिला . त्वष्टा ने आर्यों के प्रधान सेनापति इंद्र को परामर्श दिया के महामेघ वृत्र की हत्या तथा उनके मजबूत किलों को ध्वस्त करने के लिए वज्र तैयार करवाया जाये . इंद्र ने त्वष्टा पुत्र त्रिसरा को अपना पुजारी न्युक्त कर लिया , क्योकि वह वज्र बनना जनता था , इसलिए इंद्र ने उसे वज्र बनने की आज्ञा दी , लेकिन त्रिसरा ने अनहोनी के चलते विद्रोह खड़ा कर दिया. इंद्र ने क्रोधित होकर उसकी हत्या कर दी. अपने पुत्र की हत्या से भयभीत होकर त्वष्टा ने खुद वज्र का निर्माण किया . उस वज्र से इंद्र ने वृत्रमेघ द्वारा रचित पांचों बांधों को तोड़ दिया और प्रथम वृत्रमेघ का वध कर दिया ( ऋग्वेद ३२ वें सूक्त के सातवें श्लोक १ से ५ ). बचे हुए सिंधु वासियों मेघों को गुलाम बना लिया . ऋग्वेदनुसार मेघों में प्रथम मेघ वृतमेघ थे, मेघवंश अति प्राचीन मेघवंश हैं . शनै शनै विभिन्न नाम , प्रान्त एंव विचारधारा के चलते यह महान मेघवंश अलग अलग नामों में बंट गया. साभार " मेघवंश एक सिंहावलोकन ।
History of Megh Samaj
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